केपी सिंह
मीडिया को लोकतंत्र का चौथा खंभा कहा गया है। लेकिन ओरेविल ने उसे पेन प्रोस्टीट्यूट भी कहा है। आज जो परिस्थितियां हैं उनके मददेनजर मीडिया के लिए विशेषण उपयुक्त है या ओरेविल का अपविशेषण इस पर विचारोत्तेजक चर्चा हो सकती है।
देश के पहले प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने अखबारों को लोकतंत्र की जीवन रेखा बताते हुए पीत पत्रकारिता के आधार पर भी इन पर रोक लगाने की कल्पना तक करने से इंकार कर दिया था। लेकिन आज दशा यह है कि लोग समझ नही पा रहे हैं कि मीडिया लोकतंत्र का खंभा है या वह मट्ठा है जिससे लोकतंत्र के खंभों की बुनियाद मिट जाने वाली है।
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आज मतदाता जिस तरह से भ्रमित है और उसकी राजनैतिक चेतना का स्तर माइनस से नीचे चला गया है उसमें मीडिया की बहुत बड़ी भूमिका है। नतीजतन मीडिया के लोकतंत्र के बढ़ावे और विस्तार का टॉनिक करार देने वाले सिद्धांतकार भौंचक हैं।
आजादी के पहले और इसके कई दशकों बाद तक मीडिया का अर्थ सिर्फ मुद्रित पत्र-पत्रिकाएं होती थीं। सेठ जिस तरह से अपनी कुलीनता में चार चांद लगाने के लिए धर्मशालाओं के निर्माण से लेकर गरीबों के लिए पंगतें कराने तक के पुण्य आयोजन में पैसा खर्च करते थे वैसे ही अखबार निकालने के खर्च के लिए भी उनकी पवित्र मानसिकता प्रेरित करती थी।
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सेठ आर्थिक समृद्धि के बावजूद अपने को अधूरा अनुभव करते थे और चाहते थे कि धन के साथ-साथ कैसे यश भी उनके खाते में जमा हो सके। वे ऐसे विद्वान किस्म के लोगों को अपने प्रकाशनों में संपादक रखते थे जिन्हें अपना मान-सम्मान और गरिमा बहुत प्यारी होती थी।
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अखबार मालिक नियुक्ति के समय संपादक से विनम्र आग्रह कर लेते थे कि वे अपनी पत्र-पत्रिकाओं का घाटा दूसरे धंधों से पूरा कर लेगें जिसकी चिंता आपको नही करनी है पर विद्व समाज में उनके प्रकाशन का स्थान विशिष्ट बनना चाहिए।
टाइम्स ऑफ इण्डिया की 125वीं वर्षगांठ के आयोजन में लंदन के मशहूर अखबार गार्जियन के संपादक को मुख्य वक्ता के रूप में बुलाया गया था।
जिन्होंने मंच से कहा कि संपादक की स्वतंत्रता तभी हो सकती है जब वह अखबार को आर्थिक रूप से आत्म निर्भर रखने की क्षमता दिखा सके। पत्रकारिता की दुनियां में आने वाली भूकंपीय उथल-पुथल की प्रस्तावना के रूप में उनकी आप्तवाणी को तत्काल ही नोटिस में लिया गया था लेकिन संपादक क्या करते।
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वे खुद भी सुविधा-भोगिता के भंवर में फंस रहे थे इसलिए अखबार मालिक के सामने लाचार हो जाना उनकी नियति था। इसके बाद अखबार के संपादकीय विभाग से न केवल अपना खर्चा जुटाने बल्कि निवेश का पर्याप्त मुनाफा दिलाने की अपेक्षा भी उनसे होने लगी तो अखबार के कंटेंट पर इसका अक्स झलकने लगा और संपादक वैचारिक सात्विकता के साथ बलात्कार करने लगा।
2002 आते-आते तक बैनेट कोलमेन के हिंदी अखबार नव भारत टाइम्स में पहले पन्ने पर पेड वाटम न्यूज छपने लगी। एक बार एक कोल्ड ड्रिंक कंपनी की मार्केटिंग के लिए नव भारत टाइम्स में बहुत बड़ी वाटम न्यूज छपी थी जिसका सार यह था कि उस कंपनी ने ढाबों की साज-सज्जा का खर्चा उठाकर देश के राजमार्गों का लुक बदल डाला है जो लोगों पर उपकार से कम नही है।
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फिर एक चरण आया जब चिटफंड कंपनियों ने फिर से धांसू संपादकों को याद किया और उनकी कमान में अपने अखबार निकाले। कुछ दिनों इस दस्तक ने संपादकों की सत्ता फिर मजबूत होने की मृग मरीचिका गढ़ी लेकिन जैसा खाये अन्न, वैसा बने मन सो चिटफंडियों की काली पूंजी ने अंततोगत्वा संपादकों के चरित्र का ऐसा उद्धार किया जिससे पत्रकारिता की गरिमा ने निकृष्टता के नये तल को छू लिया।
