सुरेंद्र दुबे
कोरोना महामारी और उसके बाद लगाए गए लॉकडाउन के कारण हमारी अर्थव्यवस्था चरमरा कर ढह गई है। सेंटर फॉर मॉनिटारिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) के अनुसार लगभग 12 करोड़ लोग बेरोजगार हो गए हैं।
इसके अलावा कई करोड़ लोग आंशिक रूप से बेरोजगार हुए हैं या फिर उन्हें दूसरी नौकरी तलाशने को कह दिया गया है। केंद्र सरकार ने अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए 20 लाख करोड़ रुपए से अधिक का राहत पैकेज दिए जाने का जमकर ढ़िंढोरा पीटा है।
पर वास्विकता ये है कि सरकार सबसे कह रही है कि बैंकों से लोन लीजिए, हमारा टैक्स दीजिए और इसके बावजूद अगर आपके पास कुछ बच जाए तो उससे दो वक्त की रोटी का जुगाड़ कर हमारी शान में ताली और थाली बजाइए।
पूरी सरकार एक साहूकार के रूप से काम कर रही है। जो लगातार आपको कर्ज के मायाजाल में फंसाने का कुचक्र रच रही है और इस बात की वाहवाही भी लूटना चाहती है कि सरकार गरीबों के प्रति बहुत संवेदनशील है और उसने गरीबों के मदद के लिए अपना खजाना खोल दिया है।
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हमें फिल्म मदर इंडिया के उस सुक्खीलाल की याद आ रही है जो किसानों के बदहाली के दिनों में शुद पर खर्ज देकर इस बात का षड्यंत्र रचता रहता था कि कैसे इनकी जमीन व बैल आदि हड़प लिए जाएं, क्योंकि उसे मालुम था कि किसान अंतत: न मूलधन दे पाएगा और न ही ब्याज। अंधा कानून अंतत: साहूकार सुक्खीलाल के पक्ष में डिग्री दे देगा और किसान दर-दर की ठोकरे खाता घूमेगा।
पुराने जमाने में भी बड़े लोगों का कर्ज साहूकार बट्टे खाते में डाल देते थे और आज भी वही पंरपरा चली आ रही है। बड़े लोगों का कर्ज पहले एनपीए होता है और बाद में बट्टे खाते में डाल दिया जाता है। लगभी 10-12 लाख करोड़ की राशि अब तक एनपीए हो चुकी है। बैंक चलते रहे इसलिए सरकार इन्हें पूंजी मुहैया कराती रहती है। बैंक भी खुश और उद्योगपति भी। सिर्फ गरीब आदमी के सर पर वसूली की तलवार लटकती रहती है।
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सरकार ने बड़े जोर शोर से घोषणा की कि बैंक कर्ज के बकाए दारों जून माह के अंत तक अपनी किश्ते जमा करने की छूट दे दी गई हैं। तमाम कर्जदार इस गलत फहमी में रहे कि उन्हें मूलधन पर पड़ने वाले ब्याज का भुगतान नहीं करना पड़ेगा। अब लगभग दो महीने बाद साफ-साफ बताया जा रहा है कि मासिक किस्त के साथ ही उन्हें ब्याज का भी भुगतान करना होगा। कर्ज लेने वालों के पैर से जमीन खिसक गई है। वैसे भी एक सामन्य व्यवस्था है कि अगर किश्तों का भूगतान समय से नहीं किया जाता है तो बैंक उनसे दंड ब्याज कर्ज वसूलते हैं। तो फिर सरकार ने कौन सा तीर मार लिया।
साहूकारी का असली नमूना आज सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान हुआ, जिसे गजेंद्र शर्मा नाम के एक व्यक्ति ने सुप्रीम कोर्ट में मामला दायर किया था और छह माह तक किस्त न अदा करने वालों को किस्तों की अदायगी व दंड ब्याज से भी राहत देने की मांग की गई थी। रिजर्व बैंक जो इस देश का सबसे बड़ा साहूकार है, उसने कह दिया कि अगर उसने यह मांग स्वीकार कर ली तो बैंक को दो लाख करोड़ से अधिक का घाटा सहना पड़ेगा। करोड़ों लोग भुखमरी के कगार पर हैं और रिजर्व बैंक सुक्खीलाला की तरह कर्ज वसूलने पर अमादा है।
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सुप्रीम कोर्ट ने ये जरूर जानना चाहा कि बकायेदारों को दंड ब्याज में राहत देने पर विचार क्यों नहीं किया जा रहा है। पर आज उसने इस संबंध में कोई आदेश पारित नहीं किया और 12 जून तक सरकार को अपना पक्ष रखने का मौका दे दिया। सुप्रीम कोर्ट का इन दिनों जो रवैया हो गया है उसमें कर्ज में डूबे लोगों को कोई खास राहत मिलने की उम्मीद नजर नहीं आ रही है।
केंद्र और राज्य सरकारें लगातार हाउस टैक्स, वाटर टैक्स व बिजली बिल सहित सभी वसूलियां कर रही हैं। इन्हें लगता है कि जैसे इस देश में कुछ हुआ ही नहीं। कहीं न कहीं से लोग पैसा लाएंगे और सरकार का पेट भरते रहेंगे। आखिर सरकार कब तक भूखी रहेगी। जनता को तो पहले भी भूखा रहने की आदत थी। इसी तरह एलआईसी व विभिन्न बीमा कंपनियां अदयगी के लिए जनता पर मानसिक दबाव बनाए हुए है। लोग अपना पेट भरने से ज्यादा इन कंपनियों का पेट भरने के लिए चिंतित हैं।
सरकार किस तरह लघु व मझौले उद्योगों को राहत देने का नाटक कर रही है। इसकी एक बानगी काफी है। सरकार ने एमएसएमई को तीन लाख करोड़ रुपए का कर्ज पैकेज घोषित किया था। जिसमें से तीस हजार करोड़ रुपए पहली किस्त में बतौर कर्ज बांटे जाने थे। पर सरकार ने अब केवल तीन हजार करोड़ रुपए पहली किस्त के रूप में बांटे जाने की व्यवस्था की है। इन सब लघु और मध्यम इकाइयों पर पहले से करोड़ों रुपए का कर्ज है। प्रवासी श्रमिक भुख से बेहाल होकर लगातार अपने घरों की ओर भागे जा रहे हैं।
तो सवाल उठता है कि पुन: शुरू होने वाली औद्योगिक इकाइयां मजदूर कहां से लाएंगी। जब मजदूर नहीं मिलेंगे तो फैक्ट्रीयां कैसे चलेंगी। जब फैक्ट्रीयां नहीं चलेंगी तो लोगों को रोजगार कैसे मिलेगा। उत्पादन नहीं होगा तो उत्पाद खरीदेगा कौन और जब लोगों के जेब में पैसे ही नहीं है तो उत्पाद बिकेंगे क्यों। सब कुछ अंधकार में है। जनता उम्मीद कर रही है कि सरकार उनपर रहम खा कर कुछ बुनियादी सहुलियतें देगी पर सरकार लगातार साहूकारी के मूड में दिख रही है। इसीलिए वह जनता को कुछ देने के बजाए उनसे साहूकारों की भाषा में बात कर रही है। ऐसा लगाता ही नहीं है कि हम लोक कल्याण कारी राज में रह रहें हैं जहां सरकार को हर हाल में जनता की आवाज सुननी ही पड़ती है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)