Monday - 28 October 2024 - 10:43 PM

लाक डाउन में लखनवी चिकन : कोई उम्मीद बर नहीं आती

रफ़त फ़ातिमा

कोई उम्मीद बर नहीं आती
कोई सूरत नज़र नहीं आती

लखनऊ की अपनी एक अलग तहज़ीब है और इसके अपनी ख़ास सनअतें (उद्योग) हैं जिनमें दो प्रमुख हैं- जरदोज़ी और चिकन। इन हैंडीक्राफ़्ट के वजूद पर एक बड़ी आबादी और परिवारों की ज़िंदगी का दारोमदार है। इनकी अनेकों समस्याएँ हैं, जिनमें सबसे अहम है इनसे जुड़े कारीगरों का आर्थिक शोषण क्योंकि ये दोनों उद्योग असंगठित उद्योग की कैटेगरी में आते हैं।

यहाँ पेन्शन, बीमा या चिकित्सा सम्बन्धी सुविधा का कोई ज़िक्र ही नहीं है। इन परिवारों में अशिक्षा व्याप्त है। वह तो कहिये कि कुछ सामाजिक संगठनों ने इस दिशा में कुछ काम किया है जिससे महिला शिक्षा में कुछ प्रगति हुई है।

इन उद्योगों में सबसे ऊपर व्यापारी है जो प्राप्त मुनाफ़े का बहुत बड़ा भाग ‘डकार’ जाता है, एक नया गिरोह और आया है जो बूटीक चलाता है और डिज़ाइनर के नाम पर ख़ुद सारा मुनाफ़ा हड़प लेता है। एक तबक़ा है जिसे कारख़ानदार कहते हैं जिसके पास आम तौर से 4-20 कारीगर होते हैं इसके अलावा कुछ कारीगर स्वयं घर पर (परिवार के साथ) ‘काम’ तैयार करते हैं और मार्जिनल मूल्य पर कारख़ानदार को आपूर्ति करते हैं।

सरकार की तरफ़ से इन व्यवसाय से जुड़े कारीगरों को के लिये किसी भी प्रकार की राहत या कार्यक्रम जारी नहीं हुआ है, यह लोग बाज़ार और मुनाफ़ाख़ोरों के चुंगल में फँसे हैं और बदहाली की ज़िंदगी जीने पर मजबूर हैं।

इसी प्रकार का एक और हस्तकला है जिसे कामदानी या मुकेश कहते हैं, इसमें कारीगर स्तर पर अधिकतर महिलाएँ ही संलग्न हैं।

ज़रदोज़ी में लाभ का मार्जिन अधिक होने की वजह से बहुत सी NGO इनके बीच काम कर रहीं हैं और इस उद्योग को geographical Indication भी प्राप्त है, लेकिन तमाम फ़ायदा ऊपर वालों को ही मिल रहा है, कारीगर स्तर पर लोग हैंड टू माऊथ ही हैं। इस रोज़गार से जुड़ी नयी पीढ़ी के कारीगर अपने बुज़ुर्गो के हुनर के ज़रिए रोज़ी-रोटी के प्रबंध करने में नाकाफ़ी समझते हुए इस कारोबार से धीरे धीरे अलग होते जा रहे हैं।

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कुछ लोग मजबूरन दूसरे के ई रिक्शा चला रहे हैं तो कुछ लोग मजबूरी में मज़दूरी कर रहे हैं। अलबत्ता इनके लिये कथित तौर पर काम करने वाली NGOs के वारे न्यारे हैं।

Covid 19 संकट और लॉकडाउन ने लखनऊ को वैश्विक पहचान देने वाली इन सनतों से जुड़े लोगों ख़ासकर कारीगरों को भुखमरी की कगार पर खड़ा कर दिया है। पूरी दुनिया में चर्चित इन क्राफ़्ट्स की समस्याएँ अनगिनत हैं लेकिन प्रमुख यह है कि लॉकडाउन की वजह से इनकी माली हालत पर बुरा प्रभाव पड़ा हैं। आज इन्ही लाखों कारीगरों की घर में फ़ाक़ाकशी की नौबत आ रही

मेरी इस व्यवसाय से जुड़ी कुछ महिलाओं से बात हुई जिन्होंने आजकल की स्थिति से अवगत कराया।

शबाना (नाम बदला हुआ) कहती है कि वह कामदानी (मुकेश) और चिकन का काम करती है लेकिन आज कल काम बिल्कुल ना होने की वजह से पैसा नही मिल रहा और हम अपने घरो में राशन के लिए परेशान हैं इस काम से जो पैसा मिलता था हम लोग अपना परिवार का पेट पालते थे। लेकिन अब लोगों के आगे हाथ फैलाना पड़ रहा हैं।

इसी क्रम में चिकन का काम करने वाली ज़रीना (नाम बदला हुआ) ने अपनी व्यथा कुछ इस तरह बयान क़ी कि इस कारोबार पर पहले ही बहुत ज़्यादा कुछ नही मिल पा रहा अब रही सही कसर कोरोना और लॉकडाउन ने पूरी कर दी। ज़रीना sub-letting के तौर पर इस कारोबार से जुड़ी हैं जो ख़ुद काम उठा कर अन्य औरतों से बनवाती थी।लेकिन बंदी की वजह माल रखा हुआ हैं अब तक पैसा नही मिल पाया हैं।जिससे कारीगरों को आर्थिक परेशानी का सामना करना पड़ रहा हैं।

आज पहली ज़रूरत यह है कि इन तमाम रोज़गार से जुड़े कारीगरों को संगठित किया जाये, इनकी पेन्शन, चिकित्सा सुविधा आदि की व्यवस्था की जाये। दूसरे यह कि ऐसे कारीगर जो लाक्डाउन की वजह से आर्थिक रूप से परेशान हैं, तत्काल आर्थिक मदद पहुँचायी जाये, तीसरे यह कि घोषित आर्थिक पैकेज में इनके राहत की व्यवस्था का स्पष्ट विवरण हो, चौथे यह कि मेडिकल निर्देशों के अंतर्गत कारख़ाने खोलने की अनुमति दी जाये। अन्यथा की स्थिति में इन व्यवसाय से जुड़े कारीगर अवसाद का शिकार होकर किसी ग़लत राह पर ना चल पड़ें।

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(लेखिका आल इंडिया कांग्रेस, अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ की राष्ट्रीय संयोजक हैं)

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