केपी सिंह
तो क्या राहुल गांधी की मां सोनिया गांधी लोक सभा चुनाव में अपने बेटे के अतिउत्साह के कारण पार्टी के रसातल में जाने की दलील देने वालो से सहमत हो गई हैं। क्या कांग्रेस में प्रधानमंत्री मोदी के प्रति प्रशंसा का भाव रखने वालों को महत्व दिया जाने लगा है।
इस तरह के सवाल पार्टी की शीर्ष संचालन समिति के रूप में सोनिया गांधी द्वारा बनाई गई 17 सदस्यीय थिंक टैंक कमेटी में शामिल चेहरों को देखने के बाद उभरे हैं। जिन्हें लेकर राजनीतिक पंडितों को समझ के फेर जैसी स्थिति से गुजरना पड़ रहा है।
सोच-विचार कर बोलने की जरूरत की महसूस
यह भी बहुत गौर करने लायक है कि कांग्रेस ने सर्वोच्च संचालन समिति या दूसरा कोई और नाम देने की बजाय शीर्ष समिति को थिंक टैंक या विचार समूह नाम देना उचित समझा।
यानि मोदी जैसे शब्द पकड़ने वाले प्रतिद्वंदी के सामने बिना विचार किये बोल देने के जो नुकसान पार्टी को हुए हैं उन्हें सोनिया गांधी ने संज्ञान में लेने की जरूरत महसूस की है। विचार समूह का काम यही होगा कि इन दिनों राजनीति के केंद्र में जिन संवेदनशील मुददो ने जगह बनाई है उनके बारे में कांग्रेस की परंपरागत मुहावरेबाजी में ढली हुई लापरवाह राह को मुंह से निकालने की बजाय सोच-समझकर पूरा आगा-पीछा तोलने के बाद वक्तव्य दिया जाये तांकि पार्टी का गला फंसने की नौबत न आये।
बेवाकी पड़ रही थी मंहगी
कश्मीर मामले में बड़ी गफलत हुई। इसके पहले सर्जिकल स्ट्राइक को लेकर दिखाई गयी ‘‘बेवाकी’’ पार्टी को मंहगी पड़ चुकी थी। इसे लेकर पार्टी के नेताओं का एक वर्ग भी असंतोष की मुद्रा में आ गया था। इसलिए अनुच्छेद 370 को अर्थहीन बनाने का फैसला जब आया तो जयराम रमेश बोल पड़े कि मोदी को हर बात में खलनायक की तरह पेश करने से पार्टी बाज आये। उनके अच्छे कामों की तारीफ भी होनी चाहिए।
जयराम रमेश की इस उलटबासी से आमतौर पर पार्टीजन स्तब्ध रह गये। लेकिन कुछ बड़े नाम ऐसे भी थे जिन्होंने माना कि जयराम रमेश ने सही समय पर पार्टी नेतृत्व को आइना दिखाने का साहस दिखाया है। इस कड़ी में शशि थरूर और अभिषेक मनु सिंघवी ने भी तपाक से उनकी हां में हां मिला डाली जो दरअसल उनके द्वारा अपने अंदर की घुटन को निकालने की कवायद थी।
कटघरे में राहुल
कहने की जरूरत नही है कि यह एक तरह से राहुल गांधी को गलत साबित करने का दुस्साहस था। राहुल गांधी ने चौकीदार चोर है के नारे को लोकसभा चुनाव में बहुत जोरशोर से गुंजाया था। लेकिन इससे फायदा की बजाय पार्टी को जबर्दस्त नुकसान हुआ।
कांग्रेस के ज्यादातर लोग इस नारे पर जन प्रतिक्रिया देखकर चाहते रहे थे कि राहुल गांधी को इसमें टोका जाये लेकिन पहल कौन करे। जयराम रमेश ने भले ही देर आये, दुरुस्त आये जैसा काम किया हो लेकिन आखिर वे बिल्ली के गले में घंटी बांधने निकले तो कांग्रेस के मन की घंटियां बज गईं।
माना निंदक नियरे का मंत्र
आश्चर्यजनक रूप से जयराम रमेश को दरकिनार करने की बजाय सोनिया गांधी ने थिंक टैंक में शामिल करने का मान दिया है। थिंक टैंक में एक और चौकाने वाला नाम ज्योतिरादित्य सिंधिया का है जिन्होंने अनुच्छेद 370 के मुददे पर सरकार द्वारा की गई कार्रवाई का खुला समर्थन करने का कुफ्र कर डाला था।
वैसे भी उन्हें लेकर यह अफवाह गर्म रही थी कि वे पार्टी छोड़ने वाले हैं। पार्टी ने न उनकी मुख्यमंत्री बनाने की मंशा पूरी की थी और न कांग्रेस का प्रदेश अध्यक्ष बनाया था। इसके बाद उनके तेवर बागी हो गये थे। पर ज्योतिरादित्य सिंधिया का चेहरा नई टीम के लिहाज से बेहद मजबूत है।