इसके बाद जब इलेक्ट्रोनिक मीडिया का पदार्पण हुआ तो लगा कि अब मीडिया का पुर्न ऊर्जीकरण होगा लेकिन भारी पूंजी निवेश जिसमें सर्वाधिक मुनाफा देने वाले कारोबार में बदल दी गई मीडिया इस तकनीकी रूपांतरण में उस पायदान पर पहुंच गई है जहां उसके लिए जॉर्ज ओरेविल का प्रोस्टिट्यूट का खिताब पूरी तरह मौजू हो गया। मीडिया में आन नाम की कोई चीज नही बची है।
जो जितना बड़ा पैकेज दे उसके लिए खबरों को उसी सीमा तक ट्विस्ट कर पेश करने में कोई हिचक या शर्म महसूस नही की जाती। इस कलाबाजी में लोगों में सम्यक राजनैतिक चेतना जागृत करने का कर्तव्य बोध मीडिया में विस्मृत किया जा चुका है जो कि लोकतंत्र के संदर्भ में इसकी प्रासंगिकता का मुख्य तत्व था।
पुराकथाओं में राक्षसों को जिस इंद्रजालिक युद्ध कला के प्रयोग के लिए हर प्रसंग में धिक्कारा गया है मीडिया आज उसी मायावी प्रपंच का मंच बनकर रह गई है।
पत्रकारों की भी राजनीतिक विचार धारा होती है जिसमें कोई बुराई नहीं। के. नरेंद्र राष्ट्रवादी विचारधारा के संपादक थे फिर भी वीर अर्जुन में उनके अग्रलेखों के कायल हर विचारधारा के लोग रहते थे। कोई उन पर पत्रकारिता को विकृत करने का आरोप नही लगाता था। आज किसी वैचारिक प्रतिबद्धता का पोषण करने की वजह से मीडिया का नया रुख आलोचनाओं के घेरे में नहीं है।
मीडिया के प्रति उमड़ती नकारात्मक जनभावना और उसकी विश्वसनीयता की दरकती जमीन के लिए उत्तरदायी है उसका लंपट और कपट व धूर्तता पूर्ण प्रस्तुतिकरण। खबरों के चयन का कोई मानक नही है। जो सूचना लोगों के लिए आवश्यक होनी चाहिए खबरों में वह गायब कर दी जाती है। अगर ऐसी सूचना को शामिल भी किया जाता है तो इस तरह तोड़-मरोड़ कर कि कुछ का कुछ दिखने लगता है।
अगर राजनीतिक चेतना का निर्माण पत्रकारिता कर रही होती तो परस्पर विरोधी राजनैतिक विचारधारा के आम लोग सोशल मीडिया व अन्य सार्वजनिक मंचों पर एक-दूसरे से संवाद करते हुए तर्कों और तथ्यों से लैस होकर प्रतिवाद के लिए मैदान में उतरते नजर आते। अपने दावे पर बल देने के लिए प्रमाणिक श्रोतों के हवाले उनके पास होते। लेकिन गालियां और अपने पक्ष को बिना किसी तर्क व ज्ञान के मनमाने की प्रगल्भता बौद्धिक जगत में गुंडागदी का यह आचरण मीडिया की ही देन है। इससे लोकतंत्र की बजाय अधिनायकत्व को सींचने का उपक्रम हो रहा है।
एक और पहलू है। आज मीडिया में खास तौर से इलेक्ट्रोनिक मीडिया में घटनाओं को सनसनीखेज तरीके से परोसने की टैक्निक प्रचार/प्रसार बढ़ाने के लिए इस्तेमाल की जा रही है जिससे तात्कालिक तौर पर उफान जैसा असर होता है लेकिन जनमानस पर इसके कोई अमिट निशान नही पड़ते। बुनियाद से ही गड़बड़ी होती है।
दूरगामी और बहुआयामी घटनाओं वाली खबरों को अगर उनमें सनसनी की गुंजाइश नहीं है तो छोड़ दिया जाता है जबकि पत्रकारिता सूचनाओं का व्यापार की वजाय वैचारिक विकास का मंच होना चाहिए। जिसको देखते हुए सनसनी की संभावनाओं के आधार पर खबरों की वरीयता निर्धारण का कोई औचित्य नही है।
मीडिया के प्रति नशा तो पनप रहा है जिससे अखबार और चैनल लोगों की लत बनते जा रहे हैं। लेकिन नशे का खोखलापन जाहिर रहता है। ऐसे में मीडिया से चेतना निर्माण का उददेश्य कहां से पूरा हो सकता है।
मीडिया के चलते पूरा समाज उन्मांद के बुखार में तपने लगा है। पर बुखार तो एक दिन उतरता ही है। जिसका बुखार उतर जाता है वह सच्चाई जानने और अपनी आंखे खोलने के लिए वैकल्पिक मीडिया की शरण में जाने को अपने को मजबूर पाता है और वेब मीडिया के बढ़ते आकर्षण में इसकी झलक देखने को मिल रही है।
यह प्रवृत्ति और रुझान लोकतंत्र जिंदाबाद होने का सबूत है लेकिन यह कहीं तथाकथित मुख्यधारा की मीडिया मुर्दाबाद की भूमिका न बन जाये।(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)