केपी सिंह
लोकसभा चुनाव के नतीजे बाकायदा जारी होने के पहले एनडीए की बैठक आयोजित करके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जताया है कि वे अपनी वापसी के प्रति पूरी तरह आश्वस्त हैं लेकिन क्या इसका दूसरा अर्थ नही हो सकता।
सभी एग्जिट पोल में उनकी वापसी दिखाई गई है। लेकिन ज्यादातर एग्जिट पोल भाजपा की सीटें घटने का अनुमान जाहिर कर रहे हैं जो फिलहाल जमीनी हकीकत से काफी मेल खाता नजर आ रहा है।
संघ और भाजपा के एक वर्ग ने भी इस आशंका का ख्याल रखा जा रहा है जिसके बरक्स ऐसी सुगबुगाहट देखी गई जिसे लेकर कहा जा रहा था कि अकेले दम पर बहुमत न मिलने पर मोदी के विकल्प पर भी विचार किया जाने लगा है।
मोदी और शाह की व्यूह रचना
खास बात यह है कि एनडीए की बैठक में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में विश्वास व्यक्त करने का प्रस्ताव भी पारित कराया गया। विश्लेषकों का एक वर्ग मानता है कि इसके पीछे मोदी और शाह की ऐसी किसी कोशिश को ध्वस्त करने की व्यूह रचना भी हो सकती है।
दूसरे लोकसभा के त्रिशंकु होने पर इस कवायद के जरिए यह भी पुख्ता किया गया है कि राष्ट्रपति के पास नरेंद्र मोदी को ही पहले सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करने का अवसर नैतिक और वैधानिक तौर पर पूरी तरह सुरक्षित हो सके।
संभावित नये सहयोगियों को मानसिक रूप से तैयार करने में भी यह रणनीति कामयाब दिखती है। यह बात सामने आ चुकी है कई चैनलों ने एग्जिट पोल में बदलाव किया है। शुरूआत में उन्होंने कुछ दिखाया और इसके बाद भाजपा की सीटें बढ़ाकर दिखाने लगे।
यह भाजपा के प्रोपोगंडावार का हिस्सा बताया जा रहा है जिसकी वजह से बीजू जनता दल और टीआरएस जैसी पार्टियों ने परिणाम के पहले अपने पत्ते खोलने से मना करके भाजपा को सुकून दिया है। उधर आंध्र के जगन मोहन रेडडी ने भी नजदीकि व्यक्तिगत संबंध होने के बावजूद इसी वजह से शरद पवार का फोन अटैंड करने से मना कर दिया।
पवार के माध्यम से कोशिश यह हो रही थी कि यूपीए से जगन मोहन रेडडी को समय रहते जोड़ लिया जाये। सपा और बसपा भी असमंजस बनाये हुए है। जाहिर है कि इन स्थितियों में लोकसभा में संख्या का गणित कुछ भी निकले लेकिन विपक्ष तत्काल सरकार के लिए दावेदारी करने की स्थिति में नही होगा।
उत्तर प्रदेश के महागठबंधन से भी मोदी को मिली सहूलियत
सीबीआई द्वारा सुप्रीम कोर्ट में आय से अधिक संपत्ति के मामले में मुलायम सिंह और अखिलेश को क्लीन चिट देने के निहितार्थ ढूढ़े जा रहे हैं। सपा-बसपा गठबंधन ने उत्तर प्रदेश में भाजपा का नुकसान भले ही किया हो लेकिन देश व्यापी स्तर पर उसने चुनाव में मोदी के लिए जाने-अनजाने में रक्षा कवच का भी काम किया है।
गठबंधन ने विपक्ष में नेतृत्व का प्रश्न उलझाने की भूमिका निभाई जिससे मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग उत्साहित न होने के बावजूद अंततोगत्वा चुनाव में यह कहकर कमल का बटन दबा आया कि मोदी के अलावा प्रधानमंत्री पद के लिए दूसरा कोई चेहरा ही नही है तो वे क्या करें।
वैसे भी सपा और बसपा में भाजपा के लिए शुरू से साफ्ट कार्नर नजर आता है। मुलायम सिंह ने तो सरेआम लोकसभा के विदाई सत्र में नरेंद्र मोदी के लिए फिर से प्रधानमंत्री बनने की शुभकामना व्यक्त कर डाली थी। मायावती भी गुजरात में नरेंद्र मोदी के समर्थन में सभाएं करके प्रतिबद्धता के मामले में अपनी ढुलमुल मानसिकता काफी पहले दिखा चुकीं थीं।
फिर भी मुसलमानों की गठबंधन के पक्ष में वोट करना मजबूरी थी क्योंकि कांग्रेस के पास कोई बेस वोट नही था और भाजपा को सत्ता से दूर करने के लिए उन्हें कुछ भी करना था भले ही उनके प्रयास सफल न हों। इसी जटिलता का परिणाम है कि मोदी वक्त पड़ने पर सपा और बसपा की सहानुभूति जुटाने के लिए अपनी एक खिड़की खोले हुए हैं।
मुसलमानों के लिए है यह एक सबक
