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कबीर के मगहर के मायने

डा. मनीष पांडेय

मध्यकालीन दौर के विख्यात जनकवि और दार्शनिक महात्मा कबीर के नाम पर बनाये गए जिले संत कबीर नगर का मगहर क़स्बा कबीर का पर्याय होने के साथ कहीं न कहीं तथागत बुद्ध और महायोगी योगी गोरख के पदचिन्हों का भी गवाह है|

ध्यान दिया जाए तो इसके आस-पास का पूरा इलाक़ा बौद्धकालीन संस्कृति का गवाह है| यहीं के लहुरादेवा में सिंधुकालीन सभ्यता के समकालीन अवशेष दिखते हैं और जनकथाएँ कहती हैं कि बुद्ध ने यही के चकदही स्थित खुदवा नाला को पार कर महाभारतकालीन शिवमंदिर तामेश्वरनाथ में अपना मुंडन कराकर सन्यास ग्रहण किया था| मगहर गोरखपुर के पश्चिम में  लगभग 25 कि.मी. दूर राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 28 पर अवस्थित है|

पूर्वी उत्तर प्रदेश का गोरखपुर-बस्ती मण्डल हालांकि नए आर्थिक पैमाने के हिसाब से काफी पिछड़ा माना जाता है, लेकिन ऐतिहासिक दृष्टि से काफी समृद्ध रहा है| इसी क्षेत्र का एक हिस्सा मगहर के नाम से जाना जाता है, जिसका प्रतीकात्मक महत्व ऐतिहासिक संदर्भों के साथ सामयिक भी है|

शहर हमेशा से आर्थिक नींव पर खड़े होते रहे हैं| काल और आर्थिक परिस्थितियाँ उन्हे बनाती-बिगाड़ती रहती हैं| पूर्वाञ्चल का इलाक़ा अनेक संतों और महापुरुषों की कर्मस्थली रहा है| यहाँ का कपिलवस्तु और श्रावस्ती समेत पूरा इलाक़ा बुद्ध के अस्तित्व में समूचे दक्षिण एशिया के लिए कभी ज्ञान का केंद्र था, लेकिन मगहर आज की ही तरह न्यूनतम सुविधाओं से तब भी महरूम था|

ख़ैर, कबीर तो उल्टी बानी के प्रतिरोधी संत हैं, उन्हे काशी के अपेक्षा मगहर प्रिय है| उनमें परम्पराओं को तोड़ने की धुन थी, उस हिसाब से मगहर बड़ा सटीक था| कहते हैं कबीर के लिए आमी नदी उल्टी दिशा बह के यहाँ आयी थी| किंवदंतियाँ है, लेकिन प्रतीकात्मक महत्व है| कबीर स्वयं में प्रतीक थे, जिससे प्रतिबिम्बित होता है, कि कैसे बिना अनुभव और सुविधा बोध से ज्ञान को पाया जाता है|

कबीर अनूठे थे, उनके पास बुद्ध की तरह दुनिया भर के साहित्य, धर्म, और दर्शन का ज्ञान नहीं था, फिर अपनी चेतना और अनुभूति से वो बुद्ध का जनवादी विस्तार लगते हैं| कबीर आडंबर का विरोध करते हैं, धर्म की प्रासंगिकता पर सवाल खड़े करते हैं, समाज की मूढ़ता पर व्यंग और रूढ़ियों को तर्क से खारिज करते हैं| उनमें वही सरलता थी, जिसका प्रतीक कभी मगहर रहा होगा, जिसमें शहरी बनावटपन नहीं था|

कबीर रूढ़ियाँ तोड़ने काशी छोड़ मगहर आते हैं, तो उसी बहाने तमाम मठाधीशों के साथ बादशाह तक चैन की सांस लेते हैं| यहाँ के जन-जन में बसी बहुत सी जनश्रुतियाँ हैं,जिनमें कुछ तो बहुत रोचक हैं|

