Monday - 28 October 2024 - 1:19 AM

सुन भाई रमज़ान भी यही है…

चंचल

जमुना बिन्नी को हम भी नहीं जानते थे, क्योंकि हमारे जानने का दायरा, दिल्ली की कुछ कुर्सियों, बम्बई के लिपे- पुते चेहरों, या लकड़ी के फट्टे से मार खाई एक गेंद के पीछे भागते मस्तंडों तक ही महदूद कर दिया गया है. हम कैसे जानेंगे जमुना-बिन्नी को ? हमको तो गहरी खाई के सामने खड़ा कर दिया गया है, कहा जा रहा है – “जानो मत, सवाल मत पूछो, बस मिटाओ”.

जमुना बिन्नी को हम भी नहीं जानते, क्योंक़ि हम दुनिया के सबसे बड़े जानकार हैं. अचानक किसी ने कान की ललरी पर सिटकी लगा कर ज़ोर से दबाया – “ हम तुम्हारे भगत सिंह, सुभाषचंद बोस, अज्ञेय, बिरजू महराज, राजेश खन्ना, गावस्कर को जानते हैं. तुम हमारे ( पूर्वोत्तर के सातों राज्यों ) के कितने लोगों को जानते हो ? यह थी जमुना बिन्नी जी. अरुणाचल प्रदेश में राजीव गांधी विश्वविद्यालय में हिंदी की प्रोफ़ेसर और कविता में महारत. अभी हाल में एक और बड़े अलंकरण से पुरस्कृत हुई हैं- “ तिलका माँझी पुरस्कार ”. कविता है – जब आदिवासी गाता है.

– तिलका माँझी ?

हम नहीं जानते, जब हम हैदर अली, टीपू सुल्तान, महाराजा रणजीत सिंह, राम किंकर, ऋत्विक घटक को नहीं जानते, किताबों से इनके पाठ हटा दिए गये तो आप हमसे तिलका माँझी के बारे में पूछ रहे हैं ?

एक गहरी साज़िश के तहत, हमें आत्मकेंद्रित किया जा रहा है, तुर्रा यह कि हम बेहद आत्म मुग्ध हुए, जयकारा कर रहे हैं.

रमज़ान मुबारक हो

– रमज़ान क्या है ?

– यह तो मुसलमानों का त्योहार है, हमसे क्या मतलब ?

– मुसलमान को कितना जानते हो ?

बरगद ठहाका लगाता है – किससे पूछते हो, क़ि वह मुसलमान को कितना जानता है? जब वह खुद अपने को नहीं जानता तो मुसलमान को कितना जानेगा ? इससे इंसानियत के मूल स्वरूप पर बात करो, इसकी ज़ुबान में.

“ गर्मी के तपते महीने में एक अभावग्रस्त इंसान चुपचाप सड़क किनारे धूप में बैठा है, कोई कुछ दे दे तो पेट की आग शांत हो ?”

सामने से गुजरने वाले अलग अलग मानसिकता के होंगे. अलहदा उनकी सोच होगी, लेकिन एक बात पर सब एक मत होंगे क़ि यह भिखारी है. इस पहली राय के बाद ही दूसरी कोई बात उठेगी. उस डगर से गुजरने वालों की एक सूची देखिए –

1- इन्हें न सड़क दिख रही है न वह – इन्हें अपना दम्भ और ग़ुरूर दिख रहा है. नाक पर रूमाल रख कर आगे बढ़ जायेंगे.

2- हाथ पाँव सलामत हैं, काम क्यों नहीं करते ? ये उपदेशक जी हैं, राजनीति में नहीं हैं लेकिन नेता बाबू के खर्चे पर सब्ज़ी ख़रीदते हैं. सरकारी गल्ला की दुकान पर क़तार बद्ध होकर.

“ मुफ़्त” वाला नमक और रिफ़ाइन उठाते हैं और जिसका नमक खाते हैं उसका हक़ मज़बूत करते हैं.

3- माफ़ करे उपरवाला ! यह दिन न दिखलाए ! मरजी उसकी कब क्या कर दे ? लो भाई और खीसे से कुछ निकाल कर इज्जत के साथ उसके हाथ पर रख दिया.

4- उसे देखा , उसमें खुद को पाया, हम भी इस हालात से गुज़रे हैं. चुपचाप जो कुछ था निकाल कर उसके सामने रख कर आगे बढ़ गया, बुदबुदाता गया – वक्त बदलता है मित्र !

– आप किस क़तार में हैं ?

भारतीय वांगमय इमदाद की बात करता है, दधीच, कर्ण, की कथा में वह ज़िंदा रखता है अपनी तहज़ीब. धूप बैठा रह गया है, तपती धूप में, बारिश में, ठंड में, संदेश देता है आत्म नियंत्रण, समय बोध. इंद्रियों की पिपासा पर नकले लगाओ उसे अंकुश में रखो. सारे सलीके एक हैं नाम अलग अलग हैं. सुन भाई ! रमज़ान भी यही है. अपने पर नियंत्रण और दूसरे की इमदाद. “ मुफ़्त “ विशेषण के साथ वाला इमदाद नहीं. रहीम वाला इमदाद –

देनदार कोउ और है, भेजत सो दिन रैन ।
लोग भरम हम पै धरें, याते नीचे नैन ॥

ओ अभाव में है उसकी इमदाद कर दो, चुपचाप. रमज़ान में इसे ज़कात कहते हैं.

स्वाभिमान और सलीका समाज देता है तब कर्ण दधीच, रहीम बुद्ध और गांधी पैदा होते हैं. स्वाभिमान स्व से ऊपर उठकर समष्टि तक जाता है. पाव भर चना और नमक के मुफ़्त (?) पर, दाता जब अपना नाम और चेहरा दिखाने लगे और समाज उससे उपकृत होने लगे तो वह समाज भिखमंगे पैदा कर सकता है, स्वाभिमानी नहीं.

बापू ने चुपचाप अपनी चादर, अभाव में खड़ी महिला की ओर बढ़ा दिया था, आँखें नीचे ही नहीं थीं नम भी थीं.

हम तो इंसानी सभ्यता को मुबारकबाद दे रहे हैं.

आत्म नियंत्रण और परहित है रमज़ान.

ज़कात में उतर कर देखिए, किसी का अभाव दूर करके आपको एक आंतरिक सुख मिलेगा. ज़कात की भाषा अलग हो सकती है लेकिन भारतीय उप महाद्वीप का गाँव इसी ज़कात पर ज़िंदा है.

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