राज कुमार सिंह
साल 2000 का एक दिन. लखनऊ का 5 विक्रमादित्य मार्ग का बंगला. जी हां तत्कालीन सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव जी का सरकारी आवास. इस बंगले में इस दिन सामान्य दिनों की अपेक्षा ज्यादा गहमागहमी थी. मुलायम सिंह के बेटे अखिलेश यादव आपनी राजनीतिक पारी शुरू करने जा रहे थे. वे कन्नौज लोकसभा उपचुनाव में पर्चा भरने जा रहे थे.
ये सीट उनके पिता मुलायम सिंह यादव ने उनके लिए खाली की थी. उन्हें पर्चा भराने ले जा रहे थे उनके एक खास अंकल. ये अंकल थे अमर सिंह. अखिलेश यादव जी के साथ टोयोटा क्वालिस में अमर सिंह जी उन्हें कन्नौज लेकर गए थे. इसी दिन पहली बार मैंने अमर सिंह को करीब से देखा था.
इसके बाद करीब बीस बरस तक मैंने अमर सिंह को बहुत करीब से राजनीति में उठते, चमकते, गिरते और डूबते देखा. जब मैं सहारा समय यूपी समाचार चैनल (2002 से 2007 तक) में था तो उनसे बहुत मिलना होता था.
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एक पत्रकार के तौर पर उनकी कई रैलियां कवर कीं. ज्यादातर हेलीकाप्टर से उनके साथ ही जाना होता था. चूंकि सहारा से उनके संबंध बहुत अच्छे थे इसलिए भी उनका कवरेज हमेशा होता था. ब्यूरो चीफ होने के चलते अमर सिंह जी और मुलायम सिंह जी का कवरेज ज्यादातर मैं ही करता था.
साल 2003 के अगस्त में यूपी में मायावती जी के नेतृत्व वाली बीएसपी और बीजेपी की मिलीजुली सरकार गिर गई. समाजवादी पार्टी के पास बहुमत से बहुत कम संख्या थी. मुलायम सिंह जी सरकार बनाने के बहुत इच्छुक भी नहीं थे. तब सपा की सरकार बनाने में अमर सिंह का बहुत बड़ा रोल रहा था.
ये अमर सिंह ही थे जिन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जी समेत बीजेपी के कई बड़े नेताओं को भरोसे में लेकर यूपी में सपा की सरकार बनाई थी. इस दौरान बीएसपी में जो ऐतिहासिक टूट हुई उसमें भी उनका ही बड़ा रोल था. बीएसपी नेता स्वर्गीय राजेंद्र सिंह राणा और मेरठ के नेता हाजी याकूब कुरैशी को आगे कर बीएसपी को चरणों में तोड़ा गया.
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साल 2003 से 2007 तक अमर सिंह की ताकत अपने उठान पर थी. समाजवादी पार्टी में बड़े बड़े नेताओं को उनके पैर छूते देखा. कई पुराने नेता उनके उत्थान से असहज हुए. इनमें जनेश्वर मिश्र, बेनी प्रसाद वर्मा, आजम खां, मोहन सिंह, भगवती सिंह, पारसनाथ यादव शामिल थे. लेकिन इसकी परवाह न अमर सिंह ने की न नेताजी ने. हालात ये हो गई थी कि यदि सपा में रहना है तो अमर सिंह को सहना है.
हां अमर सिंह ने इस दौरान सपा के युवा नेताओं को आगे बढ़ाया, खासतौर से क्षत्रिय वर्ग से. इस दौरान राजनीति, फिल्म, उद्योग, नौकरशाही और पत्रकारिता जगत की बड़ी बड़ी हस्तियां उनके सामने नतमस्तक थीं. विकास परिषद के अध्यक्ष के रूप में अनिल अंबानी, आदि गोदरेज, सहारा, लेंको समूह से लेकर तमाम उद्योगपति उनके बुलाने पर लखनऊ हाजिर होते थे.
