न्यूज डेस्क
यादव वोटरों पर साथ न देने का आरोप लगा कर बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की राष्ट्रीय अध्यक्ष मायावती ने गठबंधन से किनारा कर लिया।लोकसभा चुनाव 2019 में बसपा यूपी में शून्य से 10 सीट पर पहुंचने वाली भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के बाद दूसरी सबसे बड़ी पार्टी है। इसके बाद भी मायावती का यह कहना कि गठबंधन का पूरा फायदा उन्हें नहीं मिला और उनका वोट बैंक ट्रांसफर हुआ।
इसका मतलब साफ है कि वह एससी-एसटी वोट बैंक को सहेज कर रखने में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती हैं। अपना वोट बैंक कहीं दूसरी पार्टी को न खिसक जाए इस बात के डर से मायावती को गठबंधन की राजनीति कभी रास नहीं आई।
लोकसभा में मायावती को फायदा हुआ है ये बात उनको भी पता है, जबकि समाजवादी पार्टी (सपा) को नुकसान चुकाना पड़ा है। फिर भी मायावती बार-बार अखिलेश यादव पर ये आरोप लगा रहीं हैं कि सपा सुप्रिमो यादव वोटों बीजेपी मे जाने से नहीं रोक पाए। हालांकि, आंकड़ों को देखे तो मायावती की ये बातें झूठी साबित होती हैं।
यूपी की जिन 10 सीटों पर बसपा को जीत मिली है, उनमें से छह सीटें ऐसी रहीं जहां सपा 2014 के चुनावों में दूसरे नंबर पर रही थी। हालांकि, बीजेपी को रोकने के लिए हुए गठबंधन के तहत यह छह सीटें बसपा के कोटे में गई। सपा कार्यकर्ता और अखिलेश यादव गठबंधन की सफलता के तहत इस ‘बलिदान’ के लिए भी तैयार हो गए। इसका मतलब यह है कि समाजवादियों का पूरा वोटबैंक बसपा को ट्रांसफर हुआ।
वेस्ट यूपी में अगर बात करें तो 2014 के आम चुनाव परिणामों में बिजनौर सीट पर बसपा के मलूक नागर बीजेपी और सपा के बाद तीसरे नंबर पर रहे थे। वहीं, नगीना सीट पर सपा के यशवीर सिंह दूसरे, जबकि बसपा के गिरीश चंद्रा तीसरे नंबर पर रहे थे। इस बार के लोकसभा चुनावों में बसपा के नागर और चंद्रा दोनों को ही जीत मिली। दोनों सीटों पर जाट, यादव और मुस्लिम मतदाताओं के वोट ने बसपा को सीट पर जीत दिला दी।
यही हाल अमरोहा, श्रावस्ती, लालगंज, गाजीपुर का भी रहा। यहां सपा ने पिछले चुनावों में बेहतर प्रदर्शन किया था, लेकिन इस बार गठबंधन का पूरा का पूरा वोट बहनजी के खाते में चला गया।
अब लोकसभा चुनावों में करारी हार के बाद बसपा चीफ मायावती ने विधानसभा के उपचुनावों में अकेले मैदान में उतरने का फैसला किया है। लोकसभा चुनाव के तुरंत बाद मायावती के समाजवादी पार्टी से अलग होने के इस फैसले ने सबको चौंकाया है।
यही वजह है कि राजनीतिक गलियारों में यह चर्चा अधिक तेज है कि क्या मायावती ने आय से अधिक संपत्ति से जुड़े केस में जांच के डर से यह फैसला लिया है? या फिर 2022 के विधानसभा चुनाव में खुद को मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में उभारने के लिए वह अब अकेले चुनावी मैदान में जाना चाहती हैं।