- लेकिन भारत के सभी प्रदेशों में इनकी स्वीकार्यता पर सवाल भी!
यशोदा श्रीवास्तव
दिल्ली में प.बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी कांग्रेस सहित विपक्ष के तमाम नेताओं को अपने आंचल में जगह दे रही हैं।
जिन दलों के विस्थापित लोग टीएमसी ज्वाइन कर रहे हैं,उन दलों को शायद इसकी परवाह न हो लेकिन मंगलवार को पूरा दिन टीवी चैनलों पर एंकर और डीबेट में शामिल लोग कांग्रेस को बेजमीन और कमजोर साबित करने में पिले रहे।
बिहार से कांग्रेस के कीर्ति आजाद और हरियाणा से अशोक तंवर के टीएमसी में शामिल होने को लेकर टीवी पर बवाल मचा हुआ था।
इस बीच राजनीतिक खबरों और राजनीति के बनते बिगड़ते समीकरण पर पैनी नजर रखने वाले साहित्यकार मदनमोहन की टिप्पणी काबिले गौर है कि कांग्रेस छोड़ दूसरे दलों में जाने वाले मनीष तिवारी व सलमान खुर्शीद जैसे कांग्रेस में मौजूद सांसदों से लाख दर्जा अच्छे हैं जो किताबों के जरिए कांग्रेस को नुक्सान पंहुचाने पर अमादा हैं।
खैर! दिल्ली में मौजूद ममता बनर्जी के प.बंगाल के बाहर के प्रदेश के अन्य दलों के नेताओं के पार्टी में शामिल करने को लेकर तमाम तरह की चर्चाओं का बाजार गर्म है।
कोई इसे आसन्न पांच प्रदेशों के चुनाव में टीएमसी के लड़ने की कवायद बता रहा है तो कोई भाजपा के खिलाफ कांग्रेस के मुकाबले टीएमसी की मजबूत पेशबंदी बता रहा है।
टीएमसी के एक प्रवक्ता ने कहा भी कि कांग्रेस यदि विपक्ष की भूमिका के लायक होती तो उसके नेता पार्टी क्यों छोड़ते? हालांकि कीर्ति आजाद और अशोक तंवर या बनारस के ललितेशपति जैसे कांग्रेस नेता केंद्र सरकार के खिलाफ लड़ रहे राहुल और प्रियंका के साथ कभी नजर आए हों,ऐसा नजर नहीं आया।
लोकसभा चुनाव में अभी वक्त है और तब तक राजनीतिक परिदृष्य क्या होता है, इस पर अभी से कयास लगाने का खास मतलब नहीं है।
भारत के लोकतांत्रिक जनता का मूड जरा हटकर है और अलग अलग प्रदेशों में अलग अलग तरह का भी है,ऐसे में किसी एक प्रदेश की नेता पूरे देश में सर्वमान्य हो,यह तय कर लेना अचरज भरा है।
दरअसल आजकल देश की सबसे पुरानी और गऐ बीते हाल में अभी भी सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस पर चैतरफा हमला जारी है। जबकि इस सत्य से इनकार करना बेमानी है कि मोदी के पहले कार्यकाल से लेकर दूसरे कार्यकाल में यदि सत्तारूढ़ दल के प्रति बतौर विपक्ष कोई हमलावर है तो वह कांग्रेस ही है।
हां त्रिणमूल कांग्रेस की ममता दीदी को अलग कर देखें तो कहना मुश्किल है कि दूसरा कोई विपक्ष शायद ही केंद्र सरकार के खिलाफ मुंह खोल रहा हो लेकिन केंद्र सरकार पर ममता के हमले को राष्ट्रीय स्तर पर आकना बेमानी होगी।
यूपी में अखिलेश हों या मायावती दोनों ही डर डर के मुुंह खोलते हैं।वहीं राहुल गांधी, जिसे देश पप्पू के नाम से जान रहा है, सरकार के खिलाफ उनकी आक्रमकता में कोई मिलावट नहीं दिखती। मोदी सरकार को चेताने जैसे उनकी कई चेतावनयिों को केंद्र सरकार अमल करने पर मजबूर हुई।
उन्होंने खासकर कोरोना को लेकर जो कुछ कहा था सरकार की ओर से पहले उनकी जमकर आलोचना हुई, टीबी चैनलों पर झौं झौं हुआ फिर उसे अंततः अमल में लाना पड़ा।
किसान विल पर भी राहुल ने ही कहा था कि इसे सरकार को वापस लेना ही होगा। हैरत है कि कांग्रेस विरोधी पत्रकारों और टीवी एंकरों को विपक्ष की भूमिका में कांग्रेस नहीं दिख रही।