यह चुनाव मुसलमानों के लिए भी एक सबक है। उत्तेजना की राजनीति के प्रति उन्हें अपनी ललक पर लगाम लगानी पड़ेगी। जिससे कुछ नेताओं ने अपनी राजनीति चमकाई लेकिन बाद में वे मुसलमानों के सगे नही रह सके। दूसरी ओर इसकी प्रतिक्रिया बहुसंख्यक वर्ग में भी हुई जो आज भाजपा के खेमे में पूरी तरह से लामबंद हो गया है।
विचारधाराओं के अंत का था यह युग
वैसे यह उत्तर आधुनिकता का युग है जिसमें विचारधाराएं अप्रासंगिक हो चुकी हैं। इसलिए भाजपा और विपक्ष में नीतियों में कोई अंतर नही है। जब नरसिंहा राव की सरकार बनी थी उसी समय यह निष्कर्ष सामने आ गया था।
नरसिंहा राव द्वारा लागू की गई नई आर्थिक नीति का भाजपा ने पहले विरोध किया लेकिन जैसे ही लालकृष्ण आडवाणी अमेरिका पहुंचे उनके सुर बदल गये और वे भी आर्थिक उदारीकरण की वकालत करने लगे। अटल बिहारी बाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए की जो सरकार बनी वह कांग्रेस की तरह ही उदार लोकतांत्रिक पार्टी के चरित्र के अनुरूप व्यवहार करने वाली भाजपा नीत गठबंधन की सरकार थी।
मोदी ने भी शुरूआत में इसी गरिमा का निर्वाह किया। गौ रक्षा के नाम पर होने वाली हत्याओं को लेकर उन्होंने बेहद कड़ा बयान दिया था जिसमें तथाकथित गौ रक्षकों को उन्होंने गुण्डागर्द गिरोह तक कहने की जुर्रत कर डाली थी, यह इसकी मिसाल है। लेकिन नीतिगत दृष्टि के अभाव ने उनकी सरकार का विफल कर दिया जिसके बाद वे कटटरवादी तबके के दबाव में आते चले गये।
उत्तर आधुनिकतावाद विचारधारा के साथ-साथ इतिहास के भी अंत की बात करता है लेकिन भाजपा को इस दौरान जो वर्ग सत्ता नेतृत्व कर रही है वह समय के साथ दौड़ने के बजाय इतिहास के गड़े मुर्दे उखाड़ने में मशगूल है। अतीत के पराजय बोध की कुंठा ने उसे इस कदर आत्महंता बना दिया है कि वर्तमान दुनियां में भारतीय हर देश में जिस तरह से बड़ी से बड़ी उपलब्धियां संजोने की होड़ कर रहे थे उसको बरबाद करने में वे कोई कसर नही छोड़ रहे।
सीमित हो गई मोदी की मर्जी
उत्तर प्रदेश में योगी का मुख्यमंत्री बनाया जाना और लोकसभा चुनाव में भोपाल से प्रज्ञा ठाकुर की उम्मीदवारी तय किया जाना उनकी मर्जी के मुताबिक नही हुआ। भले ही अपने नेतृत्व को लेकर वे किसी का जोर न चलने दे रहे हों लेकिन अन्य बातों में मोदी अटल बिहारी बाजपेयी की तरह स्वतंत्र नही रह गये हैं। उन्हें रिमोट कंट्रोल के दबाव में समझौते करने पड़ रहे हैं।
सामाजिक न्याय विरोधी वर्ग सत्ता के चंगुल में फंसा मोदी का इकबाल
मोदी की पिछड़ी जाति को लेकर बसपा ने उन्हें जो चुनौती दी वह तकनीकी तौर पर तो ठीक हो सकती है लेकिन व्यवहार में उनकी भी जाति गुजरात में सामान्य वर्ग में होने के बावजूद उसी तरह तिरस्कृत थी जैसे उत्तर प्रदेश में खांगर जाति।
इसी अनुभव ने उन्हें सामाजिक न्याय के लिए प्रतिबद्ध किया था। लेकिन अब इस मामले में भी वे मुखौटा भर रह गये हैं। उनका चेहरा पेश करके भाजपा ने पिछड़ों का भारी समर्थन अर्जित करने की ट्रिक हथिया ली है लेकिन पार्टी का सामजिक मामलों का एजेंडा कौन लोग तय कर रहे हैं यह जानने के लिए सोशल मीडिया आइना है।
जिस पर भाजपा का हरावल दस्ता बहुसंख्यक समाज (बहुजन) के प्रति अपनी हेय भावना का खुल्लम खुल्ला पोषण कर रहे हैं और मोदी एंड कंपनी गौ रक्षकों के मामले में दिलेरी दिखाने के अपने जमाने को भूलकर उसकी अनदेखी करने पर मजबूर हैं।
क्या मोदी लेगें इतिहास से सबक
बहरहाल हर नेता इतिहास से सबक लेता है। अगर मोदी को ही दूसरा कार्यकाल मिलता है तो उम्मीद की जानी चाहिए कि वे इसी प्रवृत्ति के अनुरूप कार्य करेगें। नेता वह नही होता जो भीड़ के हाथ का खिलौना बन जाये बल्कि नेता का सर्वोपरि गुण यह है कि वह लोगों को अपने मुताबिक दिशा निर्देशित करने की क्षमता दिखा सके। वास्तविक नेता की इसी कसौटी पर मोदी को खुद को खरा साबित करना होगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, लेख में उनके निजी विचार हैं )