उत्कर्ष सिन्हा
2014 में पहली बार भारत के प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी की चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की 18 मुलाकाते हो चुकी हैं। जिनकी कई तस्वीरें सोशल मीडिया में एक बार फिर तैरने लगी हैं।
हर फ़ोटो को देखते ही इस बात का अंदाजा होता है कि नरेंद्र मोदी और जिनपिंग की केमेस्ट्री बहुत ही शानदार रही है और दोनों नेता एक दूसरे के साथ काफी आत्मीय भी दिखाई दिए।
मगर कूटनीति की शतरंज पर तस्वीरें काम नहीं करती, वहाँ राष्ट्रीय हित बड़े होते हैं। बीते 6 साल में इस केमेस्ट्री से हमने अपने राष्ट्रीय हितों में क्या हासिल किया इस बात की चर्चा फिलहाल तेज हो गई है।
बीते तीन दिनों से भारत की जनता चीन के खिलाफ आक्रोशित है, गवलान में चीनी सेना ने जिस तरह से भारतीय सैनिकों पर हमला किया उसके बाद यह प्रतिक्रिया बहुत ही स्वाभाविक है और अब देश में चीन के बहिष्कार की मांग जोर पकड़ने लगी है।
लेकिन अचानक ऐसा हुआ क्यों ? इस बाद से ज्यादातर लोगों को आश्चर्य है कि जिस जिनपिंग के साथ नरेंद्र मोदी ने झूला झूला और मालापुरम में उनके साथ बेहद आत्मीय दिखे उस जिनपिंग की सेना के साथ झड़प क्यों हो गई?
पिछले साल अक्टूबर के महीने में जब चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग का स्वागत मल्लापुरम में किया गया था तब दोनों देशों के बीच सामरिक और व्यापार के मुद्दों को लेकर भी चर्चा हुई थी और चीन के राष्ट्रपति ने कहा था, “ड्रैगन और हाथी को आपस में मिलकर ही नृत्य करना चाहिए। यही दोनों देशों के लिए सही विकल्प है।”
हालांकि अपने हर मुलाकात के बाद जिनपिंग ये जरूर कहते थे कि आपसी मतभेदों को भी ‘सही तरीक़े’ से निपटाया जाना चाहिए, लेकिन अफसोस इस बात का है कि बीते 6 सालों में होने वाली 18 मुलाकातों में किसी ने भी “मतभेद के मुद्दे” पर चर्चा ही नहीं की।
जब “मतभेद के मुद्दे” पर चर्चा नहीं हुई तो फिर इसे सुलझाने के “सही तरीके” पर बात भी नहीं होनी थी ।
साल 2014 के आम चुनावों के वक्त अपनी चुनावी रैलियों में भाजपा ने चीन के घुसपैठ का खूब जिक्र किया था, नरेंद्र मोदी की जिनपिंग से पहली मुलाकात प्रधानमंत्री पद सम्हालने के तुरंत बाद ब्राजील में हुए ब्रिक्स सम्मेलन में हुई इसके कुछ महीनों पहले ही भारत और चीन पूर्वी लद्दाख के देपसांग तराई में आमने सामने आ गये थे।
मोदी और जिनपिंग की इस मुलाकात की गर्मी अभी कम नहीं हुई थी कि 2014 के सितंबर महीने में ही चीनी सैनिकों ने ‘एलएसी’ के चुमार सेक्टर में घुसपैठ कर दी। इसी महीने जिनपिंग भारत भी आए और प्रधानमंत्री ने परंपरा तोड़ कर उनका स्वागत दिल्ली में न कर अहमदाबाद में किया।
इस मुलाकात के केंद्र में व्यापार रहा और चीन ने आने वाले 5 सालों में 20 खरब डालर्स के निवेश का वादा किया। इसके साथ ही 12 समझौते किए गए । ये अलग सवाल है कि 5 साल बीत जाने के बाद भी न तो 20 खराब का निवेश हुआ और उन 12 समझौतों की प्रगति के बारे में भी कोई खुल कर कुछ नहीं बोलने वाला।
इसके बाद राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित दोभाल के प्रयासों के बाद 2015 में चीन ने नरेंद्र मोदी को निमंत्रण दिया और तब जिनपिंग ने प्रधानमंत्री का स्वागत अपने शहर जियान में किया।
इस दौरे पर दोनों नेताओं के हाँथ में हाँथ डालकर घूमने की तस्वीरें खूब वायरल हुई, इस मुलाकात के 2 महीने बाद ही दोनों नेता रूस में मिले लेकिन उसी वक्त 26/11 हमलों के अभियुक्त ज़की उर रहमान लखवी की पकिस्तान में रिहाई के यूएन के प्रस्ताव पर चीन ने वीटो लगा दिया।
जून 2016 में मोदी और जिनपिंग जब ताशकंद में मिले तो ‘न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप’ में भारत की सदस्यता के बारे में बात हुई जिसका चीन हमेशा ही विरोध करता रहा है। 3 महीने बाद ही दोनों नेता फिर मिले और इस मुलाकात में भारत ने इस बात पर अपनी चिंता जताई कि ‘चीन-पकिस्तान-इकनोमिक-कॉरिडोर’ पीओके से क्यों ले जाया जा रहा है ?
