उत्कर्ष सिन्हा
पहली बार में ये शीर्षक जरूर अटपटा लगेगा , मगर थोड़ी देर सोचने में क्या हर्ज है ।
आप कह सकते हैं कि भारतीय संविधान ने यह व्यवस्था दी है कि भारत में मतदान की प्रक्रिया के बाद चुने हुए लोग अगले 5 साल के लिए सरकार बनाएंगे और चलाएंगे। विपक्ष उनकी मनमानी पर नकेल कसेगा और चौथा खंभा कहा जाने वाला मीडिया सरकार की नीतियों और कार्यक्रमों का छिद्रान्वेषण करेगा । लोकतंत्र की मजबूती के लिए इससे अच्छा भला और क्या माडल हो सकता है ? और यही सत्य भी है ।
लेकिन बीते कुछ सालों से भारतीय लोकतंत्र क्या इसी दिशा में जा रहा है ? क्या चीजें वैसी ही हो रही है जैसा तय किया गया था । आप कहेंगे जरूर हो रही है। हमारा देश दुनिया के सबसे बड़े चुनावी उत्सव में समारोह पूर्वक हिस्सा लेता है और अपने वोट डालता है। लेकिन इसके बाद की कहानी बताते हुए थोड़ी हिचक आएगी क्यूंकी विपक्ष तो करीब करीब हाशिये पर ही है, सो वो नकेल कैसे कसेगा ? और फिर तीसरे बिन्दु पर ये हिचक और भी बढ़ जाएगी क्यूंकी तब बात मीडिया की भूमिका की है ।
लेकिन इन सबके बीच “राजनीति” कहीं गुम होने लगी है । “राजनीति” यानी राज करने की नीति क्या है ? जब आपसे ये सवाल किया जाएगा तो आपका जवाब यही होगा – वे नीतियाँ जो हमारे रोजमर्रा की ज़िंदगी पर असर डालती हैं, यानि आर्थिक व्यवस्था , सामाजिक अनुकूलता और सुरक्षा के साथ सम्मान से जीने की स्थिति ।
आखिर एक वोटर अपनी सरकार से और क्या चाहता है ?
अब जरा बीते कुछ सालों में होने वाले चुनावी उत्सव के पन्नों को पलट लीजिए । बीते कुछ समय से चुनावों के बीच ये सारे सवाल कितने महत्वपूर्ण रह गए हैं ये भी सोच कर देखना जरूरी है।
बात 2014 से शुरू की जाए, देश में चल रहे आम चुनावों का सबसे बड़ा मुद्दा था यूपीए सरकार का भ्रष्टाचार । भ्रष्टाचार पर रोक लगाने और विकास को गति देने के नारे के साथ भारतीय राजनीति के पटल पर नया नायक उभर था । जनता ने जम कर वोट दिया और नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री बने ।
एक के बाद एक राज्यों के चुनावों में भाजपा को लगातार मिलती जीत ने विपक्ष के हसले पस्त कर दिए । लेकिन इसके बाद से ही चीजें थोड़ी बदलने लगी । भ्रष्टाचार खत्म होने के शोर के बावजूद यह नहीं रुका , विकास के दावों के बावजूद सरकार की नीतियों ने देश के असंगठित क्षेत्र की अर्थ व्यवस्था को तबाह कर दिया। निवेश थम गया, व्यापार मंदा होने लगा और रोजगार के आँकड़े अचानक तेजी से नीचे गिरने लगे, 5 ट्रिलियन की इकॉनमी के दावों को गिरती जीडीपी मुंह चिढ़ाने लगी ।
दूसरी तरफ सामाजिक हालात भी उतने अच्छे नहीं रह गए, सांप्रदायिक नफरत की वजह से होने वाली हत्याओं में तेजी आई , भीड़ के हमले बढ़े , अल्पसंख्यकों में असुरक्षा बोध बढ़ा और उग्र सांप्रदायिक ताकतों की तेज होती बयानबाजी ने समाज के भीतर एक खिंचाव पैदा करना शुरू कर दिया है । अर्थव्यवस्था और , समाज दोनों टूटने लगे हैं ।
और इसबीच फिर से चुनावों का सिलसिला भी शुरू हो गया । हालात बदले हुए थे , चुनावी घोषणा पत्रों में लिखी गई बाते चुनावी दंगल के मंचों से गायब रही और उनकी जगह व्यक्तिगत आरोप प्रत्यारोप , सुरक्षा के काल्पनिक खतरों से डर पैदा किया जाने लगा और नेताओं की बहस का स्तर कितना गिरेगा उसकी होड लग गई ।
मुख्यधारा कहे जाने वाले मीडिया हाउसों की जबान भी बदल गई, खासकर टीवी चैनलों ने तो असल मुद्दों को हाशिये पर धकेलने में ठीक वैसी ही भूमिका निभाई जैसा किसी भी राजा के चारण करते हैं । आम जन के लिए जरूरी मुद्दों को पीछे धकेल कर बेवजह के मुद्दों ने प्राईंम टाईम पर जगह हड़प ली ।
अब जरा अपने चुने हुए प्रतिनिधियों की ओर देखें। रिपोर्ट्स बात रही हैं कि हमारे संसद और विधान सभाओं में करोड़पतियों की तदात बढ़ रही है। चुनाव के दौरान काम राजनीतिक कैडर काम और प्रतिदिन के हिसाब से भुगतान पाने वाला ज्यादा कर रहा है। चुनावों के खर्च कम करने के दावे हवा में हैं , काले धन का इस्तेमाल लगातार बढ़ रहा है ।
चुनावी खिलाड़ियों का मानना है कि 2 करोड़ से कम के खर्च में विधान सभा और 5 करोड़ से कम खर्च में लोकसभा का चुनाव लड़ना बहुत मुश्किल हो गया है ।
चुनावी दंगल के बीच स्थानीय बहस भी खत्म हो गई है । पार्टियों के केंद्रीयकृत एकतरफा संदेशों से सोशल मीडिया पट चुका है, और वहाँ भी बहस की गुंजाईश पेड ट्रोलस की वजह से कम ही हो चली है ।
इन सबके बीच जिस “राजनीति” के बारे में हमने ऊपर बात की थी वो मुद्दे चुनावी दंगल से लापता होने लगे और जब रोजगार, सम्मान, सुरक्षा चुनावी मुद्दे नहीं रह गए तो उसके हिसाब से सरकार के भविष्य का अंकलन करने वाले चुनावी पंडितों की भविष्यवाणीयां भी फेल होना ही था ।
अब चुनाव एक मैनेजमेंट है, ईवेंट है, इवेंट की सफलता के लिए प्रोपेगण्डा है, नेताओं के सर्कस का अखाड़ा है , चकल्लस है, मगर यदि इस पूरे मामले में अगर कुछ नहीं है तो वह है “राजनीति” ।
अब अगर “राजनीति” और उसपर की जाने वाली चर्चा ही चुनावों से गायब हो रही है तो फिर नतीजे उसके हिसाब से आएं भी तो कैसे ?