Monday - 28 October 2024 - 2:29 PM

क्या मजबूत छवि वाले कमजोर प्रधानमंत्री है मोदी ?

उत्कर्ष सिन्हा

अमेरिका में होने वाले “हाउडी मोदी” शो की सारी टिकटें एडवांस में बुक हो चुकी हैं , इससे पहले भी न्यूयार्क के मेडिसन स्कवेयर पर नरेंद्र मोदी एक शानदार शो कर चुके हैं ।

आबू धाबी के हालिया दौरे पर नरेंद्र मोदी को वहाँ का नागरिक सम्मान “आर्डर आफ जायद” मिला , इसके पहले उन्हे कोरिया में भी एक ऐसा ही सम्मान मिल चुका है । दुनिया भर के राष्ट्राध्यक्षो के साथ नरेंद्र मोदी की हंसी ठिठोली करते हुए तस्वीरे अक्सर वायरल हो जाती हैं।

नोटबंदी,जीएसटी,तीन तलाक और कश्मीर के मसलों पर एक सख्त जिद्दी स्टैन्ड ले कर फैसले कर देने में नरेंद्र मोदी कभी भी हिचकिचाहट में नहीं दिखाई दिए। ऐसी कई घटनाओं ने नरेंद्र मोदी की एक मजबूत छवि गढ़ी है, एक ऐसे राजनेता की छवि , जिसके लिए देश और विदेश में एक जूनून सा दिखाई देता है ।

उनकी इस छवि को लगातार निखार भी मिलता रहा है वो चाहे करीब करीब मोदीमय हो चुके भारतीय टीवी मीडीया के जरिए–जहां अब मोदी की नीतियों पर आलोचनात्मक खबरे करीब करीब शून्य हो चुकी है-या फिर सोशल मीडिया प्लेटफ़ार्मस–जहां मोदी समर्थको का एक बड़ा आक्रामक समूह बन चुका है, जो किसी भी आलोचना का मुकाबला किसी भी स्तर तक जा कर करता है ।

कुल मिल कर एक नरेंद्र मोदी एक ऐसे प्रधानमंत्री के रूप में उभरते दिखाई देते हैं जिनकी लोकप्रियता का ग्राफ उनके सभी पूर्ववर्ती प्रधान मंत्रियों से काफी आगे दिखाई दे रहा है।

लेकिन इस खुशनुमा छवि के पीछे ऐसी कई असफलताएं भी हैं जो फिलहाल छवि की चमक में भले ही छुपी हैं, मगर टीवी और सोशल मीडिया के इंद्रजाल से निकलते ही साफ दिखाई देने लगती हैं।

भारत के प्रधानमंत्री पद की दो बार शपथ ले चुके नरेंद्र मोदी ने समय समय पर कई घोषणाएं की जिन्होंने उनके पहले कार्यकाल के “सबका साथ, सबका विकास” के नारे(जो दूसरे कार्यकाल में “सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास” में तब्दील हो गया) पर भरोसा जताने वाली थी । लेकिन वक्त के तराजू पर ये नारा बहुत हल्का साबित हुआ ।

पूरी दुनिया में भारत की चर्चा फिलहाल दो बिंदुओं पर हो रही है । पहला कश्मीर के मसले पर भारतीय कूटनीति से अलग थलग पड़ा पाकिस्तान , और दूसरा भारत की लगातार लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था । पहला मामला छवि को और मजबूत बनाता है मगर दूसरा मामला सरकारी नीतियों की असफलता को उजागर कर देता है।

कमजोर पड़ती अर्थव्यवस्था

डालर के मुकाबले लगातार गिरते रुपए की कीमत ने भारतीय निर्यात को एक अंधेरे कुएँ में धकेल दिया है । कुछ ही दिन पहले प्रधानमंत्री ने 5 ट्रिलियन इकॉनमी का लक्ष्य घोषित किया मगर इस घोषणा के महज एक हफ्ते के भीतर ही भारत दुनिया की मजबूत अर्थव्यवस्थाओं वाले देशों की रैंक में पाँचवे से सातवे स्थान पर लुढ़क गया।

भारत की मौद्रिक नीति तय करने वाले रिजर्व बैंक की बेचैनी का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि बीते कुछ महीनों में इसके गवर्नर सहित कई बड़े अर्थशास्त्री इस्तीफा दे चुके हैं और फिलहाल रिजर्व बैंक की कमान एक नौकरशाह ने सम्हाल रखी है ।

रिजर्व बैंक के वर्तमान गवर्नर शक्तिकान्त दास भी अब अर्थव्यवस्था को ले कर अपनी चिंताएं  जाहिर करने लगे हैं और नीति आयोग के मुखिया राजीव कुमार ने भी यही बात जरा साफ ढंग से कह दी है ।

देश के तमाम अद्योगिक घराने तो अपने उत्पादन की इकाईयों में काम भी रोक चुके है और इनमे टाटा और मारुति जैसी दिग्गज कंपनियां भी शामिल हैं ।

