के.पी. सिंह
शुक्रवार को मैनपुरी में मुलायम सिंह और मायावती का संयुक्त संबोधन ऐतिहासिक रहा। दोनों पार्टियों के गठबंधन को लेकर जो संदेह प्रकट किये जा रहे थे उनका अंत एकजुट रैली से हो गया है। किसी को आशा नही थी कि मुलायम सिंह बसपा सुप्रीमों के प्रति अपनी कटु भावना को भूलकर इतनी हार्दिकता के साथ उनका स्वागत और सम्मान करेगें।
वहीं मायावती भी जो कभी शिष्टाचार में किसी नेता के लिए इतनी विनम्र नही हुईं जितनी विनम्रता इस रैली में उन्होंने मुलायम सिंह के लिए प्रदर्शित की। यह एक अभूतपूर्व बदलाव था।
इस रैली के संदेश ने उत्तर प्रदेश की चुनावी फिजा पूरी तरह बदलने का संकेत दे डाला है। रैली के बाद कांग्रेस तो प्रदेश में एकदम नेपथ्य में चली गई है। भाजपा को भी इस रैली के बाद अभी तक के अनुमान से बहुत ज्यादा नुकसान उत्तर प्रदेश में होने के आसार पैदा हो गये हैं।
रैली में मुलायम सिंह ने दो ऐसी बातें कहीं जो मायावती के साथ-साथ उनकी पूरी जमात को भावुक कर गईं होगीं। उन्होंने कहा कि मायावती उनके समर्थन में यहां आईं जिसकों उनको बहुत खुशी है और उनके इस एहसान को वे कभी नही भूलेंगे।
इसके बाद अखिलेश और पूरी समाजवादी पार्टी के लिए वसीयत करने के अंदाज में उन्होंने कहा कि मायावती का हमेशा बहुत सम्मान करना। मुलायम सिंह के इस एलान के बाद यह दुविधा खत्म हो गई है कि यादव वोट बसपा के प्रत्याशी के पक्ष में ईवीएम का बटन दबायेगा या नहीं।
फिलहाल जो स्थिति बनी है उससे वर्तमान चुनाव में तो दोनों पार्टियों का वोट एक-दूसरे के लिए ट्रांसफर होने का माहौल पुख्ता हो ही गया है यह भी संदेश व्यक्त हो गया है कि सैद्धांतिक लक्ष्य पर आधारित होने की वजह से यह गठबंधन तात्कालिक न होकर स्थाई होने की हद तक दीर्घजीवी होगा।
1993 में हुए गठबंधन के प्रेरक कारक
1993 में जब दोनों पार्टियों का गठबंधन हुआ था उस समय भी देश में एक नई राजनैतिक ऊष्मा और ऊर्जा का संचार देखा गया था। मंडल बनाम कमण्डल की राजनीति के उस माहौल में वर्ण व्यवस्था से पीड़ित वर्ग एक ध्रुव पर जमा होने के लिए बेताब थे और सपा-बसपा गठबंधन इसके लिए बेहद मुफीद प्लेटफार्म के रूप में उपलब्ध हो गया था। पिछड़ी जातियों और दलितों ने गठबंधन के लिए भावनात्मक एकजुटता दिखाते हुए पूरे जोश-खरोश से एक साथ वोट डाले थे।
गठबंधन टूटा तो दलितों को सबक सिखाने में जुट पड़ी पिछड़ों की सियासत
बाबा साहब अंबेडकर ने कहा था कि अन्याय के खिलाफ लड़ने के लिए लोगों में कुछ बुनियादी बातों की जरूरत है। एक तो जो अन्याय से पीड़ित है, उन लोगों में इसका एहसास होना चाहिए। दूसरे अन्याय से लड़ने का जज्बा होना चाहिए। तीसरी और महत्वपूर्ण बात है कि लड़ने के लिए संसाधन होने चाहिए। पिछड़ी जातियों में अन्याय की अनुभूति का अपेक्षाकृत विलोप था। इसलिए सपा-बसपा गठबंधन टूटते ही वे अपने तरह से वर्ण व्यवस्था के खिलाफ लड़ाई लड़ने की बजाय दलितों को सबक सिखाने में जुट गईं।
अखिलेश सरकार ने भी अनुसूचित जातियों के पदोन्नति के मामलों सहित विभिन्न मुददों पर इसी भावना से कार्य किया। जिससे उनके बीच दूरी और ज्यादा बढ़ती गई। यही वजह थी कि इस बार सपा-बसपा गठबंधन के पहले की तरह कामयाब न हो पाने के अंदाजे लगाये जा रहे थे।
मायावती क्यों हो गई थी इतनी मुलायम
उधर मुलायम सिंह और मायावती के बीच रिश्तों में जिस तरह की तल्खी थी उसके कारण भी गठबंधन के सफल हो पाने को लेकर पर्याप्त अंदेशे थे। लेकिन मैनपुरी की रैली में सारी दीवारें ढह गईं। मायावती ने अपने भाषण में मुलायम सिंह को उत्तर प्रदेश में पिछड़ों के सबसे बड़े नेता के रूप में स्वीकार किया। गठबंधन को लेकर किसी प्रकार का गलत संदेश न जाने देने के लिए वे इस हद तक सजग थी कि मुलायम सिंह और अखिलेश यादव के पहुंचने के पहले खुद मंच पर पहुंच गईं थीं।
यही नही वे मुलायम सिंह के आने पर मंच पर उनके सम्मान में खड़ी हो गईं। कई बार उन्होंने मुलायम सिंह के साथ मौजूद भीड़ के लिए हाथ हिलाने की कोशिश की हालांकि मुलायम सिंह का रुख उस समय अटपटा था। जिसके कारण अखिलेश भी कुछ देर के लिए चिंतित हो गये थे।
