Monday - 28 October 2024 - 4:52 PM

नहीं समझी गई ये बात तो नुकसान सबका है

शबाहत हुसैन विजेता

नफ़रत नफ़रत और सिर्फ़ नफ़रत। कभी देश के नाम पर, कभी भाषा के नाम पर और कभी धर्म के नाम पर। नफ़रत के सामने इंसानियत के मायने खत्म हो जाते हैं। नफ़रत के सामने आपसी रिश्ते दम तोड़ने लगते हैं। जब पहनावे से पहचान होने लगती है। जब इबादतगाहें झगड़ों का सबब बनने लगती हैं। जब आदमी आदमी न रहकर वोटबैंक में बदल जाता है तब पानी महंगा और खून सस्ता हो जाता है।

हिन्दुस्तान में इन दिनों नफ़रत सर चढ़कर बोल रही है। जो देश विश्वगुरु बनने के रास्ते पर था वह इज़राइल और सीरिया बनने के रास्ते पर बढ़ चला है। हिन्दुस्तान के जिन उसूलों की रौशनी में दुनिया को ज़िन्दगी जीने का रास्ता नज़र आता था, वह रौशनी अचानक गुल होने लगी है। रास्ते अंधेरे में डूबने लगे हैं।

पिछले कुछ सालों में नफ़रत और सियासत में जिस तरह से गलबहियां हुई हैं उसने उम्मीद की किरणों के आगे दीवार उठा दी है। किसी भी समाज का आम आदमी जिस पर सबसे ज़्यादा भरोसा करता है उसे मीडिया कहते हैं। मीडिया को लोकतंत्र का चौथा खम्भा कहा गया।

लोकतंत्र का यह चौथा खम्भा हमेशा आम आदमी के साथ खड़ा रहा। वह सरकार के सामने मज़बूत विपक्ष की तरह सीना ताने रहा। वह सरकार की हर गलत बात पर सवाल उठाता रहा। आम आदमी की दबी कुचली आवाज को मुखर करता रहा लेकिन मौजूदा दौर में मीडिया दो खेमों में बंट गया। एक खेमा सत्ता के साथ और दूसरा खेमा सत्ता के खिलाफ।

मीडिया की खेमेबंदी हुई तो सियासत को खूब रास आई। सत्ता की गलतियां गिनाने वाला जब उन गलतियों के महिमामंडन में लग गया तो सत्ता ने भी उसके गले में अपनी बाहों का हार पहना दिया। विपक्ष के साथ खड़े मीडिया को कुचलने का काम शुरू कर दिया गया। सरकार का सच बताने वाले मीडिया संस्थान बन्द होने लगे। कलमकारों की रोजी रोटी छीनी जाने लगी। धीरे-धीरे मीडिया की सांसें छीनने का कारवां आज उस मुकाम पर खड़ा है जहां पर गलत सही हो चुका है और सही गलत हो चुका है।

यह समाज के मंथन का समय है। लोकतंत्र का चौथा खम्भा सत्ता के साथ खड़ा होता है तो समाज में कितनी तेज़ी से बंटवारा होता है यह सामने आ चुका है। अब तक मीडिया विपक्ष की भूमिका निभाता था। सरकार किसी की भी हो वह विपक्ष के रूप में होता था तो सरकार को उसकी खामियां याद दिलाता रहता था, राह भटकती सरकार को वक़्त रहते राह पर लाता रहता था लेकिन अब वह सरकार के पक्ष में खड़ा है तो सरकार की गलतियों का महिमामंडन करने में लगा है। इससे आम आदमी की आवाज़ दब गई है।

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आम आदमी की सुनवाई खत्म होने लगी है और सरकार निरंकुश होने लगी है। कल सरकार बदलेगी तो आज इस सरकार के गलत को सही बताने वाला नई सरकार के पक्ष में खड़ा हो जाएगा। नई सरकार भी बदले की सियासत करेगी और इस बदले को भी सही करार दिया जाएगा।