इसलिए सोनिया गांधी ने उनकी बगावत को नजरअंदाज करके थिंक टैंक में शामिल कर उनके महत्व को बढ़ाने का फैसला लिया है जिससे अब उनकी नाराजगी दूर हो जायेगी। जबकि राहुल गांधी के गुरू कहे जाने वाले मध्य प्रदेश के राजा साहब यानि दिग्विजय सिंह को थिंक टैंक में नही घुसने दिया।
प्रियंका को थिंक टैंक से दूर रखने के पीछे की रणनीति
हरियाणा में जब अशोक तंवर ने पार्टी छोड़ने की घोषणा की थी उस समय उन्होनें कहा था कि राहुल गांधी के लोगों को उनके अध्यक्ष पद से हटने के बाद कांग्रेस में किनारे लगाया जा रहा है। क्या अशोक तंवर का कहना सही था। दूसरी ओर विचार समूह में प्रियंका बाड्रा गांधी को जगह नही दी गई है।
भाई-बहन में निजी स्तर पर चाहे जितना भी प्रेम हो लेकिन राजनीति के मामले में माना जाता है कि प्रियंका राहुल के लिए अपशकुन हैं जिनकी चर्चा राहुल के कद को बौना कर देती है।
फिर भी पुत्र प्रेम रहेगा सर्वोपरि
राहुल गांधी ने लोकसभा चुनाव में जब करारी हार का जिम्मा अपने ऊपर लेते हुए पार्टी के अध्यक्ष का पद छोड़ने का एलान किया था उस समय पूरी पार्टी इस हक में थी कि वे अपना फैसला वापस ले लें, लेकिन उन्होंने किसी मान-मनौव्वल को नही माना।
यहां तक कि अपनी मां सोनिया गांधी की भी नही सुनी। वे बराबर इस पर जोर देते रहे कि नया अध्यक्ष चुना जाये जिसमें सोनिया और प्रियंका सहित उनके परिवार के किसी नाम पर विचार न किया जाये, पर कांग्रेस ऐसा दुस्साहसिक आत्म विश्वास दिखाने को तैयार नही हुई और घूम-फिरकर बात सोनिया और प्रियंका के नाम पर ही टिक गई। पार्टी का एक बड़ा वर्ग चाहता था कि चूंकि सोनिया गांधी का स्वास्थ्य ठीक नही है इसलिए वे पहले की तरह पार्टी की सेवा नही कर पायेगीं।
बेहतर हो वे अध्यक्षी का ताज प्रियंका को सौंपे जो बेहद तेज-तर्रार भी हैं। पर सोनिया गांधी ने ऐसा नही किया और स्वयं अंतरिम अध्यक्ष की हैसियत से पार्टी की बागडोर अपने हाथ में ले ली। क्या इसलिए कि सोनिया अभी भी अपने बेटे की सफलता की उम्मीद भविष्य के लिए लगाये हैं और प्रियंका गांधी को ऊपर लाकर उसमें विराम नही लगने देना चाहतीं।
अगर ऐसा है तो राहुल के नजदीकियों को उनके द्वारा किनारे लगाने का सवाल ही नही उठता। हालात यह इशारा कर रहें हैं कि सोनिया गांधी राहुल के लिए ही पहले से अधिक निर्बाध रोड मैप तैयार करने का काम कर रहीं हैं लेकिन अपने तरीके से।
कांग्रेस के लिए उत्साहवर्धक चुनावी संदेश
इसी बीच हरियाणा और महाराष्ट्र विधान सभाओं के आम चुनाव और कुछ राज्यों में उप चुनावों के परिणाम सामने आये हैं जो बताते हैं कि कांग्रेस अभी पूरी तरह से मैदान से बाहर नही हुई है बल्कि भाजपा के मुख्य प्रतिद्वंदी दल के रूप में उसकी स्वीकार्यता बढ़ने वाली है। कोई भी सरकार एंटीइन्काम्बेंसी फैक्टर से अपने को मुक्त नही रख सकती।
अगर भड़ास निकालने का अवसर मुहैया होता रहेगा तो यह फैक्टर खतरे के निशान को पार नही कर पायेगा। असंतोष के दमन के प्रयास से खिलाफत अंदर ही अंदर प्रचंड रूप धारण करती जायेगी और सरकार के लिए मुश्किलें बढ़ने लगेगीं। ताजा चुनावों में कांग्रेस को फिर से संजीवनी मिलने की जो झलक मिली है उसे इसी रूप में देखा जाना चाहिए।
यह अच्छा है कि कांग्रेस ने इसके बावजूद मोदी की व्यक्तिगत आलोचना को बढ़ावा देने के रास्ते से हटकर सरकार की नीतियों पर हमला करने की रणनीति चुनने का फैसला किया है जो लोकतंत्र की स्वस्थ्य परंपराओं के अनुरूप सिद्ध होगा।