वे सोनभद्र से लेकर उन्नाव,हाथरस और खीरी लखीमपुर में कांग्रेस को नहीं देख पाते। यूपी के शहर शहर घूमती प्रियंका नहीं दिखती और न ही केंद्र सरकार के खिलाफ हमलावर राहुल ही दिखते हैं।
हाल ही मीडीया में यह खबर तेजी से फैली थी की मोदी से मुकाबले के लिए कांग्रेस को गैर भाजपा विपक्षी दलों के साथ आना चाहिए। उसे सहयोगी बनना पड़ेगा। खबर यह भी उड़ी कि ममता दीदी नहीं चाहती कि विपक्षी मोर्चे का नेतृत्व कांग्रेस करे।
कहा गया कि नेतृत्व शरद पवार करें। बात तो अच्छी है।कांग्रेस को इसके लिए बड़ा दिल दिखाना भी चाहिए लेकिन क्या उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम तक देश इसके लिए तैयार होगा? ममता हों या शरद पवार, 28 प्रदेशों वाले इस देश के कितने प्रदेशों में इनकी स्वीकार्यता है? कहने का तात्पर्य यह है कि महाराष्ट्र के अलावा भारत के और किन प्रदेशों में शरद पवार की एनसीपी और ममता दीदी की त्रिणमूल कांग्रेस हैं।
वेशक प. बंगाल में ममता तीसरी बार सरकार बनाने में कामयाब हुईं हैं। उनकी लड़ाई भी किसी ऐरे गैरे से नहीं बल्कि केंद्र की पूरी की पूरी मोदी सरकार से थी।
ममता दीदी ने उन्हें परास्त कर अपनी शेरनी की खिताब को बरकरार रखा, यह बड़ी बात है लेकिन यदि कांग्रेस जरा भी मजबूती से चुनाव लड़ी होती या फिर लेफ्ट अपना तेवर दिखाया होता तो क्या ममता की जीत मुश्किल नहीं होती? कहना न होगा कि उनकी जीत को आसान बनाने में लेफ्ट और कांग्रेस का ढीलापन भी कहीं न कहीं मददगार रहा।
निश्चित ही मौजूदा हुकूमत के खिलफ विपक्षी दलों का एक मजबूत मोर्चा बनना चाहिए लेकिन यह समझ से परे है कि मराठा क्षत्रप शरद पवार और पं. बंगाल की शेरनी ममता तय करें कि विपक्षी दलों का यदि कोई मोर्चा आकार लेता है तो उसका नेतृत्व कौन करे? बताने की जरूरत नहीं कि अपने अपने प्रदेशों के ये दोनों सूरमा पूर्व की बीजेपी सरकार के सहभागी रहे हैं।
मुमकिन हो कि कांग्रेस को भी विपक्षी मोर्चे के नेतृत्व मे दिलचस्पी न हो लेकिन उसे बिल्कुल नकारा साबित कर कथित विपक्षी मोर्चे का सहयोगी बनने के लिए मजबूर करना तो समझदारी नहीं है।
कांग्रेस यदि बीजेपी के खिलाफ बनने वाले किसी मोर्चे का हिस्सा न हो तो क्या बाकी विपक्षी दलों के मोर्चे का कोई मतलब रह जाएगा?
बेहतर होता विपक्षी दलों के बन रहे किसी मार्चे के नेतृत्व पर विचार करने से पहले नेतृत्व का सवाल कांग्रेस पर ही छोड़ देते या पहले एक होकर चुनाव लड़ते, भाजपा की वापसी पर विराम लगाने में सफल होते, फिर नेतृत्व पर चर्चा करते।
विपक्षी नेतृत्व की बात करने वाले एक बार देश के प्रदेशों में कांग्रेस की स्थित पर भी नजर डाल लेते। यूपी और अब प. बंगाल को छोड़ दें तो देश के अन्य प्रदेशों में सत्ता से बाहर रहकर भी कांग्रेस कीस्थित इतनी दयनीय भी नहीं है।
गौरतलब है जब जब गैर भाजपा विपक्षी दलों के एक मोर्चा बनने की बात उठेगी तब तब कांग्रेस के बाहर और भीतर कांग्रेस की खामियां गिनाए जाने का सिसिला और तेज होगा।
ऐसे लोगों की मंशा भाजपा के खिलाफ बन रहे संयुक्त विपक्ष के मोर्चा को मजबूत करना नहीं,कांग्रेस को कमजोर साबित करना है।
सवाल है कि क्या बिना कांग्रेस के कोई विपक्षी गठबंधन कामयाब होगा?वे लोग जो कभी बीजेपी या एनडीए सरकार के अंग रहे हैं,जनता इन पर भरोसा करेगी? कड़वा है पर सत्य है कि देश ऐसे किसी मोर्चा पर भरोसा करने वाला नहीं जिसका नेतृत्व गैर कांग्रेसी हाथ में हो।