डॉ॰ श्रीश पाठक
पड़ोसी कहाँ अच्छे मिलते हैं लेकिन हमारे पड़ोसी गोस्वामी काफी मददगार पड़ोसी हैं। वे क्रिकेट के बेहद शौकीन हैं और मैच देखने के लिए छुट्टियाँ ले लेते हैं। उन्हें वैसे वर्ल्ड कप का बेसब्री से इंतजार होता है। कहते हैं कि यह शुद्ध मनोरंजन भी होता है। दूसरे पड़ोसी उनियाल साहब को फिल्मों का करारा शौक है और वे लगभग रोज एक फिल्म देखकर ही सोते हैं। उन्हें भी शुद्ध मनोरंजन चाहिए। ये दोनों मेरी राजनीति की रुचि पर लगभग हर मौके पर चुटकी लेते हैं।
मेरा खाली समय राजनीति की घटनाओं को देखने, सुनने और समझने में बीतता है। मैं उनसे कहता हूँ कि राजनीति को समझने से मेरा नागरिक होना पुष्ट होता है। वे दोनों कहते हैं कि यह भी शुद्ध मनोरंजन है। मुझे बुरा लगता है पर मै सोचने को मजबूर हो उठता हूँ।
एक मतदाता और दूसरा उम्मीदवार
चुनाव का मौसम है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतन्त्र का सबसे बड़ा मानवीय पर्व है। पाँच साल में कम से कम एक बार लोकतन्त्र अपने लोक को उसके हिसाब से तंत्र को चलाने वालों को चुनने का मौका देता है। हमें जैसा विकास चाहिए, जिस प्राथमिकता में चाहिए, वैसे उम्मीदवारों को चुनने का मौका मिलता है। चुनाव में दो महत्वपूर्ण लोग होते हैं। एक मतदाता और दूसरा उम्मीदवार।
उम्मीदवार की चिंता चुनाव जीतने की है और मतदाता की चिंता सबसे सही उम्मीदवार को मत देने की है। लेकिन अलग-अलग दलों की सरकारों ने आजादी के बाद जैसा माहौल बनाया है हम मतदाता चुनावों में सही उम्मीदवार चुनने की चिंता में होते ही नहीं। एक मतदाता के तौर पर हमारी चिंताएँ और उम्मीदवारों की चिंताएँ एक सी हो गई हैं।
ग्राहक की चिंता का, दुकानदार की चिंता से मेल होना खतरनाक है। ग्राहक यदि दुकानदार के फायदे का सोचेगा तो निश्चित ही अपना नुकसान करेगा। किसी एक खेल की तरह हम अपने पसंदीदा टीम, पसंदीदा खिलाड़ी या घोड़े के विजयी होने की चिंता में घुले जा रहे हैं। यही चीज चुनाव को मतदाताओं के लिए एक अनिवार्य और महत्वपूर्ण राजनीतिक आयोजन होने की बजाय इसे खालिस मनोरंजन बनाती है।
मतदाता सर्वाधिक निर्णायक इकाई
मनोरंजन की प्रक्रिया में बहुधा दर्शक एक पैसिव प्रतिभागी होता है जो खेल की प्रक्रिया का कोई भी भाग तय नहीं करता। लेकिन चुनाव कोई एक खेल जैसा मनोरंजन नहीं है, यहाँ मतदाता सर्वाधिक निर्णायक इकाई है बशर्ते वह शुद्ध समझदार वोटर हो न कि किसी दल का अंधा वोटबैंक ।
अब यदि हम वोट ही नहीं देने जाते और महज टीवी में राजनीति देखते रहते हैं, वोट देने जाते भी हैं तो बस एक वोटबैंक की तरह अपनी जाति, अपने धर्म के उम्मीदवार को वोट देकर आ जाते हैं और अखबार पढ़ते रहते हैं तो यकीनन राजनीति और चुनाव जैसी चीज को हमने एक शुद्ध मनोरंजन की तरह लेना शुरू कर दिया है। यह राजनीति से मतदाताओं की असीम निराशा से उपजी नकारात्मक दशा है।
मुद्दे नदारद
मतदाता को गहरे में पता है कि मौजूदा राजनीति से उसके जीवन में रत्ती भर का सुधार भी नहीं होना है तो कम से कम इस दबाव भरी ज़िंदगी में कुछ मनोरंजन ही हो जाए। कब लोकतन्त्र का महान पर्व चुनाव हम मतदाताओं के लिए महज एक शुद्ध मनोरंजन बन जाता है, एहसास ही नहीं होता। खोलकर देखिये टीवी पर होने वाली रोज़मर्रा की होने वाली राजनीतिक बहसें, उन बहसों के मुद्दे आपको वे मिलेंगे जिसमें किसी खास दल और उसके उम्मीदवारों के जीत और हार की चिंताएँ होंगी न कि नागरिकों के जीवन में सुधार लाने वाले बुनियादी मुद्दे। दलों के जोड़-तोड़, गठबंधन, टिकट बंटवारा, नाराजगी-दोस्ती के मुद्दों पर एंकर चीख रहे होंगे। बुनियादी मुद्दे, जिनसे नागरिक अगले पाँच सालों में दुनिया के किसी भी देश के मुक़ाबले प्रगति कर सकें, ऐसे मुद्दे नदारद होंगे।