बढ़ती बेरोजगारी

नरेंद्र मोदी के नोटबंदी के फैसले ने भारत की अर्थव्यवस्था में बड़ा हिस्सा रखने वाले अनियोजित क्षेत्र की रीढ़ तोड़ दी थी। नतीजा ये हुआ कि ऐसे उद्योगों में काम करने वाले लाखों लोग एक झटके में अपना रोजगार खो बैठे। ये सिलसिला अब बड़े कारपोरेट समूहों तक पहुँच गया है । पारले जैसी कंपनियां अपने कर्मचारियों की बड़े पैमाने पर छटनी कर रही हैं और बीएसएनएल के करीब 50 हजार कर्मचारियों को कई महीनों से तनख्वाह भी नहीं मिली।

इंटरनेशनल लेबर ऑर्गेनाइजेशन (ILO)के अनुमान के मुताबिक भारत में 2018 की बेरोजगारी दर 3.5 प्रतिशत थी। भारत के लिए यह चिंता का विषय है। देश में 77% रोजगार असुरक्षित बने रहेंगे। ऐसी ही एक रिपोर्ट के मुताबिक देश में बेरोजगारी दर 20 वर्षों में सबसे अधिक हो गई है।

असफल होती योजनाएं

नोटबंदी से पैदा हुई बेरोजगारी से निपटने के लिए मोदी ने कई योजनाओं की घोषणा की । कहा गया कि खुद नौकरी करने के बजाए आप उद्यमी बन कर दूसरों के लिए रोजगार पैदा करें । इसके लिए मेक इन इंडिया, स्किल इंडिया, डिजिटल इंडिया, स्टार्टअप इंडिया, स्टैंड अप इंडिया जैसी कई योजनाएं सरकार ले कर आई , सरका इन योजनाओं को लगातार सफल बता रही है लेकिन बैंकों के आँकड़े बताते हैं कि ये सभी योजनाएं वास्तव में असफल साबित हो रही हैं ।

सरकार की और भी कई योजनाएं परवान नहीं चढ़ सकी , स्मार्ट सिटी भी एक ऐसी ही घोषणा थी । घर घर बिजली पहुँचने की सौभाग्य योजना में झूठे आँकड़े भरे गए, ग्रामीण महिलाओं के लिए उज्वला योजना के सिलेंडर महंगे होने की वजह से इस्तेमाल नहीं हो पा रहे ।

असुरक्षा की बढ़ती भावना

चाहे वह गोरक्षा के नाम पर चढ़े जूनून की वजह से हत्याओं और हमलों का सिलसिला हो या फिर पर्सनल लॉ में हस्तक्षेप की आशंका , बीते छः सालों में भारत के अल्पसंख्यकों में एक घबराहट और बेचैनी बढ़ी दिखाई दे रही है । हालांकि नरेंद्र मोदी ऐसी घटनाओं की सार्वजनिक मंचों से आलोचना करते रहे हैं मगर इस आलोचना का खोखलापन तब दिख जाता है जब उनके ही मंत्री माब लिंचिंग  के आरोपियों का समर्थन करने में जुटे होते हैं ।

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बुद्धिजीवी शब्द फिलहाल भारत में हिकारत के लिहाज से प्रयोग किया जा रहा है और आलोचकों को राष्ट्रद्रोही कहने का चलन आम हो चुका है । सोशल मीडिया पर तो सरकार की नीतियों की आलोचना करने वालों के परिजनों तक को अपमानित करने का रिवाज हो गया है ।

सूचनाओं में पारदर्शिता का अभाव

चाहे वो बेरोजगारी और अर्थ व्यवस्था के आँकड़े हों या फिर कश्मीर के ताजा हालात, सरकार लगातार ऐसी घोषणाएं कर रही है जिस पर सवालिया निशान लग जा रहे हैं । सरकार न तो अर्थव्यवस्था पर किसी संकट का होना स्वीकार कर रही है और न ही कश्मीर में किसी गैर सरकारी सूचना संकलन की अनुमति दे रही है ।

ये सब कुछ ऐसे पहलू हैं जो घरेलू मैदान पर बतौर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की असफलता को साफ दिखा रहे है।

भावनात्मक तुष्टीकरण के लिए लगातार काम होने के कारण छवि को मजबूत बनाने की रणनीति तो कारगर साबित हो रही है मगर इसके बरक्स भारत के आम नागरिक की जरूरतें खड़ी हैं ।

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नरेंद्र मोदी को अगर इतिहास में वाकई एक कालजयी नायक होने के तमन्ना है तो उन्हे उन घरेलू मुद्दों पर भी उतनी ही कड़ी मेहनत और जिद दिखनी होगी जो वे अपने मनचाहे फैसलों को लागू करने और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी छवि गढ़ने में दिखा रहे हैं ।

उम्मीद की जानी चाहिए कि वर्तमान कार्यकाल के बाकी साढ़े चार सालों में वे इस मोर्चे पर अपना ध्यान रखेंगे ।

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