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नवजात शिशुओं की मौत पर मौन क्यों एमपी सरकार

रूबी सरकार

उमरिया जिले के निशा चौधरी ने 26 नवम्बर को सुबह 9 बजकर 35 मिनट पर एक स्वस्थ शिशु को जन्म दिया। पति शंकरलाल चर्मकार ने यह खबर सारे रिश्तेदारों को दे दी। निशा-शंकरलाल की यह दूसरी संतान है। पहले संतान के रूप में उनके घर बेटी पैदा हुई थी, जो अब लगभग ढाई साल की है।

पूरा परिवार चाहता था, कि इस बार बेटा ही हो, और हुआ भी। लेकिन यह खुशी ज्यादा देर तक नहीं टिक सकी। क्योंकि कुछ ही घण्टे बाद उसको सांस लेने में तकलीफ महसूस होने लगी ।

उमरिया जिला अस्पताल के डॉक्टरों ने उसके परिजनों को तत्काल 78 किलोमीटर दूर शहडोल कुशाभाऊ ठाकरे जिला अस्पताल ले जाने को कह दिया। मजदूर और मजबूर शंकरलाल ने जैसे-तैसे जुगाड़ कर शिशु को लेकर शहडोल जिला अस्पताल लेकर शाम 7 बजे पहुंचे। शंकरलाल के बड़ा भाई सोहनलाल ने बताया, वहां इलाज के लिए शिशु को इंटर्न के हवाले कर दिया गया।

दो दिनों तक नवजात शिशु का गहन चिकित्सा इकाई में इलाज चलता रहा। परंतु दूसरे दिन रात को साढ़े 12 बजे शिशु को मृत घोषित कर दिया गया। सीएमएचओ डॉ राजेश पाण्डे ने शिशु को गंभीर हालत में अस्पताल लाये जाने की बात कहकर पल्ला झाड़ लिया। उधर शंकरलाल का परिवार अभी भी सदमे में हैं। उनका कहना है, कि गंभीर हालत में शिशु दो दिनों तक जिंदा कैसे रह सकता है।

शंकर का बड़ा भाई सोहनलाल इसे डॉक्टरों की लापरवाही मानते हैं, वो कहते हैं कि, 5 माह पहले उसने अपने बच्चे को खोया था। इसलिए अपने छोटे भाई के बच्चे के लिए पूरा परिवार सावधानी बरत रहे थे। सोहनलाल पल-पल डॉक्टरों के संपर्क में थे, लेकिन डॉक्टरों ने इसे सामान्य बीमारी मानकर इंटर्न के हवाले कर दिया। यही वजह है, कि शिशु ने दम तोड़ दिया।

सोहनलाल ने बताया, उमरिया में जिला अस्पताल के अलावा तीन सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र, 123 उप स्वास्थ्य केंद्र जो मात्र रेफरल सेंटर बन कर रह गये हैं। यहां एसएनसीयू जैसे संवदेनशील वार्ड में भी शिशुओं की संख्या नगण्य है।

साल भर में 0-28 दिन जो शिशु के अत्यंत अहम होते हैं, इतने दिन के औसतन एक हजार नवजात ही भर्ती होते हैं। इनमें से किसी की मौत हो जाए तो परिजनों के सिर लापरवाही का ठीकरा फोड़ दिया जाता है।

अपने बच्चे को खोने वाले शंकरलाल अकेले नहीं है, बल्कि इसी अस्पताल में इलाज के दौरान पिछले 12 दिनों में 18 नवजात शिशुओं ने दम तोड़ा है। संगीता और मथुरा प्रसाद बैगा ने तो तीन दिनों के भीतर अपने दो माह के जुड़वा शिशुओं को खो दिया। सिर्फ आदिवासी और अनुसूचित जाति ही नहीं बल्कि बघेल परिवार ने भी इसी दौरान अपने बच्चे का इसी अस्पताल में इलाज के दौरान खो दिया।

शहडोल जिला अस्पताल में पहली बार शिशु दम तोड़ रहे हैं, ऐसी बात नहीं है। इससे पूर्व साल 2020 के पहले ही माह की 14 व 15 तारीख को 6 शिशुओं की मौतों पर काफी हंगामा हुआ था। उस समय तत्कालीन मुख्यमंत्री कमलनाथ ने तुरंत सीएमएचओ को हटा दिया था। इस बार भी इन मौतों को गंभीरता से लेते हुए प्रदेश के मुखिया शिवराज सिंह चौहान ने इसकी जांच के आदेश दिए हैं।

