सुरेंद दुबे
आज लोकसभा में नागरिकता संसोधन बिल पर जोरदार चर्चा चल रही है। चर्चा का मुख्य बिंदु है केवल हिंदू शरणार्थियों को देश में नागरिकता प्रदान किए जाने का प्रावधान होना। अगर पाकिस्तान, अफगानिस्तान व बांग्लादेश से कोई मुस्लिम शरणार्थी के रूप में देश में आएगा तो उसे भारत की नागरिकता नहीं प्रदान की जाएगी। बस इसी तो में सारा पेंच फंसा हुआ है।
हमारा संविधान कहता है कि देश में धर्म के आधार पर किसी के साथ भेदभाव नहीं किया जा सकता है। यानी कि चाहे हिंदू हो या मुसलमान उसे धर्म विशेष का होने के कारण नागरिकता देने से मना नहीं किया जा सकता। सरकार तर्क दे रही है कि हम पाकिस्तान, अफगानिस्तान व बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों पर हो रहे जुल्मों को ध्यान में रख कर नागरिकता कानून में संशोधन कर रहे हैं।
विपक्ष का कहना है कि भाजपा सरकार इस तरह से मुसलमानों को दोयम दर्जे का नागरिक बनाने के षड़यंत्र की शुरूआत कर रही है। पर सरकार कहती है कि यह कानून पड़ोसी देशों में रह रहे अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा करने के लिए बनाया गया है।
बिल निर्माता तथा विपक्ष दोनों ही राजनीति कर रहे हैं। न सरकार को अल्पसंख्यकों की हितों की चिंता है और न ही पड़ोसी देशों में रह रहे अल्पसंख्यकों को लेकर बहुत चिंतित हैं। दोनों की निगाहें वोट बैंक पर है। भाजपा पूरे देश में संदेश देना चाहती है कि वह हिंदुओं की संरक्षक है। इसलिए वह पड़ोसी देशों के मुसलमानों को भारत में शरणार्थी बनकर आने पर नागरिकता प्रदान नहीं करेगी। विपक्ष को भी मुसलमानों को संदेश देना है कि वह उसके साथ हैं।
कायदे से शरणार्थियों को भारत की नागरिकता प्रदान करने में हिंदू या मुस्लिम के आधार पर भेदभाव नहीं करना चाहिए। पर सरकार का अपना एजेंडा है। लोकसभा में प्रचंड बहुमत है और राज्यसभा में वह बहुमत का जुगाड़ कर लेगी। आखिर सीबीआई और ईडी किस दिन काम आएंगे।
तमाम दलों के नेता भ्रष्टाचारों के आरोपों से घिरें हैं। ऐसे ही लोगों के बल पर राज्यसभा में सरकार लगातार बहुमत का जुगाड़ कर रही है। इस बार वह ऐसा क्यों नहीं करेगी। जब पॉलिटिकल एजेंडा सामने हो और उसे लागू कराने का जुनून हो तो फिर राजनैतिक दल नैतिकता को तिलांजलि देकर अपनी जिद पूरी ही कर लेते हैं।
एक बात समझ से परे है कि अगर पड़ोसी देशों के शिया, अहमदिया व बोहरा मुस्लिम किन्हीं कारणों से शरणार्थी बनकर भारत आते हैं तो उन्हें नागरिकता क्यों नहीं दी जानी चाहिए। आखिर ये मुस्लिम समुदाय अल्पसंख्यक ही तो हैं। तो अब क्या केवल हिंदू अल्पसंख्यकों को ही अल्पसंख्यक माना जाएगा। मुस्लिम अल्पसंख्यक अल्पसंख्यकों की परिभाषा से अलग हो जाएंगे।
जाहिर है कि खुलेआम हिंदुओं को संदेश देने की कोशिश की जा रही है। अगले वर्ष देश में कई राज्यों में चुनाव होने हैं, जिसमें फिर भाजपा सांप्रदायिक कार्ड खेलने की कोशिश करेगी। हर बार राष्ट्रवाद के बल पर बहुमत नहीं प्राप्त किया जा सकता है। यह बात हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनाओं से स्पष्ट हो चुकी है। पर सांप्रदायिकता की हांडी फिर चढ़ सकती है। यह एक ऐसी हांडी है जो काठ की बनी नहीं है इसलिए हर बार चढ़ सकती है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, लेख उनके निजी विचार हैं)
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