उत्कर्ष सिन्हा
कुछ वक्त पहले जब भारत की अर्थव्ययवस्था के 5 ट्रिलियन होने का लक्ष्य घोषित किया गया था, तब ये खबर हफ्तों मीडिया की सुर्खियों में रही थी। सरकार के नुमाईनदे और समर्थक इस खबर को लगातार चर्चा में बनाए हुए थे। लेकिन अब जब आर्थिक मोर्चे से बुरी खबर आई है तब एक अजीब सी खामोशी छाई हुई है।
शुक्रवार को घोषित हुए साल 2019-20 के जीडीपी के 4.2 रह जाने की खबर आई तो जरूर मगर उसपर मुख्यधारा की मीडिया ने अब तक कोई बड़ी बहस नहीं शुरू की।
जीडीपी के 4.2 पर रह जाने का अनुमान विशेषज्ञों को भी शायद नहीं था क्योंकि इन आकड़ों की घोषणा के कुछ वक्त पहले तक इसे 5 फीसदी पर रहने का अनुमान जताया जा रहा था।
लेकिन ताजा आंकड़ा ये बताता है कि बीते चार सालों में हमारा सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी करीब आधा हो गया है। फिलहाल इसे कोरोना संकट से जोड़ कर देखने की जरूरत इसलिए नहीं है क्योंकि ये आकडे उस समय तक के हैं जब लाकडाउन नहीं शुरू हुआ था।
2015 में जब नरेंद्र मोदी अपने पहले कार्यकाल का एक साल पूरा कर रहे थे तब भारत की जीडीपी 8.2 प्रतिशत की रफ्तार से बढ़ रही थी। अगले साल ही इसमे गिरावट देखी गई और 2016-17 में यह 7.2 पर या गई। 2017-18 में ग्रोथ और नीचे जा पहुंची जब यह प्रतिशत 6.7 हुआ और 2018-19 में और नीचे जा कर यह 6.1 प्रतिशत पर पहुँच गया। 201-19 में इसने सबसे बड़ा गोता लगाया और अब 4.2 प्रतिशत पर पहुँच चुकी है।
यानि सरकार के विकास के दावे धुंधले पड़ चुके हैं और 5 ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था का सपना और दूर चला गया है।
अब अगर हर तीन महीनों पर विकास की दर को बताने वाले आंकड़ों को देखा जाए तो यहाँ भी चिंताजनक स्थिति दिखाई दे रही है । भारत की जीडीपी की बीते 9 तिमाही से लगातार नीचे की ओर जा रही है। बीते तिमाही आंकड़ों के अनुसार यह दर 3.1 पर है।
वरिष्ठ अर्थशास्त्री मनीष हिंदवी कहते हैं – अर्थव्यवस्था पिछले कई तिमाही से लगातार गिर रही है। लगभग दो साल से स्पष्ट स्लोडाउन दिख रहा था, मगर सरकर मानने को तैयार नहीं थी। 2014 मे भाजपा सरकार ने आने के बाद अचानक से बिना मूलभूत परिवर्तन के अर्थव्यवस्था के ढांचे को बदलने का काम शुरू कर दिया, नतीजा एक बहुत बड़ा हिस्सा बंद हो गया। दो बड़ी भूल नोटबंदी और GST का ख़राब इम्प्लीमेंटशन था, जिसने भारत की अर्थव्यवस्था को पटरी से उतार दिया।
मनीष हिंदवी इस समस्या के कारणों को और विस्तार देते हुए बताते हैं कि बैको की ख़राब हालत भी एक बड़ा कारण है। इस सरकार के साथ सबसे बड़ी परेशानी है की ये मूल समस्या को समझते नहीं या मानते नहीं और फिर जो उपाय करते हैं वो समस्या कम करने के बजाय बढ़ा देता है। इसका ताज़ातरीन उदाहरण रिलीफ़ पैकेज का है, जिसमें सरकार ने मूल समस्या को हल करने की बजाय सस्ती लोकप्रियता को ज़्यादा तवज्जो दी।
आर्थिक नीतियों के ज्यादातर जानकारों का भी यही मानना है कि नरेंद्र मोदी की सरकार के समयकाल में नीति आयोग से ले कर रिजर्व बैंक तक से अच्छे अर्थशास्त्री बाहर निकल गए हैं। राघुराम राजन से शुरू हुआ ये सिलसिला इतना तेज हुआ कि पहली बार रिजर्व बैंक की कमान भी एक नौकरशाह के हाँथ में है।
टिप्पणीकार गिरीश मालवीय ने लिखा है- लगातार हर तिमाही के आँकड़े आते गए और हर बार सरकार बेशर्म बन कर कहती रही कि अगली तिमाही में सुधार हो जाएगा हर बार यह कहा गया कि अब इससे ज्यादा गिरावट नहीं हो सकती। लिहाजा अगली तिमाही में सुधार की उम्मीद है। जब भी वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण से इस बारे में पूछा गया, वह यही बताती रही अर्थव्यवस्था की रफ्तार धीमी है, लेकिन यह मंदी नहीं है।
गिरीश मालवीय कहते हैं कि कोरोना काल मे जब केंद्र सरकार से राज्य अतिरिक्त मदद की उम्मीद कर रहे हैं तब उन्हें GST के उनके बकाया के लिए भी टाला जा रहा है, जीएसटी लागू होने के बाद से राज्यों की हालत यह है कि वह जीएसटी क्षतिपूर्ति की राशि के रिलीज किये जाने की गुहार कर रहे हैं लेकिन कोई सुनवाई नही है।
मालवीय इस गड़बड़ी के लिए मोदी सरकार की नीतियों को जिम्मेदार बताते है । उनका कहना है – साल 2008-09 में वैश्विक मंदी आयी थी. भारत उस समय भी मंदी का शिकार नहीं हुआ था. लेकिन हम आज जानते हैं कि आज जो मंदी मोदी सरकार अपने गलत आर्थिक निर्णयों के कारण लाई है उसके कारण कोरोना काल मे विश्व में सबसे अधिक नुकसान किसी अर्थव्यवस्था में दर्ज किया जाएगा तो वह भारत ही है, 4.2 से सीधे निगेटिव में जाने वाली है देश की ग्रोथ, यह विश्व की बड़ी बड़ी रेटिंग एजेंसियों का कथन है
नरेंद्र मोदी की ब्रांडिंग विकास के मुद्दे पर हुई थी, लेकिन विकास के मुद्दे पर अब सिर्फ बातें होती है जमीन पर नतीजे नहीं दिखाई दे रहे हैं।
आज जब मोदी 2.0 अपना पहला सालगिरह मना रहा है, तब इस बात की फिक्र तेज हो गई है कि क्या भारत आर्थिक मंदी के कुचक्र में फंस गया है ?