न्यूज डेस्क
लखनऊ। तुमसे छुटता है मौला तुम्हारा, रोजेदारों कयामत के दिन हैं…। सोमवार की सुबह गमगीन माहौल में हसन मिर्जा का ताबूत (21 वीं रमजान का जुलूस) निकला, तो रोजेदारों के हाथ जियारत को बुलंद हो गए। भूखे-प्यासे अजादारों ने नम आंखों से शबीह-ए-मुबारक की जियारत कर आंसुओं का पुरसा पेश किया। जुलूस के आगे बढ़ते ही, सिर झुकाए अजादार नंगे पांव जुलूस के साथ-साथ हो चले। जुलूस के आगे-आगे मर्सियाखान मर्सिये पढ़ कर माहौल को गमगीन बना रहे थे। जुलूस अपने रवायती अन्दाज और रास्तों से होता हुआ कर्बला तालकटोरा में पहुंचकर सम्पन्न हुआ।
राजधानी के पुराने शहर में शिया समुदाय के पहले इमाम हजरत अली अ.स. की शहादत के गम में 21वीं रमजान को हसन मिर्जा का ताबूत (21वीं रमजान का जुलूस) जुलूस निकाला गया। जुलूस से पहले सआदतगंज स्थित शबीहे नजफ में कारी ताहिर जाफरी ने अजान दी और मौलाना जहीर अहमद इफ्तेखारी ने फज्र की नमाज अदा कराई। इसके बाद मौलाना मिर्जा मुहम्मद अशफाक ने मजलिस को खिताब कर मस्जिद में इमाम पर हुए कातिलाना हमले का दिलसोज मंजर बयां किया, जिसे सुन अजादारों की आंखें नम हो उठीं।
क्यों निकाला जाता है जुलूस
ऐसा कहा जाता है कि 1400 साल पहले इराक में स्थित मस्जिद-ए-कूफा में 19वीं रमजान के दिन सुबह की नमाज अदा करते समय दामाद-ए-पैगंबर हजरत अली पर तलवार से इब्ने मुलजिम ने हमला कर दिया था। हजरत अली के बेटे हसन और हुसैन उन्हें कम्बल (गिलीम) में लपेट कर मस्जिद से घर लाए थे। तीन दिन के बाद हजरत अली शहीद हो गए। इसके बाद से उनकी याद में 19वीं रमजान से जुलूस और मजलिसों का दौर शुरू होता है। शिया समुदाय हजरत अली की शहादत का गम 19 से 21 रमजान तक मनाते हैं। इस दौरान वो काले कपड़े पहनते हैं और किसी भी खुशी के माहोल में शरीक नहीं होते हैं। यह सिलसिला 21वीं रमजान को समाप्त होता है।