2016 में ही तीसरी मुलाकात गोवा में हुई और तब भी व्यापार का मुद्दा बड़ा रहा और रक्षा संबंधी मुद्दों पर कम बात हुई ।
2017 में जब भारत ने चीन के ‘वन बेल्ट वन रोड’ बैठक में शामिल होने से मना कर दिया उसी वक्त जून महीने में चीन डोकलाम में सड़क बनने की कोशिश करने लगा और तब 73 दिनों तक दोनों फ़ौजे आमने सामने रही।
इस बीच भारत को चीन ने ‘शंघाई कोऑपरेशन आर्गेनाईज़ेशन’ का सदस्य बना लिया और दोनों नेता फिर मिले। 2017 में ही जर्मनी में जब एक बार फिर मोदी और जिनपिंग की मुलाकात हुई तो इसे अनौपचारिक मुलाकात बताते हुए किसी भी बातचीत का ब्योरा सार्वजनिक नहीं किया गया।
इतनी मुलाकातों के बाद 2017 में भारत को पहली बार एक बड़ी सफलता मिली जब आतंकी संगठनों जैश ए मोहम्मद, लश्कर-ए-तैय्यबा और हक्क़ानी गुट को अंतरराष्ट्रीय ‘आतंकवादी संगठनों’ की सूची में शमिल करने की भारत की माँग का चीन ने कोई विरोध नहीं किया।
2018 में दोनों शीर्ष नेता चीन में मिले और इस मुलाकात में सामरिक मुद्दों पर भी बात हुई।
लेकिन 18 मुलाकातों और 5 बार नरेंद्र मोदी के चीन जाने के बाद भी दोनों देशों के “मतभेद के मुद्दे” पर कोई सार्थक पहल होती नहीं दिखाई दी है।
वरिष्ठ पत्रकार दिनेश पाठक अपने ब्लाग में लिखते हैं कि कुछ आंकड़ों के जरिये अपनी भूमिका तलाशते हैं। इस वर्ष जनवरी में हमने चीन से 429.55 बिलियन (अरब) रूपये का सामान आयात किया है। यही आंकड़ा फरवरी में 317.64 बिलियन (अरब) रूपये रहा। ट्रेडिंग इकोनामिक्स डॉट कॉम के मुताबिक अब तक सबसे ज्यादा आयात सितम्बर 2018 में हुआ, जब हमने 467.49 बिलियन (अरब) रूपये चीन को दिये। मार्च से अब तक का डाटा उपलब्ध नहीं है लेकिन इसे जानने में कोई दिक्कत भी नहीं है क्योंकि देश में लॉक डाउन के पहले ही चीन से अंतर्राष्ट्रीय उड़ाने रद्द हो गई थीं। पोर्ट बंद कर दिए गए थे।
निवेश के सारे आंकड़ों को जोड़ के भी देखा जाए तो चीन ने अपने 20 खरब डालर्स के निवेश के वादे तो किए मगर अब तक निवेश कुल 1 खरब डालर्स का ही हुया है ।
अब जब चीन ने लद्दाख की सीमा पर भी हस्तक्षेप करना शुरू कर दिया है तो इस बात पर विचार जरूर करना चाहिए कि क्या जिनपिंग को ज्यादा तवज्जो दे कर हमने बड़ी कूटनीतिक गलती कर दी ? क्योंकि न तो हमे वादे के मुताबिक निवेश ही मिला और न ही हमारा आयात निर्यात का संतुलन ही हमारे पक्ष में आया ।
हमने व्यापार के लिए चीन की तरफ पींग तो खूब बढ़ाई मगर चीन ने उसे अपने पक्ष में कर लिया। और इसी दौरान हमारे स्थायी दुश्मन पाकिस्तान की सेना की भी खूब मदद चीन ने की।
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अब सही समय है कि चीन को ले कर भारत अपने कूटनीतिक रिश्तों को एक बार फिर से समीक्षा करें और यह भी तय करे कि महज व्यापार के लिए वो हमेशा से ही संदिग्ध रहे चीन के सामने अपने तेवर कड़े रखे।
आखिर देश की सुरक्षा हमेशा ही व्यापार के ऊपर ही रखी जानी चाहिए ।