नेताजी के रवैये को लेकर थीं कितनी ही अटकलें
दरअसल 19 अप्रैल की मैनपुरी की संयुक्त रैली तो काफी पहले तय हो गई थी लेकिन इसके बावत मुलायम सिंह लगातार ऐसी बातें कहते रहे जिससे लगता था कि या तो वे मायावती के साथ मंच पर खड़ा होना गंवारा ही नही करेगें या अगर वे मंच पर मायावती के सामने पड़े तो कुछ ऐसा कर देगें जिससे गठबंधन के लिए समस्या पैदा हो जाये।
यहां तक कि मंच पर आकर जब वे बैठ गये तब भी वे कड़ा रुख जाहिर करते रहे। जबकि पिछली बार जब मायावती मुख्यमंत्री थीं तो लोकायुक्त की नियुक्ति के संबंध में आहूत बैठक में वे नेता प्रतिपक्ष होने के कारण सारी ठसक को तिलांजलि देकर पहुंच गये थे।
हालांकि मायावती ने उस समय उन्हें भाव नही दिया था। जिससे दोनों के बीच संबंध सामान्य होने की जो गुंजाइश बनी थी उसका उसी समय पटाक्षेप हो गया था।
जब संबोधन में मुलायम ने नही लिया मायावती का नाम
इन प्रसंगों के बीच मुलायम सिंह पहले जब संबोधन के लिए खड़े हुए तो उन्होंने मायावती का नाम न लेकर आशंकाएं और ज्यादा गहरा दी। पर उनका भाषण जैसे ही आगे बढ़ा तो मायावती का अभिनंदन करके, उनका बहुत ज्यादा आदर करने की बात कहकर मुलायम सिंह ने मंजर ही बदल दिया।
इसके बाद न केवल अखिलेश बल्कि मायावती भी बेहद गदगद नजर आईं। मायावती ने भी अपने भाषण के अंत में परिपाटी को बदला। जय भीम के बाद उन्होंने किसी और का नाम पहली बार जय लोहिया कहकर लिया।
नरेंद्र मोदी की पिछड़ी पहचान पर जोरदार हमला
मायावती ने अपने भाषण में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पिछड़े होने के दावे को निशाने पर रखा। उन्होंने कहा कि नरेंद्र मोदी फर्जी पिछड़े हैं, वे जब गुजरात के मुख्यमंत्री नही थे तो अगड़ों में दर्ज थे बाद में मुख्यमंत्री होने पर सरकारी कागजों में हेराफेरी करके वे पिछड़ा बन गये।
लेकिन उनके कार्यकाल में अनुसूचितों के साथ-साथ पिछड़ों के सरकारी पदों को भरने में जिस तरह की कोताही बरती गई हैं उससे उनकी असलियत सामने आ गई है।
योगी आदित्यनाथ अंजाने में सबसे बड़े सहायक
मायावती अपने भाषण में पिछड़ा गर्व को उभारने में पूरी तरह कामयाब रहीं। भाजपा के रणनीतिकार इसका आंकलन करेगें क्योंकि धर्मभीरुता की वजह से पिछड़ों का भी एक बड़ा वर्ग भाजपा को समर्थन देता है। इस वर्ग में अगर सेंध लग जाये तो भाजपा को बड़ा नुकसान संभावित है।
गठबंधन के लिए योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने से इसकी बहुत अनुकूल स्थितियां तैयार हुईं हैं। योगी आदित्यनाथ ने जन्मजात योग्यता और क्षमता के सिद्धांत पर सर्व समावेशी प्रशासन की जरूरत को नजरअंदाज करके पद स्थापनायें की हैं।
इससे अनुसूचित जाति के साथ-साथ पिछड़े वर्ग के अधिकारी भी बरतरफ हो गये हैं। इसकी टीस पिछड़ा गर्व के जागृत होने से निश्चित तौर पर उभरेगी। सपा-बसपा की स्थिति दलित-पिछड़ा ध्रुवीकरण से मजबूती के साथ उभरते ही अल्पसंख्यक वोटर भी उनके लिए निर्णायक होने के आसार स्पष्ट हैं जो उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को मटियामेट कर देगा।
क्या इतिहास फिर दोहरा रहा है अपने को
1993 में जब सपा-बसपा गठबंधन बना था तो समझौता यह था कि मुलायम सिंह इसके चलते उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बनेगें तो केंद्र में प्रधानमंत्री बनने का अवसर वे कांशीराम को देगें। इतिहास अपने आप को फिर दोहरा रहा है भले ही अखिलेश नेताजी को भी प्रधानमंत्री बनाने की बात कह देते हों। लेकिन मैनपुरी के मंच पर उनकी शारीरिक स्थिति देखने के मददेनजर लगता नही है कि अखिलेश इसके के लिए बहुत कटिबद्ध हैं।
खुद मुलायम सिंह ने भी अपने को रेस से बाहर मान लिया है और मायावती का बहुत सम्मान करना यह कहकर उन्होंने सपा की लाइन तय कर दी है। एक बार फिर सूबे की बागडोर के लिए सपा और केंद्रीय सत्ता के लिए बसपा का समझौता मैनपुरी की रैली से सामने आया है।