जुबिली न्यूज डेस्क
चूल्हे पर खाना बनाना कितना खतरनाक है इस बात का अंदाजा अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी और अफ्रीका विकास बैंक के द्वारा जारी इस रिपोर्ट से ही लगाया जा सकता है. चूल्हे पर खाना बनाने की वजह से हर साल लोखों लोगों की जान जा रही है साथ ही पर्यावरण भी दूषित होता है.
बता दे कि बुधवार को अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी और अफ्रीका विकास बैंक ने एक अध्ययन जारी किया, जो कहता है कि 2.3 अरब लोग आज भी खुले में आग जलाकर या केरोसीन वाले स्टोव पर खाना बनाते हैं, जो उनकी सेहत और कुदरत दोनों के लिए खतरनाक है. रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया की करीब एक तिहाई आबादी यानी लगभग 2.3 अरब लोग आज भी खाना पकाने के अस्वस्थ तरीके इस्तेमाल करते हैं, जो पर्यावरण के लिए ही नहीं बल्कि उनके अपने स्वास्थ्य के लिए भी हानिकारक हैं.
अफ्रीका विकास बैंक के अध्यक्ष अकिन्वुमी आदेसिना ने कहा, “स्वच्छ तरीकों से खाना पकाने की सुविधा ना होने का असर सार्वजनिक स्वास्थ्य, वन कटाव और ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को प्रभावित कर रहा है.रिपोर्ट में यहां तक कहा गया है कि 2030 तक सभी को स्वच्छ तरीके से खाना पकाने की सुविधा देने के लिए सालाना आठ अरब डॉलर के निवेश की जरूरत है.
37 लाख लोगों की जान ले रहा है
रिपोर्ट कहती है कि खाना पकाने के लिए लकड़ी जुटाने के लिए हर साल आयरलैंड के बराबर जंगल काटे जा रहे हैं. चारकोल, लकड़ी, कोयले, गोबर या फसल के बाद बची सामग्री को ईंधन के रूप में इस्तेमाल करने से निकलने वाला धुआं सालाना करीब 37 लाख लोगों की जान ले रहा है, जो अप्राकृतिक मौतों का तीसरा सबसे बड़ा कारण है.
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महिलाओं पर पड़ रहा सबसे ज्यादा असर
अध्ययन के मुताबिक सबसे बुरा असर महिलाओं पर पड़ता है, जो इस तरह खाना पकाने का सबसे करीबी शिकार होती हैं. वही ईंधन जुटाने के लिए भी जिम्मेदार हैं इसलिए शिक्षा और रोजगार से भी चूक जाती हैं.
इस देश की हालत सबसे बदतर
2010 के बाद से अब तक चीन, भारत और इंडोनेशिया ने अपने यहां ऐसे लोगों की संख्या आधी कर दी है जिनके पास खाना पकाने के स्वच्छ तरीके उपलब्ध नहीं हैं, लेकिन अफ्रीका में हालात बदतर हुए हैं और रिपोर्ट कहती है कि मौजूदा नीतियों में बदलाव नहीं किया गया तो आने वाले तीन दशक तक भी यह समस्या नहीं सुलझेगी.
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जानें कैसे ये समस्या खत्म हो सकती है
बता दे कि अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी और अफ्रीका विकास बैंक का कहना है कि सालाना आठ अरब डॉलर का निवेश ईंधन पर दी जाने वाली सब्सिडी का एक फीसदी भी नहीं है. आईईए के निदेशक फातेह बिरोल कहते हैं, “खाना पकाने के स्वच्छ तरीके उपलब्ध कराने के लिए किसी तकनीकी चमत्कार की जरूरत नहीं है. यह मामला सिर्फ सरकारों, विकास बैंकों और गरीबी व लैंगिक असमानता खत्म करना चाहने वाली संस्थाओं की इच्छा शक्ति पर निर्भर है.”