शबाहत हुसैन विजेता
घुसपैठियों को लेकर केन्द्र सरकार अचानक गंभीर हो गई है। गंभीर भी इतनी कि आधी रात तक संसद जागती रही। इस रतजगा में केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह को बार-बार यह बात साफ करनी पड़ी कि हम मुसलमानों के खिलाफ नहीं हैं। वह शरणार्थी और घुसपैठिया के फ़र्क़ को समझाते नज़र आये।
घुसपैठियों को निःसंदेह भारत में रहने का हक़ नहीं है। उन्हें उनके मूल देश में भेजना सरकार का अधिकार भी है और ज़िम्मेदारी भी, लेकिन यह बात किसी भी सरकार के लिए शर्मनाक है कि उसे संसद में यह कहने को मजबूर होना पड़े कि वह मुसलमानों के खिलाफ नहीं है। गृह मंत्री यह बयान देने को मजबूर नज़र आएं कि मेरे दिल में मुसलमानों को लेकर नफरत का भाव नहीं है।
जिस देश की साझा संस्कृति रही है। जहां पर सदियों से सभी धर्मों के लोग मिल-जुलकर रहते आये हैं। आखिर उस देश में धार्मिक फ़र्क़ के आधार पर इंसानों में फ़र्क़ कैसे आया यह सवाल बहुत मंथन करने वाला है। आज़ाद हिन्दुस्तान की यह पहली सरकार थोड़े ही है। पहले भी तो सरकारें थीं। पहले भी तो वोट पड़ते थे। रीति-रिवाज तो पहले भी थे। कुंभ और मोहर्रम पहले भी होता था, लेकिन धर्म के आधार पर नागरिकों में भेदभाव नहीं होता था। धर्म के आधार पर इंसानों के बीच नफ़रत की खाई नहीं होती थी।
यही वह सरकार है जिसके कार्यकाल में नागरिकता परखने का काम शुरू हुआ। हालांकि एनआरसी की शुरुआती सोच राजीव गांधी की थी। उनके कार्यकाल में शुरू हुआ काम ज़मीन पर आते-आते कई सरकारें बदल गईं लेकिन एनआरसी को लेकर न नफरत का भाव जगा और न ही आपस में नफ़रत का माहौल तैयार हुआ, लेकिन एनआरसी की शुरुआत होते ही पूरे देश में एक धर्म विशेष के भीतर इस डर की सिहरन दौड़ गई कि पता नहीं उनके पास सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा गाने का मौलिक अधिकार आंख बंद होने तक सुरक्षित रहेगा या फिर उन्हें डिटेंशन कैम्प के भीतर रहकर डर के साये में अपने देश से मोहब्बत करनी होगी।
मौजूदा हुकूमत ने आटा महंगा कर दिया और डाटा सस्ता कर दिया। तमाम लोगों के सामने एक तरफ भरपेट खाना सपना बन गया तो दूसरी तरफ रोज़ाना मिल रहे 2 जीबी डाटा का दुरुपयोग शुरू हो गया। व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी ने मुल्क में नफरत की आंधी चला दी और सरकार कान में तेल डालकर बैठी रही। सत्ता सीन राजनीतिक पार्टी का खुद का आईटी सेल है। इस आईटी सेल में कार्यरत वेतन भोगी नौजवान रात-दिन मुफ्त के डाटा के जरिये जो परोस रहे हैं वह समाज के बंटवारे में सबसे अहम भूमिका निभा रहा है।
लोकतंत्र में जनता जिस पार्टी को बहुमत देती है वह पार्टी हुकूमत चलाने के लिए अधिकृत हो जाती है, लेकिन किस नागरिक ने किसे वोट दिया यह बात चुनाव खत्म होते ही खत्म हो जाती है। निर्वाचित प्रतिनिधि सबका प्रतिनिधि होता है और निर्वाचित सरकार सबकी सरकार होती है। जब सरकार सबकी सरकार है तो फिर एक धर्म विशेष को अपना भविष्य असुरक्षित क्यों नज़र आ रहा है, यह सोचने वाली बात है।
वह देश आखिर कैसे विकास करेगा जिसमें एक बड़ी आबादी को डर के साये में जीने को मजबूर किया जाये। सरकार अपने संख्या बल से विकास की परियोजनाएं लाये तो देश के लिए बेहतर होता है लेकिन अगर सरकार चुनावी रैली में यह कहती नज़र आये कि एनआरसी से हिन्दुओं, सिक्खों और बौद्धों को डरने की ज़रूरत नहीं है। अगर वह अपनी नागरिकता साबित नहीं कर पाए हैं तो सरकार उन्हें कहीं जाने नहीं देगी, उन्हें नागरिकता देगी। संदेश साफ है कि एनआरसी का चाबुक सिर्फ मुसलमानों पर पड़ने वाला है।
व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी लगातार डर के तीर छोड़ रही है। लगातार यह बताया जा रहा है कि एनआरसी की जांच में यह साबित करना होगा कि 1954 से पहले से भारत में निवास है। जांच से गुजरने वाला अगर 54 के बाद पैदा हुआ है तो वह अपने पिता की नागरिकता साबित करे।
घुसपैठिया ढूंढना बहुत अच्छी बात है लेकिन जिन प्रदेशों में बार-बार बढ़ आती है। जहां के नागरिकों के घर और सामान बह जाते हैं। जो नागरिक अग्निकांड के शिकार हुए हैं, भूस्खलन में जिनके घर ज़मीन के भीतर समां गए हैं, वह आखिर अपनी नागरिकता को कैसे साबित कर पाएंगे। जो कभी स्कूल नहीं गए, वह कहां से लाएंगे अपना जन्म प्रमाणपत्र।
क्या 1954 में हर किसी की पहुंच में जन्म प्रमाण पत्र था। क्या तब जन्म-मृत्यु का डाटा कहीं फीड किया जाता था। जो बच्चा अपने घर में ही पैदा हुआ और बड़ा हो गया। वह अपने जन्म का प्रमाण कहां से लाकर देगा।
राजनीतिक दल की विचारधारा और सरकार की विचारधारा में ज़रूर फ़र्क़ होना चाहिए। सरकार की निगाह में सभी नागरिकों को बराबरी के अधिकार मिलने चाहिए।
सबका साथ-सबका विकास का नारा यथार्थ के धरातल पर खरा नहीं उतरा और धर्म विशेष के मन में डर का भाव बना रहा तो ऐसी सरकार असरदार सरकार नहीं हो सकती। मौजूदा सरकार दुनिया जीतने निकली है लेकिन हकीकत यह है कि पहले उसे अपने नागरिकों का दिल जीतना होगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, लेख में उनके निजी विचार हैं)
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