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ईशापूर्व छठी शताब्दी में बौद्ध भिक्षु इसी मार्ग से कपिलवस्तु (वर्तमान में सिद्धार्थनगर जिला) और लुम्बिनी जैसे प्रसिद्ध बौद्ध स्थलों के दर्शन हेतु जाया करते थे और प्रायः मगहर के घने वनमार्ग पर उन्हे लूट लिया जाता था| इस असुरक्षित स्थान का नाम इसी वजह से ‘मार्ग हर’ अर्थात मार्ग में लूटने वाले से पड़ गया, जो कालांतर में अपभ्रंश होकर मगहर हुआ|

एक अन्य जनश्रुति के मुताबिक मगधराज अजातशत्रु ने बद्रीनाथ जाते समय इसी रास्ते में पड़ाव डाला और अस्वस्थता में कई दिनों तक यहीं विश्राम किया, जिससे उन्हे स्वास्थ्य लाभ हुआ और शांति मिली| तब मगधरज ने इस स्थान को मगधहर कहा, जो अपभ्रंश हो मगहर बना|

कबीरपंथियों ने मगहर शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार की है- मार्ग यानि रास्ता और हर यानि ज्ञान अर्थात ज्ञान प्राप्ति का मार्ग| यह व्युत्पत्ति अधिक सार्थक लगती हैं क्योंकि यदि देश को सांप्रदायिक एकता के सूत्र में बांधना है, तो इसी स्थान से ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है|

कबीर का मर्म यहीं है| आधुनिकीकरण के लिए जो तर्क होना चाहिए वह कबीर में मौजूद है| उसकी अनदेखी है, इसीलिए वैश्विक युग में भी हम पिछड़े हैं|

इस मगहर से बुद्ध बार-बार गुजरते हैं, आस-पास के कोपियाँ, महास्थान आदि के पुरातात्विक साक्ष्य भी इस तथ्य की पुष्टि करते हैं| नाथयोगी बाबा गोरखनाथ यहाँ कबीर से मिलने आते हैं, योग पर चर्चा होती, जिसकी याद यहाँ स्थित गोरखतलैया में समाई हुई है|

कुछ विचारक यह भी मानते हैं, कि कबीर का बचपन इसी मगहर में बीता था| यहाँ आज भी बुनकरों की बड़ी बस्ती है| इन सब तथ्यों के बाद यह नहीं कहा जा सकता कि उस समय मगहर काशी से कम था, बस पिछड़ता चला गया|

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एच.आर. नेविल द्वारा लिखित गज़ेटियर में के.एस. लाल के ‘ट्विलाइट ऑफ द सल्तनत’ के संदर्भ से लिखा है, कि तत्कालीन समय के मुल्लाओं और पंडितों ने कबीर के विचारों को सामाजिक मूल्यों के विपरीत बताते हुए इसकी शिकायत सुल्तान सिकंदर लोदी से 1494 ई. में की| सुल्तान द्वारा यद्यपि कबीर को उपस्थित होने का सम्मन भेजा गया लेकिन उन्हे दंडित करने का कोई आधार नहीं मिला| इसके उपरांत भी वहाँ व्याप्त विरोध और नासमझी को दूर करने के लिए सुलतान ने उन्हे वाराणसी से मगहर जाने को कहा|

कबीर के विचारों से धर्म के ठेकदार घबराहट में थे| पोंगा पंथियों ने बहुत अफ़वाहें फैला रखी थी, लेकिन कबीर खुद बड़े सहज है और उनको लेकर जनसामान्य तो और भी अधिक| तभी तो कबीर में विश्वास रखने वाले बड़े-बुजुर्ग आज भी पोंगा-पंथियों के दुष्प्रचार को चटकारे लेकर सुनाते है, कि कबीर पैर कटा के काशी में बैठे थे कि मरूँगा तो यही, कोई विरोध करता रहे, लेकिन एक घुड़सवार से हुई बहस में कबीर ने घुड़सवारी का दम भरा तो घोड़े ने मगहर ला पटका|

