सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ को कवि, शैलीकार, कथा-साहित्य को एक महत्त्वपूर्ण मोड़ देने वाले कथाकार, निबंधकार, सम्पादक और अध्यापक के रूप में जाना जाता है। अज्ञेय ने कहानियां कम ही लिखीं और एक समय के बाद कहानी लिखना बिलकुल ही बंद कर दिया लेकिन हिन्दी कहानी को आधुनिकता की दिशा में एक नया और स्थायी मोड़ देने का श्रेय उन्हें ही जाता है। निस्संदेह वे आधुनिक साहित्य के एक शलाका( प्रसिद्ध) पुरुष थे। जिसने हिंदी साहित्य में भारतेंदु के बाद एक दूसरे आधुनिक युग का प्रवर्तन किया। हम आपको ‘अज्ञेय’ की कुछ कविताओं की पंक्तियां बता रहें हैं-
आंगन के पार द्वार खुले
आंगन के पार
द्वार खुले
द्वार के पार आंगन
भवन के ओर-छोर
सभी मिले-
उन्हींल में कहीं खो गया भवन,
कौन द्वारी
कौनी आगारी, न जाने,
पर द्वार के प्रतिहारी को
भीतर के देवता
किया बार-बार पा-लागन।
शब्द और सत्या
यह नहीं कि मैंने सत्या नहीं पाया था
यह नहीं कि मुझ को शब्दक अचानक कभी-कभी मिलता है
दोनों जब-तब सम्मुख आते ही रहते हैं।
प्रश्नज यही रहता है
दोनों जो अपने बीच एक दीवार बनाये रहते हैं
मैं कब, कैसे, उनके अनदेखे
उसमें सेंध लगा दूँ
या भर कर विस्फोटक
उसे उड़ा दूँ?
कवि जो होंगे हों, जो कुछ करते हैं करें,
प्रयोजन मेरा बस इतना है
ये दोनों जो
सदा एक-दूसरे से तन कर रहते हैं,
कब, कैसे, किस आलोक-स्फुरण में
इन्हें मिला दूँ –
दोनों जो हैं बन्धुल, सखा, चिर सहचर मेरे।
रात में गाँव
झींगुरों की लोरियाँ
सुला गयी थीं गाँव को,
झोंपड़े हिंडोलों-सी झुला रही हैं
धीमे-धीमे
उजली कपासी धूम-डोरियाँ।
पराजय है याद
भोर बेला- नदी तट की घंटियों का नाद।
चोट खा कर जग उठा सोया हुआ अवसाद।
नहीं, मुझको नहीं अपने दर्द का अभियान-
मानता हूँ मैं पराजय है तुम्हानरी याद!
खुल गयी नाव
खुल गयी नाव
घिर आयी संझा, सूरज
डूबा सागर-तीरे।
धुंधले पड़ते से जल-पंछी
भर धीरज से
मूक लगे मँडराने,
सूना तारा उगा
चमक कर
साथी लगा बुलाने।
तब फिर सिहरी हवा
लहरियाँ काँपी
तब फिर मूर्छित
व्यफथा विदा की
जागी धीरे-धीरे।
साँझ-सबेरे
रोज़-सबेरे मैं थोड़ा-सा में जी लेता हूँ?
क्योंधकि रोज़ शाम को मैं थोड़ा-सा भविष्यि में मर जाता हूँ।
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