उत्कर्ष सिन्हा
राष्ट्रवाद के रथ पर सवार नरेंद्र मोदी की असली परीक्षा यूपी के मैदान में ही होनी हैं। यूपी फतह ही उनके दिल्ली के तख़्त को बरकरार रखने की कुंजी है ये सबको पता है। मगर 2014 के बाद से गंगा और जमुना में काफी पानी बह चुका है। तब एक दूसरे के खिलाफ खड़े अखिलेश और मायावती अब एक हैं और मृतप्राय पड़ी कांग्रेस में प्रियंका के आने के बाद हलचल तेज है।
यूपी की लड़ाई में पहले हिंदुत्व और अब राष्ट्रवाद भले ही भाजपा का मुख्य मुद्दा हो मगर वोटो की लड़ाई जब जमीन पर पहुँचती है तो जातियों में बांटने लगती है। 90 के दशक से तेज हुई मंडल की राजनीति ने जातीय वोट बैंक को कितना पुख्ता किया है इसका अंदाजा समाजवादी पार्टी और बसपा के उत्थान से ही लगाया जा सकता है। सिर्फ यूपी ही नहीं बल्कि बिहार से ले कर कर्नाटक तक जातियों की गणित चुनावी नतीजों का फैसला करती है।
भाजपा भी इस गणित को खूब समझती है , इसलिए बीते लोकसभा चुनावो में उसने जातियों का एक रेनबो कोएलिशन बनाया था जिसके साथ हिंदुत्व के जुड़ते ही चमत्कार हो गया। लेकिन इस बार ये रेनबो कोएलिशन फिलहाल तो विपक्ष के आँगन में चमक रहा है। लम्बे समय की दुश्मन सपा और बसपा इस बार एक साथ खड़ी है और यही गंठजोड़ मोदी के रथ के रास्ते में चुनौती है।
यूपी का जातीय संतुलन अगर बारीकी से देखा जाए तो दलित मुस्लिम यादव के एक साथ आते ही वोटो का पूरा संतुलन एक तरफा हो जाता है। मोटे तौर पर ये तीन गंठजोड़ पूरी आबादी का लगभग 50 प्रतिशत होता है। यूपी की 10 लोकसभा सीटों पर तो यह गंठजोड़ 60 प्रतिशत से ज्यादा है तो 37 सीटों पर यह 50 से 60 प्रतिशत के बीच दिखाई देता है। यही आंकड़े माया और अखिलेश के एक साथ आने की कुंजी भी हैं , और भाजपा के लिए सबसे बड़ा तिलस्म भी। बीते चुनावो में ये वोट बैंक इकठ्ठा नहीं था , साथ ही नरेंद्र मोदी अपने पूरे शबाब पर थे। नतीजा भाजपा की एकतरफा जीत के रूप में सामने आया।
2011 की जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि यूपी में 21 प्रतिशत दलित , 19 प्रतिशत मुस्लिम और करीब 9 प्रतिशत यादव की आबादी है । चुनावो का विश्लेषण करने वाली संस्था सी वोटर की रिपोर्ट कहती है कि 2014 की मोदी लहार में भी 62 सीटें ऐसी रही जहाँ सपा और बसपा को मिले कुल वोट भाजपा के वोटों से ज्यादा थे। शून्य पर सिमटने वाले बसपा को अकेले करीब 22 प्रतिशत से कुछ ज्यादा और 7 सीटें जीतने वाली समाजवादी पार्टी को करीब 20 प्रतिशत वोट मिले थे।
समाज शास्त्री प्रो शफीक अहमद का कहना है कि हालांकि बीते चुनावो में दलितों में गैर जाटव के साथ जाटव वोटो का भी एक हिस्सा भाजपा के साथ गया था और यादव वोटों में भी थोड़ी सेंध लगी थी लेकिन बीते 5 सालों में हालात काफी बदले हैं। दलित उत्पीड़न की लगातार हुई घटनाओं ने मोदी के उन प्रयासों की धार को कुंद कर दिया जिसके जरिये मोदी ने बाबा साहब भीम राव अम्बेडकर को आगे कर दलितों को अपने पाले में बनाये रखने की कोशिश की थी। दलित उत्पीड़न की इन घटनाओं में हिंदूवादी संगठनो का होना दलितों को एक बार फिर से भाजपा से दूर ले जाने वाला रहा।
समाजवादी छात्र सभा के राष्ट्रीय सचिव असित यादव का मानना है कि यूपी में योगी सरकार आने के बाद गोरक्षा के नाम पर खूब अत्याचार हुआ है। हिन्दुत्वादी संगठनो ने मुस्लिमो और दलितों को जम कर निशाना बनाया है , और यादवो को सरकार ने ही उपेक्षित कर दिया। खुद योगी के सजातीय दरोगा ज्यादातर थानों में बैठ गए और यादवों पर अत्याचार बढ़ गए हैं।
यह भी पढे : हाशिए पर दिग्गज, मुद्दों की जगह लफ़्जो की लड़ाई
हालांकि भाजपा के युवा नेता अश्वनी शाही इससे असहमत है। अश्वनी का कहना है – बीते चुनावो में भी लोगो ने जाति से हट कर वोट दिया था और मोदी जी की सबका साथ सबका विकास की नीति ने सबको सामान लाभ का हकदार बनाया है। इस बार तो मुस्लिम महिलाएं भी मोदी जी को खूब वोट देंगी क्योंकि मोदी सरकार ने उन्हें तीन तलाक की कुप्रथा से मुक्ति दिलाई है।
भाजपा के रेनबो कोएलिशन को तोड़ने में कांग्रेस भी खामोशी से जुटी हुई है। मध्य यूपी में महानता दल और पूर्वी यूपी में जन अधिकार पार्टी की राजनीतिक हैसियत अब तक भले ही नहीं दिखाई देती है लेकिन ये दोनों पार्टियां मौर्या – कुशवाहा समाज की नुमाइंदगी करती हैं। बीते चुनावो में ये जाति भाजपा की तरफ एकतरफ़ा वोट करती दिखाई दे रही थी।
दावे सबके अपने हैं मगर जमीनी हकीकत का फैसला वोटो की गिनती के बाद ही होगा। फिलहाल तो नरेंद्र मोदी के सामने इन 62 सीटों का तिलस्म तोड़ने की चुनौती है।