जुबिली न्यूज डेस्क
‘भीड़’ कोविड-19 लॉकडाउन के दौरान सड़कों पर छोड़ दिए गए उन लोगों की कहानी है, जिनके पास कहीं जाने को नहीं था. इस फिल्म ने पहले दिन 50 लाख रुपए की कमाई की है. ज़ाहिर तौर पर फिल्म से बहुत बड़ी ओपनिंग की उम्मीद नहीं थी. क्योंकि ये मेनस्ट्रीम एंटरटेनमेंट नहीं है.
साल 2020 के मार्च महीने में जब कोरोना वायरस की वजह से भारत में लॉकडाउन लगा था तो देश ने जो देखा, उसे संक्षिप्त रूप में लगभग समेंटने की कोशिश अनुभव सिन्हा ने अपनी इस फिल्म में की है। कोरोना काल एक भयावह अनुभव था, जिससे गांव और शहर के लोग बुरी तरह प्रभावित हुए थे।
खासकर शहरों में काम करने वाले वो मजदूर, जो अपने गांव से रोजी रोटी की तलाश में बड़े शहरों में गए थे, फिर हजारों किलोमीटर दूर, अपने घर, वापस लौटने को मजहूर हुए थे। वो भी पैदल, क्योंकि आवागमन के बाकी सारे रास्ते रुके हुए थे। और पैदल वापस लौटते हुए भी उन्हें पुलिस का मार झेलनी पड़ी और अपने ही मुल्क में अपराधी सरीखे हो गए थे। फिल्म में इसी कठिन और क्रूर वक्त को दिखाया गया है।
राज कुमार राव ने इस फिल्म में सूर्य कुमार के नाम के एक ऐसे पुलिस अधिकारी का किरदार निभाया है जो एक चेक पोस्ट पर तैनात है और अपने ही देश में आप्रवासी हो गए मजदूरों और आम लोगों के आवागमन को नियंत्रित करने में लगा है। उसे एक महिला डाक्टर रेणु शर्मा (भूमि पेडनेकर) से भी प्रेम है। सूर्य कुमार दलित है इसलिए व्ववस्था के भीतर भी उसे कई तरह की परेशानियां झेलनी पड़ती है। डॉक्र्टर रेणु भी इस दौर में लोगों की मदद कर रही है। कृतिमा कामरा से एक मीडिया रिपोर्टर की भूमिका निभाई है औऱ लाजबाब तरीके से निभाई है। पंकज कपूर भी काफी दमदार लगे हैं।
यहां ये रेखांकित करना जरूरी है कि `भीड़’ एक मनोरंजक फिल्म नहीं है। हालांकि बेहद कसी हुई और चुस्त है और इसका कोई ऐसा लम्हा नहीं है जो न झकझोरे और सोचने की तरफ न ले जाए। आखिर हम जिस देश में रह रहे हैं वो अपने सामान्य नागरिकों का संकट की घड़ी में किस तरह खयाल रखता है, रखता भी है या नहीं, बड़े लोग किस तरह व्यवस्था पर भारी पड़ने की कोशिश करते हैं (दिया मिर्जा ने ऐसा ही किरदार निभाया है) जैसे सवाल इस फिल्म को देख कर मन में उभरते हैं।
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बतौर दर्शक सुधार करने की ज़रूरत
महत्वपूर्ण बात ये कि अनुभव सिन्हा की इन सभी फिल्मों की कास्ट ए-लिस्टर रही है। विषय का चुनाव सही रहा है। फिर भी ‘आर्टिकल 15’ को छोड़कर कोई भी 5 करोड़ रुपए का आंकड़ा भी नहीं छू पाई। मतलब साफ है कि बतौर दर्शक हम सबको अपने भीतर भारी सुधार करने की ज़रूरत है। सिंपल फंडा है। अगर आप चाहते हैं कि अच्छा सिनेमा बने, तो उसकी पहली शर्त है कि आप अच्छा सिनेमा देखें। टॉरेंट से नहीं, सिनेमाघरों में जाकर।
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