सुरेन्द्र दुबे
लगता है समाजवादी पार्टी ने आन्दोलनों की राजनीति को तिलांजलि दे दी है। अब इनके अध्यक्ष अखिलेश यादव धरना प्रदर्शन और आन्दोलन की राजनीति छोड़कर प्रेस कांफ्रेंस और ट्वीट की राजनीति पर उतर आएं हैं जो पार्टी को लगातार हाशिए पर ढकेलती जा रही है।
ट्वीट का शाब्दिक अर्थ है कांव-कांव। जाहिर है कांव-कांव करने से कोई आन्दोलन गांव-गांव तक नहीं पहुंच सकता है।
नागरिकता संशोधन कानून का सड़कों पर विरोध कर पार्टी को गतिशील बनाने के बजाए अखिलेश यादव आज प्रेस कांफ्रेंस कर कार्यकर्ताओं को भरोसा दिला रहे थे कि उनकी सरकार आने पर कार्यकर्ताओं पर दायर मुकदमें वापस ले लिये जाएंगे। पर पार्टी कैसे दुबारा सत्ता में आएगी इस पर पार्टी में कोई विचार मंथन नहीं चल रहा है। सिर्फ प्रेस कांफ्रेंस के जरिए नागरिकता कानून का विरोध करने से काम नहीं चलने वाला है। जब नेता ही जमीन पर उतर कर आन्दोलन नहीं करेगा तो फिर कार्यकर्ताओं से किसी आन्दोलन की उम्मीद कैसे की जा सकती है।
अखिलेश यादव यह बात भूल गए हैं कि जब वर्ष 2012 में उन्हें सत्ता मिली थी तो उनके पास उनके पिता मुलायम सिंह यादव की आन्दोलनों से उपजी एक बहुत बड़ी राजनैतिक पूंजी थी। उन्होंने स्वयं अपने पिता की राजनैतिक विरासत को आगे बढ़ाने के लिए पूरे प्रदेश में रथ यात्रा निकाली थी। जिससे उत्साहित होकर जनता ने समाजवादी पार्टी को पहली बार पूर्ण बहुमत दिया था। इतना बहुमत उनके पिता मुलायम सिंह यादव को भी कभी नहीं मिला था।
मुलायम सिंह यादव ने जिस ढंग से अखिलेश यादव की मुख्यमंत्री के रूप में लांचिंग की थी उससे प्रदेश की जनता को लगा था कि उन्हें जूनियर मुलायम सिंह मिल गए हैं। पर लगता है कि अखिलेश यादव ने मुलायम सिंह से मिली सफलता को अपनी सफलता मान लिया और धीरे-धीरे अपने पिता मुलायम सिंह यादव को पीछे ढकेलने लगे, जिससे उनके मतदाताओं का भ्रम दूर हुआ और वे समाजवादी पार्टी से छिटक भाजपा या फिर बहुजन समाज पार्टी में चले गए। राजनैतिक कार्यकर्ता को हमेशा एक ऐसी जमीन की तलाश रहती है जहां वह अपने सम्पर्कों की खेती कर सके और मौका आने पर इस फसल को काटकर अपनी राजनीति चमका सके।
अब वह जमाना नहीं रहा जब कार्यकर्ता जिन्दगीभर सिर्फ दरी बिछाता रहेगा। अब कार्यकर्ता पार्टी को अपने सपनों पर कसता है और अगर उसे लगता है वर्तमान पार्टी उसके सपने पूरे करने में असमर्थ है तो फिर वह अपने सपनों के साथ दूसरी पार्टी में चला जाता है। यह बात शायद अभी तक अखिलेश यादव को समझ में नहीं आई है इसीलिए बहुजन समाज पार्टी के साथ मिलकर लोकसभा चुनाव लड़ने के बाद भी उसे सिर्फ पांच सीटें मिली।
लोकसभा चुनाव लड़ने के बाद भले ही सपा और बसपा के रास्ते अलग हो गए हों पर लगता है कि सपा ने बसपा की तरह ही जनता से दूर रहकर जनता की राजनीति करने की नकल कर ली है। जिस तरह बसपा प्रमुख मायावती केवल प्रेस कांफ्रेंस और ट्वीट के जरिए पार्टी चला रहीं हैं वही तरीका सपा ने भी अपना लिया है।
नागरिकता संशोधन कानून पर विरोध के नाम पर कांग्रेस को छोड़कर इस प्रदेश में कोई भी पार्टी आन्दोलन नहीं कर रही है। गांव और खलिहान का बखान करने वाली सपा और बसपा महलनुमा राजनीति कर रही है जबकि महलों में रहने वाली प्रियंका गांधी सड़कों पर उतर कर अपनी पार्टी को मजबूत बनाने में लगी हुई है।
समाजवादी पार्टी तो इस आंदोलन में यदाकदा दिखी भी पर बसपा प्रमुख ने तो पार्टी को आन्दोलन में उतरने ही नहीं दिया। अब अगर राजनैतिक हलकों में यह आरोप लग रहे हैं कि मायावती भाजपा से नहीं भिड़ना चाहती तो इसमें कुछ अतिशयोक्ति नहीं लगती। इसका ताजा प्रमाण मायावती का कल का बयान है जिसमें उन्होंने कांग्रेस पर हमला बोलते हुए कहा कि जब कांग्रेस सत्ता में होती है तब उसे संविधान बचाओ की याद नहीं आती है। जाहिर है जब मायावती को भाजपा पर हमला बोलना चाहिए था तब वह कांग्रेस पर हमलावर हो गई हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, लेख उनके निजी विचार हैं)
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