पंकज श्रीवास्तव
कुम्भ में तमाम श्रद्धालुओं की जान लेने वाले हादसे का एक कारण मीडया की आज़ादी पर लगी पाबंदी भी है। मुख्यधारा के टीवी चैनल और अख़बार इतज़ाम को लेकर मोदी-योगी की वाह-वाही में लगे रहे जबकि संगम पहुँचने के लिए जनता बेहद परेशान होती रही। हक़ीक़त सामने आ ही नहीं पायी।
हमने बतौर टीवी पत्रकार एक बार इलाहाबाद का अर्धकुम्भ और एक बार कुम्भ कवर किया है। हरिद्वार का कुम्भ भी कवर किया है। तब मीडिया का एकमात्र काम अव्यवस्थाओं की पोल खोलते हुए प्रशासन पर दबाव बनाना होता था। तमाम कमियों के उजागर होने से सरकार पर दबाव बनता था और वह स्थिति को बेहतर बनाने को मजबूर होती था।
संगम क्षेत्र में तीस पीपे के पुल बनाये गये हों, लेकिन ज़्यादातर वीआईपी मूवमेंट के लिए आरक्षित हों तो हादसा होना ही था। पर यह सवाल मीडिया उठाता तो उठाता कैसे? कुम्भ की व्यवस्था पर सवाल उठाने वालों को ‘धर्मद्रोही’ क़रार दे दिया जाता। वैसे मीडिया का मुँह विज्ञापनों से बंद तो कर ही दिया गया था और वह यूँ भी सत्ता के सामने लहालोट है। कुछ दिन पहले कुम्भ के कई कैंपों में आग लगी तो एक बड़े अख़बार की हेडलाइन थी- योगी सरकार की व्यवस्थाओं के चलते आग लगने से कम नुकसान हुआ! ज़ाहिर है, ऐसे अख़बारों को पढ़कर योगी जी मुदित थे। उन्हें हक़ीक़त पता भी कैसे चलती। हर तरफ़ बस ‘दिव्य-भव्य’ की पुकार थी।
ऐसी स्थिति में उन श्रद्धालुओं की तक़लीफ़ पर चर्चा कैसे होती जो कुम्भ में परेशान हो रहे थे। बात-बात पर गाली खाने वाले यूट्यूबरों के ज़रिए कभी-कभार उनकी तक़लीफ़ सामने आ रही थी जो बीसियों किलोमीटर पैदल चलने को मजबूर थे। ये श्रद्धालु खाने-पीने और रहने की व्यवस्था बेहद असंतोषजनक पा रहे थे। रात में खुले आकाश के नीचे ठिठुर रहे थे। पिछले दिनों गुजरात से आयी एक महिला रो-रो कर कह रही थी कि दोबारा कुम्भ नहीं आऊँगी। यह उन लोगों के लिए संदेश था जो देश के कोने-कोने में बैठे दिव्य कुम्भ में न जा पाने का अफ़सोस मना रहे थे। पर उस महिला की पीड़ा किसी मुख्यधारा के मीडिया में अनुपस्थित थी।
कुम्भ मेले का आयोजन सैकड़ों साल से हो रहा है। हर युग के शासक उसमें अपना सहयोग देते रहे हैं। लेकिन योगी के राज में ऐसा बताने की कोशिश हो रही है जैसे कि सबकुछ पहली बार हो रहा है। कुम्भ में भारी भीड़ का उमड़ना लोगों की श्रद्धा का नतीजा है। सरकार किस रंग की है, इससे कभी फ़र्क़ नहीं पड़ता। लेकिन इस आध्यात्मिक आयोजन को पूरी बेशर्मी से राजनीतिक अखाड़ा बनाने की कोशिश की गयी!
निजी राजनीतिक लाभ के लिए लोगों की आस्था दुहने वालों की कलई जो मीडिया खोल सकता था, उसका पिंडदान मोदीयुग की शुरुआत के साथ ही कर दिया गया है। ऐसे में संगम का प्रयागक्षेत्र हो या देश, भगदड़ हर जगह मचेगी। बच सको तो बच लो!
आज़ाद मीडिया की अनुपस्थिति सत्ता के लिए चाहे जितनी राहत की बात हो, जनता के लिए आफ़त ही लाती है। मीडिया की मौत यानी लोकतंत्र की मौत! चकमक मीडिया में जो स्वर्ग दिखता है, वह आपको अंतत: स्वर्गवासी ही बनाएगा!
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं , यह लेख उनकी फेसबुक वाल से लिया गया है)