अकबर के शासनकाल में मगहर के निर्माण कार्य का संरक्षण फिदाई खान के द्वारा किया गया| यद्यपि दूसरे स्रोतों के आधार पर यह माना जाता है, कि मगहर को गाजीपुर के पहाड़ खान के दत्तक पुत्र बिजली खाँ द्वारा पुनर्निर्मित किया गया| बाद में कबीर चौरे के संरक्षण के लिए अंग्रेजी शासनकाल ने एक गाँव एवं चार आने भत्ते का भुगतान गोरखपुर ट्रेजरी से कराने का प्रबंध किया|

गहराई से देखा जाये तो आज मगहर में सिर्फ कबीर का नाम है| आज़ ये आम क़स्बों की तरह ही है, लेकिन अपनी विरासत को लेकर जूझ रहा है| निकट की आमी नदी के प्रदूषण पर व्यापक आंदोलन है| मठ में कबीर की वाणी गूँजती है| उनके नाम पर शिक्षा के कई संस्थान हैं, जिनमें कबीर की जीवंतता झलकती है| सूर्य के उत्तरायण होने पर खिचड़ी का व्यापक पर्व मनाया जाता है और इन्ही दिनों सरकारी सहयोग से मगहर महोत्सव का भव्य आयोजन होता है|

गुरुग्रंथ साहब और कबीर की वाणी के साम्य को देखते हुए शिरोमणि गुरूद्वारा प्रबन्धक कमेटी द्वारा यहाँ कराये जा रहा भव्य गुरुद्वारा का निर्माण भी इस स्थल को दर्शनीय बना रहा है|

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मगहर का पूरा इलाक़ा मेहनतकश तबकों से आबाद हैं और पूरी ज़िंदगी पाखंड और पलायन पर आधारित धर्म के विपरीत कर्म और अंतर्दृष्टि पर आधारित विचार पर ज़ोर देने वाले कबीर को शरीर छोड़ने के लिए इससे बेहतर कोई इलाक़ा नहीं हो सकता था, जिसकी बानगी देखिये- “लोका मति के भोरा रे, जो काशी तन तजै कबीरा, तौ रामहीं कौन निहोरा”|

काशी में मरने पर स्वर्ग प्राप्ति के अंधविश्वास के खिलाफ मगहर आना पूरे इलाके के उस जनमानस को मानसिक पीड़ा से मुक्त करने का यह कबीरा प्रयास था, जो अपने अंतिम समय काशी पहुँचने में असमर्थ थे| मगहर, कबीर का प्रतीक है: क्या काशी क्या ऊसर मगहर, जो पै राम बस मोरा| जो कबीर काशी मरे, रामहि कौन निहोरा|

विडम्बना देखिये, जीवनभर कबीर आडंबरों के खिलाफ़ लोगो को जगाते रहे, फिर भी उनकी मृत्यु के बाद हिन्दू रीवाँ नरेश बीर सिंह तो उधर मुस्लिम नवाब बिज़ली खाँ आमने-सामने आ गए| कबीर का मगहर उनके मर्म को समझता था, जिसने वहाँ दो फूल छोड़ रखे थे, जिसे धर्म के ठेकेदारों ने बांटकर अपने-अपने मंदिर और मस्जिद बना लिए|

कबीर के वचनों को उनकी मृत्यु के दम ही अनदेखा कर दिया गया| भले ही आज उस निर्माण को धार्मिक सद्भाव का प्रतीक मानकर तार्किक आवरण दिया जाए, लेकिन जो कबीर को समझेगा उसे हिन्दू-मुस्लिम एकता का सूत्र समझने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी|

कबीर की उल्टी बाणी इतनी ताक़तवर थी, कि लाख उपाय कर भी उन्हे बुद्ध की तरह ईश्वर बनाने में मठाधीश बुरी तरह असफल हुए| मगहर उसी तर्क का प्रतीक है|

(लेखक समाजशास्त्री हैं )

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