डॉ. उत्कर्ष सिन्हा
बीते 12 दिनों से किसान सड़कों पर हैं और हुकूमत उनको समझने की कोशिश में पसीने पसीने हुई जा रही है। कृषि अध्यादेश में महज एक लाइन का संशोधन मांगने वाले किसान अब अपनी मांगों की फेहरिस्त में कई और बाते जोड़ चुके हैं।
कई दौर की बैठकों के बाद भी सुलह की फिलहाल कोई गुंजाईश नहीं दिखाई दे रही है और अपने खिलाफ होने वाले हर आंदोलन की हवा निकालने वाले सरकार के पुराने तौर तरीके लगातार असफल होते दिखाई दे रहे हैं। पंजाब से शुरू हुआ किसानों का आंदोलन अब 10 राज्यों में फैल चुका है और किसानों के जत्थे अभी भी दिल्ली की ओर बढ़ते जा रहे हैं ।
आखिर ऐसा क्या हो गया है कि लगातार चुनाव जीतने वाली मोदी की भाजपा इस आंदोलन से निपट नहीं पा रही ? इसकी पड़ताल करना बहुत जरूरी है। आंदोलन की शुरुआत में भाजपा ने अपने पुराने अंदाज में इसे कांग्रेस की साजिश बताया। चूंकि पंजाब से ये आंदोलन शुरू हुआ और वहाँ कांग्रेस की सरकार है तो भाजपा के रणनीतिकारों को लगा कि ये दांव चल जाएगा, लेकिन भाजपा ये भूल गई कि इसी मुद्दे पर उसके सबसे पुराने सहयोगी शिरोमणि अकाली दल ने उसका साथ छोड़ दिया था। पंजाब में भाजपा की पहले से ही जमीन नहीं है और वहाँ के बाकी सारे राजनीतिक दल इस बिल के खिलाफ किसानों के साथ खड़े हैं।
7 दिसंबर को अपने बयान में भी केन्द्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने कहा कि इस बिल के प्रावधानों को तो कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में रखा था और कान्ट्रैक्ट फ़ार्मिंग पर भी मनमोहन सरकार ने पहल की थी। लेकिन रविशंकर प्रसाद ये भूल गए कि मनमोहन सरकार के उस प्रस्ताव के खिलाफ जब किसान खड़े हुए थे तब भाजपा ने किसानों का साथ दिया था। अब किसान नेता पूछ रहे हैं कि –क्या कांग्रेस के घोषणापत्र को लागू करने के लिए भाजपा ने सरकार बनाई है ?
देश में उठने वाले हर आंदोलन को आतंकवाद और राष्ट्रीय सुरक्षा से जोड़ने में अब तक कामयाब रही भाजपा की सोशल मीडिया टीम और कुछ चुनिंदा पत्रकारों ने इस आंदोलन से अलगाववादी खालिस्तान आंदोलन को जोड़ने की कोशिश भी की, ये दांव न सिर्फ उल्टा पड़ा बल्कि किसानों का गुस्सा और भी भड़क गया ।
दरअसल भाजपा ने बीते 6 सालों में एक मजबूत नरेटिव तैयार किया है जिसके केंद्र में कांग्रेस, वामपंथी, अर्बन नक्सल और आतंकवादी शब्द ही रहे। इनमें से किसी न किसी के जरिए उसने अपने विरोध के हर स्वर को कामयाबी से दबाया। लेकिन किसानों के मामले में इनमे से कोई भी नरेटिव नहीं चल पाया।
किसान नेताओं को इस बात का भी बखूबी अंदाज था कि यदि वे एक जगह किसी भी मैदान में गए तो घिरने का खतरा है, इसलिए उन्होंने 80 के दशक में चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत वाली रणनीति का इस्तेमाल किया। पंजाब, यूपी और हरियाणा के दिल्ली से लगाने वाले बार्डर पर वे जम गए।
इसके अलावा किसान आंदोलन के नेताओं ने इसके लिए एक समन्वय समिति तो बनाई मगर एक जगह कोई मंच नहीं बनाया, इस वजह से स्वयंभू चेहरों से भी खुद को बचाने में कामयाब रहे हैं।
अब सरकार के सामने दोहरी समस्या है, वो किसी राजनैतिक संगठन से तो बात करने में सिद्धहस्त है मगर एक गैर राजनैतिक आंदोलन से बात करने में उसे दिक्कत सामने आ रही है। राजनीतिक पार्टियों के नेताओं से इतर उसे किसानों के ज्यादातर उन नामालूम से चेहरों से बात करनी पड़ रही है जिन्हे दबाव में लेने के लिए सरकार के पास कोई आधार अब तक नहीं है।
अपने प्री टेस्टिड नरेटिव के असफल होने और एक ही मुद्दे पर टिके हुए गैरराजनीतिक किसानों के साथ कोई सौदा न हो पाने की मजबूरी ही सरकार की सबसे बड़ी समस्या है। किसानों के पास भरपूर समय भी है और संयम भी, सो वे इस बार आर पार की लड़ाई के लिए तैयार हैं, लेकिन सरकार पर उन कारपोरेट का दबाव साफ दिखाई दे रहा है जिनके फायदे के लिए ये बिल लाने का आरोप सरकार के ऊपर लगता रहा है।
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किसान आंदोलन का इतिहास ये बताता है जब जब किसानों ने लंबे संघर्ष के लिए खुद को तैयार किया है, हर बार वे अपनी मांगों को मनवाने में सफल रहे हैं। लेकिन इस बार सरकार के सामने संकट यह है कि यदि उसने यदि कोई भी समझौता किया तो नरेंद्र मोदी की मजबूत सरकार वाली छवि को बड़ा धक्का लगाना तय है।
फिलहाल सरकार ने भी अपने तेवर कड़े किए हुए हैं और किसानों ने भी । दोनों तरफ से कोई झुकने को तैयार नहीं।
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