अखबारों के संपादकीय पृष्ठों पर जो लेख छप रहे और जिन्हें पढ़ना आप में एक जिम्मेदार नागरिक होने का एहसास भरता होगा, ध्यान से देखिये उन लेखों का लेखक भी इस चुनाव के बारे में जिन मुद्दों पर लिख रहा होगा उनमें दलों की चिंताएँ आपको मिलेंगी न कि मतदाताओं की चिंता। वे लेखक भी दलों के आपसी खींचतान, गुणा-भाग, जातिगत समीकरण, आदि पर स्याही ख़रच रहे होंगे। टीवी पर दलों के चिंताओं के मुद्दों के बाद हर दस मिनट पर प्रचार आता है और अखबारों में बड़े-बड़े सरकारी विज्ञापन।
दलों का फायदा है जब वे ऐसे विश्लेषण देखते और पढ़ते हैं और इससे उन्हें रणनीतियाँ बनाने में सहूलियत मिलती है और पीत पत्रकारिता के युग में तो अखबारों और टीवी चैनलों पर मुद्दे ही वही बिखेरे जाते हैं जो दल चाहते हैं। ताकि असली जनता के मुद्दों पर प्रश्न ही न उठे, जो जमीनी काम की मांग करते हों।
जरा सोचिए जैसा संविधान चाहता है कि प्रत्येक मतदाता अपने-अपने संसदीय क्षेत्र से योग्य उम्मीदवार चुने और फिर यह चुने हुए 543 उम्मीदवार सदन में अपना नेता चुनें, यदि सचमुच मतदाता योग्यता के आधार पर उम्मीदवार चुनना शुरू करे, वह देखे कि किस उम्मीदवार की क्या प्रोफाइल है, किस उम्मीदवार के पास क्षेत्र के विकास के लिए क्या कार्ययोजना है, किसकी प्रोफाइल बेदाग है और किसका एक प्रतिष्ठित सामाजिक सेवा का रिकॉर्ड है तो एक-एक संसदीय क्षेत्र का चुनाव कितना मुश्किल होगा उम्मीदवारों के लिए। और इतने जागरूक मतदाताओं के होने से क्या सभी दलों के उम्मीदवारों और निर्दलीय प्रत्याशियों पर योग्यता और सही कार्यों के प्रदर्शन का जायज दबाव नहीं होगा? फिर जागरूक मतदाताओं का समूह किसी एक ही दल के लिए 543 सीटों में से सर्वाधिक सीटों पर चुनाव जीतना एक बेहद कठिन नहीं बना देगा? जागरूक मतदाताओं की उपस्थिति होने भर से फिर कोई टीवी चैनल, कोई अखबार, कोई पॉलिटिकल मैनेजर, नेताओं का कोई पॉलिटिकल स्टंट मतदाताओं को भेड़ बना अपना वोटबैंक नहीं बना सकेगा।
फिर चुनाव जीतने की एक ही सूरत होगी, योग्य उम्मीदवारी और बेहतरीन काम। क्षेत्र और देश का विकास फिर अकल्पनीय तेजी से दौड़ने लगेगा। टीवी, अखबार फिर जनता के मुद्दे मसलन बिजली, पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य, अवसंरचना विकास आदि और मौजूदा सरकारों के रिपोर्ट कार्ड पर बेखौफ बात करने लगेंगे । नेता अपने सार्वजनिक चरित्र में सुधार को मजबूर होंगे, दलों पर अपने क्षेत्रों के माननीयों पर काम करवाने का दबाव होगा।
इसके उलट अगर मै वोट देने नहीं निकलता, वोट देता भी हूँ तो एक वोटर की तरह नहीं बल्कि जाति, धर्म के आधार पर किसी दलविशेष के एक प्रतिबद्ध वोटबैंक की तरह वोट देता हूँ, जब मुझे दलहित और राष्ट्रहित में अंतर नहीं दिखता, जब मै अपने घर के स्टडी रूम में महज अखबार पढ़कर अपनी समाचार की तलब पूरा करता हूँ और टीवी चैनल देखकर राजनीति को एक करारे स्टार्टर के तौर पर इस्तेमाल कर रात का खाना खाता हूँ तो मै निश्चित ही राजनीति को एक शुद्ध मनोरंजन मानता हूँ।
मतदाता जब राजनीति को मनोरंजन मान लेता है तो नेताओं के लिए राजनीति बेहद आसान हो जाती है। जब नागरिक अपने नेताओ के लिए राजनीति आसान बना देते हैं, जब अध्यापक अपने विद्यार्थियों को सरल प्रश्नपत्र बनाकर उसे परीक्षा पूर्व ही आउट करा देते हैं और जब ग्राहक किसी एक ही दुकान का रेगुलर ग्राहक बन जाता है तो तंत्र ही लोक का दुश्मन बन जाता है और इसका जिम्मेदार कोई और नहीं वही जनता होती है जिसपर संविधान ने जनतंत्र की ज़िम्मेदारी दी होती है।
जरा आप भी देखिये कहीं आप भी हाथ में चाय की प्याली लिए, टीवी देखते हुए, अखबार पढ़ते हुए अपने-अपने घोड़ों पर मैदान से बेहद दूर रहकर किसी घुड़दौड़ पर महज एक दांव भर तो नहीं खेल रहे? यदि हाँ तो देश की सड़ती राजनीति के पहले कुसूरवार आप और हम हैं!
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं, लेख उनके निजी विचार हैं)