फिल्म में अमिताभ बच्चन से उनका संबंध जगजाहिर था. नौकरशाही के तो कहने की क्या. नाम लेना ठीक नहीं कई अधिकारी रिटायर हो चुके हैं तो कई सेवा में हैं, इनको उनके सामने नतमस्तक देखा. पत्रकारिता में भी किसी का नाम न लेना ही ठीक रहेगा. इसी बीच उनकी एक आडियो सीडी भी आई जिसमें राजनीति, फिल्म और पत्रकारिता के तमाम किस्से खुले.
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साल 2004. लोकसभा चुनाव में करीब 40 सीट लाने के बावजूद सपा को केंद्रीय राजनीति में कांग्रेस ने भाव नहीं दिया. तब अमर सिंह ने बड़ी कोशिश की सोनिया गांधी जी के पास पहुंचने की. मुलायम सिंह जी को भी उन्होंने कांग्रेस के दरबार के करीब लाने की कोशिश की पर सफल नहीं हुए.
साल 2009 से अमर सिंह का ढलान शुरू हुआ. लोकसभा चुनाव के पहले तक तो वे खूब चढ़े हुए थे. यूपी में कांग्रेस से तालमेल के लिए उन्होंने कांग्रेस के सामने अपमानजनक प्रस्ताव रखा. बाद में कांग्रेस ने अकेले लड़ते हुए सर्वाधिक सीटें जीतीं. इसके बाद सपा में अखिलेश यादव जी का प्रभाव बढ़ना शुरू हुआ. अमर सिंह यहीं चूक गए. उन्हें लगता रहा कि जिस तरह से मुलायम सिंह सपा के दूसरे नेताओं की कीमत पर उन्हें तवज्जो देते रहे हैं वही आगे भी होता रहेगा. लेकिन अखिलेश जी के प्रादुर्भाव के बाद अमर सिंह किनारे होने लगे.
साल 2010 में उन्होंने अपने भाई अरविंद सिंह के जरिए पार्टी बनाकर पूर्वांचल में जमने की कोशिश की पर सफल नहीं हुए. 2010 में जब मैं बनारस में हिन्दुस्तान अखबार का स्थानीय संपादक था तब मिलने आए थे. अपने भाई को लेकर. उनकी बातचीत से लग गया था कि राजनीति का ये शेर अब ढलान पर है. बाद में नवभारत टाइम्स, लखनऊ में यूपी का राजनीतिक संपादक रहते मेरी उनसे फोन पर ही बात हुई.
अस्वस्थ होने के कारण उनका लखनऊ आना भी कम हो गया था. 2014 के बाद जब भी उनसे बात होती उनकी कोशिश ये जताने की रहती कि कैसे बीजेपी में उनके बड़े बड़े नेताओं से अच्छे और घरेलू संबंध हैं. वे ये जताना भी नहीं भूलते कि वे भले ही सपा में रहे हों पर हिन्दुत्व के मामले में किसी से कम नहीं हैं.
अमर सिंह के व्यक्तित्व में एक साथ दो बातें नोटिस होती थीं. वे राजनीति में एक बड़े मैनेजर तो थे ही लेकिन उसके साथ ही उनका राजपूताना अंदाज भी सामने रहता था. जब वे किसी से नाराज हो जाते तो खुल कर नाराजगी जताते.
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मसलन बीच में एक बार अपने सबसे करीबी कारपोरेट ग्रुप से नाराज हो गए तो उसके बड़े बड़े दिग्गजों से मिलना बंद कर दिया. सारी सुविधाएं वापस कर दीं. कई नेताओं और अधिकारियों ने भी उनका ये रूप देखा. अपने अंतिम कई वर्षों में अमर सिंह सत्ता के गलियारों में तो कमजोर हुए ही थे शारीरिक और मानसिक रूप से ढल गए थे.
अमर सिंह अपनी प्रेस कॉन्फ़्रेन्स में शेर ज़रूर कहते थे. अब जब अमर सिंह जी नहीं रहे. ऐसे में वक्त फिल्म की इन लाइनों के साथ उन्हें श्रद्धांजलि –
आदमी को चाहिए
वक़्त से डर कर रहे
कौन जाने किस घडी
वक़्त का बदले मिज़ाज
वक़्त से दिन और रात
वक़्त से कल और आज
वक़्त की हर शै गुलाम
वक़्त का हर शै पे राज.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है. आर्टिकल उनके फेसबुक वॉल से लिया गया है.)