उन्होंने आनन-फानन में अधिकारियों की बैठक बुलाई और कहा, कि यदि चिकित्सक या अस्पताल कर्मी दोषी पाये जाएं तो उन्हें दण्डित किया जाए। शिशुओं के इलाज में कहीं भी व्यावस्थाओं में कमी न आने दें। जरूरी हो तो चिकित्सा विशेषज्ञ भेजकर नवजात का इलाज कराया जाए। लेकिन कांग्रेसी नेता शहडोल से लेकर राजधानी भोपाल तक नवजात के मौतों को लेकर हंगामा कर रहे हैं।

कांग्रेस स्वास्थ्य मंत्री प्रभूराम चौधरी से इस्तीफा मांग रहे हैं। इस मुद्दे पर कांग्रेस शिवराज सिंह चौहान को घेरने की कोशिश कर रहे हैं। दोनों दलों भाजपा और कांग्रेस के बीच जुबानी जंग तेज हो गई है, जिसका लाभ सरकार के आला अधिकारी और कुपोषण माफिया उठाने में सफल हो जाते है ।

महिला और बाल विकास विभाग के आंकड़े बताते हैं, कि प्रदेश में एक अप्रैल से चार दिसम्बर के बीच आठ महीनों में 15 हजार 519 नवजात शिशुओं ने दम तोड़ा है। अकेले शहडोल जिला अस्पताल में 519, अनूपपुर जिला अस्पताल में 120, मण्डला में 61 दिन में 28 शिशुओं की मौत हुई है। इनमें से करीब 70 फीसदी बच्चों की मौत सरकारी अस्पताल में हुई है। डॉक्टर ज्यादातर मौत की वजह कम वजन बताते हैं।

इसके अलावा निमोनिया, दिमागी संकमण, जन्म के समय रो न पाने की वजह भी है। लगभग 69 फीसदी बच्चों की मौत सही समय पर इलाज न मिलने की वजह से हुई है। इसे आधार मानकर कांग्रेस का कहना है, कि भाजपा सरकार का रवैया इस घटना के प्रति उदासीन है और स्वास्थ्य विभाग के मंत्री प्रभूराम चौधरी डॉक्टरों के एजेंट बन उन्हें बचाने में लगे हैं। जबकि भाजपा डेढ़ साल पहले तत्कालीन कमलनाथ सरकार के दौरान इसी अस्पताल में 6 नवजात शिशुओं की मौत याद दिला रही है।

सामाजिक कार्यकर्ता संतोष द्विवेदी बताते हैं, कि इस संभाग में छोटे बच्चों की गंभीार हालत में एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल में ले जाने के लिए वेंटिलेटर वाली एंबुलेंस का अभाव है। नवजातों को एंबुलेंस से वेंटीलेटर सिस्टम में रखकर ले जाने के लिए सुविधा अपर्याप्त है।

यदि किसी सक्षम परिवार के घर शिशु को इस प्रकार की परेशानी होती है, तो वे पहले जबलपुर से वेंटीलेटर वाला एंबुलेंस बुलाते हैं, इसके बाद उसे लेकर जबलपुर के किसी निजी अस्पताल लेकर जाते हैं।

दूसरी तरफ इतनी मौतों के बाद भी व्यवस्थाएं नहीं सुधार रही है। आजादी के सात दशक बाद भी ग्रामीण अंचलों तक स्वास्थ्य सुविधाओं की पहुंच नहीं बन पायी है। शहडोल संभाग के अतिरिक्त लगभग इसी तरह की स्थिति झाबुआ, अलीराजपुर, बड़वानी, श्योपुर, शिवपुरी, बुंदेलखड इलाकों में भी है।

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दरअसल राजनेताओं को आरोप-प्रत्यारोप से अलग हटकर स्वास्थ्य सुविधाओं को दुरूस्त करने की दिशा शिवपुरी में काम करना चाहिए। क्योंकि इस तरह के मामले शांत होते ही नेता अन्य मुद्दों को उठाने लग जाते हैं। इस तरह फिर से यह मुद्दा पीछे छूट जाता है।

संतोष द्विवेदी का कहना है कि कोविड-19 के दौरान महिलाओं और बच्चों के पोषण पर कितना ध्यान दिया गया। क्या कोविड के दौरान गर्भवती माता को सही पोषण मिल पाया था। सबसे वंचित समाज कोविड के समय अपनी जरूरतों के लिए किस तरह संघर्ष कर रहे थे, इसी तरह मां के गर्भ में पल रहे शिशु पर इसका कितना असर पड़ा। इन सब बातों पर अध्ययन होना चाहिए। न कि एक-दूसरे पर आरोप -प्रत्यारोप।

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राजनेताओं की इस तरह की हरकत से संवेदनशील मुद्दे नहीं सुलझ पाते हैं। इसीलिए विपक्ष अपनी जिम्मेदारी समझते हुए इसे सुधारने की दिशा में काम करने के लिए सरकार को मजबूर करें।

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