नारी शब्द सुनते ही दो पहलु नज़र आते हैं
एक सिमटी चूल्हे में दूसरी चाँद तक जाती है
चाँद तक पहुँच गए हैं फिर भी अस्तित्व गुम है
कंधे से कन्धा मिलाया है फिर भी व्यक्तित्व गुम है
हँसे, खिलखिलाए तो समाज बंदिशों में बांधे
खुली फिजा है वो, पर सपने आज भी आधे
पर हैं उड़ने को, एक सिरा लेकिन बंधा है आज भी
उच्च शिखर पर जा पहुंची पर सर पर पल्ला आज भी
सदियों से स्त्री को परीक्षा की लौ में जलाया है
कभी सीता, तो कभी द्रौपदी बन समाज को बहलाया है
नारी को दुर्गा काली का रूप तो दे दिया
लेकिन प्रतिबिम्ब कुछ और दर्शाता है
आखिर भगवान भी तो कैदी बनकर
मंदिर में ही पूजा जाता है …
बस कह देना देवी माँ का रूप
औरत इन शब्दों की मोहताज नहीं
शीतल ठंडी छाया है नारी
चुभने वाला आफ़ताब नहीं
जुबान मेरे पास भी है इज्ज़त करती हूँ इसलिए मौन हूँ
बस प्यार की भाषा समझती हूँ बाकि नजाने कौन हूँ
निशब्द नही हूँ मैं अतः गरजने वाली बिजली हूँ
अगली चुनौतियों को थामे स्त्री वही पिछली हूँ
न रुकने वाली दौड़ हूँ ,मैं बढती हुई रफ़्तार हूँ
मैं कलेश अभिशाप नहीं बल्कि हर्षौल्लास का त्यौहार हूँ...