डॉ. योगेश बंधु
अपने चुनावी भाषणो में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश भविष्य के और आर्थिक विकास के लिए मज़बूत सरकार का ज़िक्र ज़रूर करते थे। अब जबकि उन्हें पूर्ण बहुमत मिला गया है, तो ज़ाहिर है देश की जनता और अर्थजगत को उनसे बहुत उम्मीदें हैं। अगर उनके पिछले कार्यकाल को देखे तो तमाम कड़े फ़ैसलों के बाद, जिनमे नोटबंदी भी शामिल थी, अपेक्षित परिणाम हासिल नही किए जा सके। ऐसे में अगर ये चुनाव सरकार की आर्थिक उपलब्धियों पर लड़ा जाता तो शायद परिणाम कुछ और भी हो सकते थे।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब अपनी दूसरी पारी की शुरुआत करेंगे तो नई सरकार के सामने कई चुनौतियां होंगी। सबसे बड़ी चुनौती अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने की अहम जिम्मेदारी है, जिसमें उच्च विकास दर के साथ रोज़गार भी सृजन शामिल हैं। इसके अतिरिक्त नई सरकार के सामने राजकोषीय घाटे पर नियंत्रण, भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के अधिशेष को लेकर जालान समिति की सिफ़ारिशें और और बैंकों के बढ़ते एनपीए(गैर-निष्पादित परिसंपत्ति) का निपटान जैसी चुनौतियाँ भी प्रमुख हैं।
रोज़गार, बचत और निवेश में वृद्धि, देश की जनता के साथ नई सरकार के सामने सबसे बड़ा मुद्दा है। विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में हर साल 81 लाख रोजगारों की जरूरत है। लेकिन कुछ रिपोर्ट से यह साफ होता है कि नोटबंदी तथा जीएसटी के लागू होने के बाद रोज़गार में वृद्धि अपेक्षा से कम रही है ऐसे में बड़ी मात्रा में युवाओं और देशवासियों की आकांक्षाओं पर खरा उतरने के लिए सरकार को रोजगारों के सृजन के लिए काफी काम करना होगा।
इसी प्रकार, भारतीय अर्थव्यवस्था वर्तमान में सुस्ती के दौर से गुजर रही है। वित्त वर्ष 2018-19 की पहली तिमाही में जीडीपी विकास दर आठ फीसदी थी जो दूसरी तिमाही में घटकर सात फीसदी और तीसरी में 6.6 फीसदी पर आ गई। वित्त वर्ष 2018-19 की चौथी तिमाही में विकास दर 6.3 फीसदी रहने की उम्मीद की जा रही है, जोकि पिछली छह तिमाहियों में सबसे कम होगी। विशेषज्ञो के अनुसार वित्त वर्ष 2020 तक स्थिति ऐसे ही बनी रह सकती है।
राजकोषीय घाटा, जो सरकार के ख़र्चो और देनदारियो को बताता है, वित्त वर्ष 2018-19 में सरकार ने 3.4 फीसदी रखने का लक्ष्य रखा था जिसे बाद में संशोधित कर 3.3 फीसदी कर दिया गया। फरवरी के अंत में राजकोषीय घाटा बढ़कर 8,51,499 करोड़ रुपये हो गया जोकि बजटीय अनुमान को पार करने के साथ-साथ जीडीपी का 4.52 फीसदी हो गया।
भारत की अर्थव्यवस्था का मूल आधार बचत हैं और पिछले कुछ वर्षों में घरेलू बचत में लगातार गिरावट आई है। वर्ष 2011-12 में जीडीपी का 33.8 फीसदी बचत होती थी, जो 2017-18 में घटाकर 30.1 फीसदी पर पहुंच गई है और वास्तविक रूप से घरेलू क्षेत्र की बचत कम हो गई है। अगर हालात ऐसे ही बने रहे तो इससे निवेश, वृद्धि और आर्थिक स्थिरता को खतरा बढ़ जाएगा।
बचतों के कम होने का असर निवेश में कमी के रूप में भी देखें तो भी काफी कम ही रहा है। आर्थिक वृद्दि और रोजगार को बढ़ावा देने के लिए निवेश के माहौल में सुधार करना नई सरकार की एक प्रमुख चुनौती है, जिससे अर्थव्यवस्था में सुधार आ सके। भारत में निवेश पिछले कुछ साल से घटा है। साल 2011-12 में निवेश दर 34.3 फीसदी थी, जोकि साल 2017-18 में गिरकर 28.4 फीसदी पर आ गयी। उत्पादन और खनन जैसे रोजगार गहन क्षेत्रों में भी निवेश घट रहा है।
इन सबके आलवा भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के अधिशेष को लेकर जालान समिति की सिफ़ारिशें और और बैंकों के बढ़ते एनपीए (गैर-निष्पादित परिसंपत्ति) का निपटान जैसे नीतिगत मुद्दे भी हैं, जिनका अर्थव्यवस्था पर दीर्घक़ालीन असर पड़ेगा।
ऐसे में अगर इस बार मॉनसून कमजोर होता है तो ग्रामीण संकट और बदतर हो जाएगा। इस तरह कह सकते है कि आर्थिक मोर्चे पर आने वाला समय मोदी सरकार के चुनौतियों भरा होने वाला है। अब देखना ये होगा कि नई सरकार और नए वित्तमंत्री इन चुनौतियों से निपटने के लिए परंपरागत तरीक़ा ही अपनाते हैं या कुछ नए नीतिगत प्रयोग करते हैं।