बदले की कार्रवाई, कमज़ोरों की अनदेखी, रोटी-कपड़ा और मकान के मुद्दे पर खामोशी, व्यापार पर रोज़ नये कर, बढ़ती महंगाई पर बातचीत बन्द, कानून व्यवस्था बिगड़े तो विपक्ष पर वार, दंगा हो तो विपक्ष ज़िम्मेदार, लाश का मज़हब देखने की पहल, दंगाई की पार्टी देखने का दौर जब-जब और जहां-जहां बढ़ेगा वहां नफ़रत की फसल उगेगी, लहलहायेगी और खून पानी से सस्ता हो जाएगा।

यह सत्ता के लिए भी आत्ममंथन का समय है। सरकार यह सोचे कि उसने अपने फायदे के लिए जो कलम खरीदे हैं, कल उन्हें कोई और खरीद लेगा। जो चीज़ बिकाऊ बनकर एक बार बाज़ार में आ जाती है वह बार-बार बिकती है। वह अपने मालिक की मंशा के हिसाब से चलती है।

यह कलमकारों के भी मंथन का समय है। वह यह समझें कि जब वह विपक्ष की भूमिका में थे तो भले ही उनके पास इतनी चकाचौंध न हो लेकिन उनके सम्मान की कितनी अथाह पूंजी थी। तब दंगे में, फसाद में कहीं भी वह निडर होकर चले जाते थे। तब उनके कैमरे नहीं छीने जाते थे, तब अनियंत्रित भीड़ उनका मज़हब नहीं पूछती थी। कभी कुछ नुकसान हो भी जाता था तो सरकार फौरन उसकी भरपाई कर देती थी लेकिन बदले वक़्त में उनकी इज़्ज़त कहाँ खो गई है क्या उसे ढूंढ पाएंगे।

बदले दौर का मीडिया धरना-प्रदर्शन में भी सुरक्षित नहीं रह गया है। दंगों के दौर में तो उनकी हालत सबसे दयनीय हो जाती है।

आम लोगों के लिये यह दौर इसलिए मंथन का है कि वह यह सोचें और समझें कि देशहित में कौन सही है और कौन गलत। यह तो आम आदमी ही तय करेगा कि देश कैसे सुरक्षित रहे। यह बात सबको माननी होगी कि देश सर्वोपरि है। देश है तो हम हैं। सरकार, विपक्ष, नौकरशाह, मीडिया, व्यापारी सभी देश को ध्यान में रखकर काम करते हैं।

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यह बहुत दुःखद है कि देश धरनों से जूझ रहा है, हर तरफ प्रदर्शन का शोर है, दंगा मामूली बात बन गया है। एक ही दिन में दर्जनों घरों के चिराग गुल हुए जा रहे हैं। सड़कों पर इंसानी खून बह रहा है लेकिन उस खून पर भी सियासत तेज़ है। इंसानी लाशें नालों में पड़ी हैं तो उन लाशों का धर्म तलाशा जा रहा है।

शिव ओम अम्बर ने कई दशक पहले लिखा था कि तुम कहीं हिन्दू कहीं मुस्लिम बने बैठे रहे, धर्म की चौपाल से सारा वतन जलता रहा। डॉ. उदय प्रताप सिंह ने भी लिखा था कि न इसका है न उसका है ये हिन्दुस्तान सबका है, नहीं समझी गई ये बात तो नुकसान सबका है, जहां नदियां समंदर में मिलें नदियां नहीं रहतीं, समंदर को बनाने में मगर योगदान सबका है।

सरकारें आएंगी जाएंगी लेकिन हिन्दुस्तान रहेगा। इस देश की पहचान ही विविधता में एकता की है। जो लोग पैसा लेकर गंगा-जमुनी तहजीब का मखौल उड़ा रहे हैं, वह भी यह बात बखूबी जानते हैं। ऐसे लोगों को इग्नोर करने की ज़रूरत है। देश सर्वोच्च है, देश सर्वोपरि है। इसके लिए हर बलिदान छोटा है। अभी भी वक़्त है कि संभल लिया जाए। फिर वक़्त नहीं रहेगा।

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