न्यूज़ डेस्क।
मनुष्य जब कभी दुःख या किसी मुसीबत में होता है तो वह अक्सर इसके लिए ईश्वर या अन्य किसी व्यक्ति को दोषी ठहराने की कोशिश करता है। लेकिन वास्तिवकता यह है कि, भाग्य/दुर्भाग्य का निर्धारण स्वयं मनुष्य ही करता है।
दरअसल जिन्दगी में सबसे महत्वपूर्ण ‘चयन’ है, हम जो चुनते हैं वही हमारा भाग्य/दुर्भाग्य का कारण बनता है। इसी क्रम में आज महाभारत का एक किस्सा पढ़िए…
महाभारत में जब ये तय हो गया कि कौरव और पांडवों के बीच युद्ध होगा, तब अर्जुन और दुर्योधन श्रीकृष्ण से मदद मांगने द्वारिका गए। पहले दुर्योधन पहुंचा और उसके बाद अर्जुन। उस समय श्रीकृष्ण सो रहे थे। इसीलिए दोनों उनके जागने की प्रतिक्षा करने लगे। कुछ देर बाद श्रीकृष्ण ने आंखें खोली तो उन्होंने सबसे पहले अर्जुन को देखा, क्योंकि वह श्रीकृष्ण के पैरों के पास बैठा था। दुर्योधन पर श्रीकृष्ण की नजर नहीं पड़ी, क्योंकि वह सिर के पास खड़ा था।
अर्जुन ने श्रीकृष्ण से कहा कि वासुदेव मैं आपसे युद्ध के लिए मदद मांगने आया हूं। तभी दुर्योधन ने भी कहा कि कृष्ण मैं भी आया हूं और मैं अर्जुन से पहले यहां आपसे मदद मांगने आया हूं। इसीलिए पहले आपको मेरी मदद करनी होगी।
श्रीकृष्ण ने कहा कि पहले मैंने अर्जुन को देखा, लेकिन तुम यहां पहले आए हो। अब मुझे दोनों की ही मदद करनी होगी। अब मेरे पास तुम दोनों के लिए दो विकल्प हैं। एक तरफ मैं रहूंगा और दूसरी तरफ मेरी पूरी नारायणी सेना। तुम दोनों तय कर लो, किसे क्या चाहिए, लेकिन ध्यान रहे मैं युद्ध में शस्त्र नहीं उठाउंगा।
अर्जुन ने कहा कि मुझे तो आपका साथ चाहिए। ये सुनते ही दुर्योधन प्रसन्न हो गया, क्योंकि उसे नारायणी सेना चाहिए थी। उस समय नारायणी सेना सबसे घातक सेना मानी जाती थी। श्रीकृष्ण ने दोनों की इच्छा अनुसार मदद करने के लिए सहमति दे दी।
दुर्योधन ने कर दी गलती
इस प्रसंग में दुर्योधन ने सबसे बड़ी गलती कर दी। उसने श्रीकृष्ण को छोड़कर नारायणी सेना मांग ली। जब कि अर्जुन ने श्रीकृष्ण को मांगा। अर्जुन ये जानता था कि जहां भगवान होंगे जीत वहीं होगी। जबकि दुर्योधन ये बात समझ नहीं सका। युद्ध में समय-समय पर श्रीकृष्ण ने पांडवों की रक्षा की। दुर्योधन की इसी गलती की वजह से कौरवों की हार हुई।
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