प्रीति सिंह
आईटी कंपनी में नौकरी करने वाली कल्पना जैन कहती हैं, “यह बेहद मुश्किल दौर है। घर से दफ्तर का काम करना पड़ता है। उसके बाद पति और दो बच्चों को समय पर खाना-पीना देना और हजार दूसरे काम। कामवाली आ नहीं रही है और पति घर के किसी काम को हाथ नहीं लगाते। लगता है पागल हो जाऊंगी।”
कल्पना इस मामले में अकेली नहीं हैं। देश की लाखों महिलाएं उनकी जैसी हालत से जूझ रही हैं। कामवाली के बिना खाना पकाना, साफ-सफाई और बच्चों की देख-रेख करना उनके लिए टेढ़ी खीर साबित हो रही है। पति से घर के काम में मदद मिल नहीं रही है।
अक्सर यह कहा जाता है कि त्योहार हो या छुट्टी, युद्ध हो या प्राकृतिक आपदा, महिलाएं सबसे ज्यादा प्रभावित होती हैं। इन पर काम का अतिरिक्त बोझ बढ़ जाता है। छुट्टी होती है तो पुरुष आराम करते हैं लेकिन महिलाओं के साथ ऐसा नहीं होता।
दुनिया के अधिकांश देशों में महामारी बनकर पहुंचे कोरोना वायरस की वजह से सबसे ज्यादा प्रभावित महिलाएं हैं। भारत में 21 दिन का लॉकडाउन है। सब कुछ बंद है। लोग घरों में बंद है। इस बंदी में सबकी अपनी-अपनी समस्या है। बच्चे बाहर खेलने को नहीं जा पा रहे हैं इसलिए परेशान हैं, आदमी में जिनके पास वर्क फ्रॉम होम हैं वह अपने काम में व्यस्त है और जो नहीं कर रहे हैं वह बोर हो रहे हैं, इसलिए परेशान है। बची महिलाएं तो उनके पास काम का अंबार है। उनके पास खुद के लिए वक्त नहीं बच रहा तो वह बोर कहां से होंगी।
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इस लॉकडाउन में लाखों की तादाद में नौकरीपेशा महिलाओं की समस्याएं दोगुनी हो गई हैं। अब उनको घर से काम करने के साथ ही घर का भी सारा काम संभालना पड़ रहा है। कोरोना वायरस के संक्रमण बढऩे के बाद महानगरों और शहरों की तमाम हाउसिंग सोसायटियों और कालोनियों में घरेलू काम करने वाली महिलाओं के प्रवेश पर पाबंदी लगा दी गई थी। इसकी वजह से महिलाओं को अब झाडू-पोंछा से लेकर कपड़े धोने तक के तमाम काम भी करने पड़ रहे हैं।
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आईटी में ही काम करने वाली शगुन पोद्दार कहती हैं, हमारे देश में महिला कितनी भी काबिल क्यों न हो, घर के काम के लिए उसकी तरफ ही देखा जाता है। पता नहीं कब यह सब खत्म होगा। वह कहती हैं, मेरे पति भी आईटी में है। हम दोनों घर से ही काम कर रहे हैं, लेकिन मेरे जिम्मे ऑफिस के काम के साथ-साथ घर और बच्चों का भी काम है। बीच-बीच में काम छोड़कर बच्चों और पति को खाना देती हूं। मजाल क्या है कि पति किसी काम को हाथ लगा दें। कुछ कहो तो एक ही जवाब, खुद आफिस का सिरदर्द ली हो तो झेलो।
डीएवी कॉलेज में समाजशास्त्र की एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. निरूपमा सिंह कहती हैं, मध्यवर्गीय समाज में पितृसत्तात्मक मानसिकता हावी होने की वजह से ऐसा माना जाता रहा है कि घर की साफ-सफाई, चूल्हा-चौका, बच्चों की देख-रेख और कपड़े धोने का काम महिलाओं का है, पुरुषों का नहीं। हालांकि अब कामकाजी दंपतियों के मामले में यह सोच बदल रही है. लेकिन अब भी ज्यादातर परिवारों में यही मानसिकता काम करती है। नतीजतन इस लंबे लॉकडाउन में ज्यादातर महिलाएं कामकाज के बोझ तले पिसने पर मजबूर हैं।
डॉ. सिंह कहती हैं, लॉकडाउन का एक लैंगिक पहलू भी है, पर अब तक इस ओर किसी का ध्यान नहीं गया है। अधिकांश घरों में महिलाओं और पुरुषों के बीच कामकाज का बंटवारा समान नहीं है। पति-पत्नी दोनों के घर से काम करने की स्थिति में भी पत्नी को अपेक्षाकृत ज्यादा बोझ उठाना पड़ता है। जो महिलाएं नौकरीपेशा नहीं हैं, उन पर भी दबाव दोगुना हो गया है। इसकी वजह है चौबीसों घंटे घर में रहने वाले पति और बच्चों की तीमारदारी।
अक्सर इस पर बहस होती है कि देश में महिलाएं पुरुषों से ज्यादा काम करती है, लेकिन इसके एवज में उन्हें पैसे नहीं मिलते हैं। 2015 में आर्गेनाइजेशन ऑफ इकोनॉमिक कोआपरेशन एंड डेवलपमेंट की ओर से किए गए एक सर्वेक्षण में भी कहा गया था कि भारतीय महिलाएं दूसरे देशों के मुकाबले रोजाना औसतन छह घंटे ज्यादा ऐसे काम करती हैं जिनके एवज में उनको पैसे नहीं मिलते। जबकि भारतीय पुरुष ऐसे कामों में एक घंटे से भी कम समय खर्च करते हैं।