कुमार भवेश चंद्र
महाराष्ट्र में तेज बदल रहे राजनीतिक घटनाक्रम में देश के बाकी हिस्सों की दिलचस्पी बनी हुई है तो उसकी वजह बहुत खास है। लोग बदलती हुई सियासत का नया जायका देखने, चखने और परखने के मूड में हैं। विचारधारा, भ्रष्टाचार और सियासत के इस घालमेल से जो रस निकलेगा, वही लोकतंत्र की नई चाशनी है। लोगों की नजर इसलिए भी महाराष्ट्र पर है, क्योंकि इस प्रदेश की सियासत ने नए प्रयोगों से इसे दिलचस्प बना दिया है।
गठबंधन बनाकर चुनाव लड़ने के बावजूद मुख्यमंत्री पद के लिए शिवसेना की जिद और फड़नवीस-अजीत पवार के गुपचुप शपथ से शुरू हुआ ये सियासी नाटक फिलहाल एक नए मोड़ पर है।
सुप्रीम कोर्ट के रुख से लेकर राज्यपाल की नैतिकता और विपरीत विचारधारा वाले तीन दलों शिवसेना-एनसीपी-कांग्रेस के मेल से सरकार बनाने की कोशिश के बीच बहुत कुछ दांव पर है। विचारधारा, संवैधानिक नैतिकता और भ्रष्टाचार से समझौता जैसे मुद्दे और भी मुखर होंगे और महाराष्ट्र की राजनीति में प्रासंगिकता बनाए रहेंगे। सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने जहां इसे नया सियासी मोड़ दिया है वहीं इसके आगे की सियासी परिस्थितियां बहुत कुछ राज्यपाल की भूमिका पर निर्भर है।
महाराष्ट्र की पहली चिंता है कि उसे एक स्थायी सरकार मिले। राज्यपाल की भूमिका इस चिंता के करीब होनी चाहिए। लेकिन विश्वास का संकट यहां भी है। बीजेपी ने एनसीपी के अजीत पवार पर भरोसा करके उसके साथ सरकार बनाने की पहल की लेकिन उसमें नाकाम रही। इस नाकामी का सेहरा निश्चित रूप से राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी के ऊपर भी इतिहास ने दर्ज कर लिया है।
अब देखना होगा कि राज्यपाल 162 का दम दिखाने वाले समूह पर कितना भरोसा करते हैं। और आखिर में बात तो तब बनेगी जब ये तीन दल एक दूसरे पर मजबूत भरोसा कायम रख पाएंगे। वैसे ये सियासी पहल अपने आप में अनोखा है। और ये कुछ उसी तरह का प्रयोग है जिसमें एक पक्ष कट्टर हिंदुत्व का संरक्षक है तो दूसरी ओर सेकुलर और मराठा पहचान को लेकर मुखर है। इन दलों के इस मेलजोल में अगर प्रदेश को सुशासन देने का जरा सा भी बोध दिखाई दिया तो ये नया गठबंधन सियासत का नया प्रयोग बनकर अगली सियासी संभावनाओं को जन्म दे सकता है। लेकिन फिलहाल किसी ऐसी सियासी संभावनाओं की भविष्यवाणी उतनी ही अविश्वसनीय है जितना कि अजीत पवार की आगे की सियासत।
महाराष्ट्र की सियासी परिस्थितियों को कर्नाटक से तुलना करने वालों को याद रखना चाहिए कि बिहार में इसी तर्ज पर बना गठजोड़ कई विरोधाभाषों के बावजूद सत्ता में बरकरार है। बीजेपी के साथ सरकार चलाने वाले नीतीश कुमार ने विचारधारा के सवाल पर उससे दूरी बनाई। पुराने दोस्त लालू यादव से पिछली कड़वाहट भुलाकर गठजोड़ किया। चुनाव लड़े, जीते भी। लेकिन आखिरकार भ्रष्टाचार के सवाल पर अलग होकर फिर से उनके साथ सरकार चला रहे हैं, जिनसे कभी विचारधारा के सवाल पर जुदा हुए थे। आज भी कई विरोधाभाषों के बावजूद वह बीजेपी के साथ बने हुए हैं।
जहां तक विचारधारा का सवाल है नीतीश की पार्टी जेडीयू 370 से लेकर कई और मसलों पर बीजेपी से इत्तफाक नहीं रखती लेकिन उन्होंने सियासत को यह राह भी दिखाई है कि इन सबके बावजूद सरकार चल सकती है और चलाई जा सकती है। अब देखना है कि शिवसेना-एनसीपी-कांग्रेस का गठबंधन अपने पूर्वाग्रहों या अपनी वोट पालिटिक्स को थोड़े समय के लिए अलग रहकर महाराष्ट्र के मूल सवालों पर कितना काम करते हैं। राज्यपाल यदि नए गठबंधन को सियासी मौका देते हैं तो उसका भविष्य इस बात पर अवश्य निर्भर होगा कि वे अपनी सियासी लाइन को कितना लचीला बना पाते हैं।
ये घटनाक्रम बीजेपी के केंद्रीय नेतृत्व के लिए भी एक बड़ा सबक साबित होगा। कर्नाटक समेत कई प्रदेशों में कामयाबी के बाद महाराष्ट्र का ये झटका उसके लिए बड़ा संदेश लेकर आया है। राज्य की सियासत में सधे हुए दखल ही उसकी सेहत के लिए बेहतर हैं, ये उसे अब समझ लेना होगा। वैसे भी हाल के विधानसभा चुनावों के नतीजे ने जो संकेत दिया है उसे पढ़ने की जरूरत है। विपक्ष की कमजोरी को अपनी ताकत समझ लेना उसकी नादानी हो सकती है। बीजेपी ने संगठन से लेकर सरकार तक में नए प्रयोगों से न केवल अपनी स्थिति मजबूत की है बल्कि नया मुकाम हासिल किया है। लेकिन बीजेपी के लिए अगले स्तर की चुनौतियां कुछ और है, ये उसे समय रहते ही समझ लेना होगा। लोकतंत्र का चाहे जितना हरण हो जाए, जनता की असली ताकत बनी रहती है। भ्रम को समर्थन समझने वाले जितनी जल्दी ये बात समझ जाएं, उतना ही अच्छा है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, लेख उनके निजी विचार हैं)
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