संदीप पाण्डेय
केन्द्रीय सरकार 2.0 के सालाना जश्न को मिली छूट के बीच जिंदगी का लॉकडाउन अब भी जारी है। वैसे भी लॉकडाउन नाम के इलाज के दौरान मरीजों की संख्या घटने के बजाए विस्फोटक तरीके से बढ़ी। तो अब थोड़ा टेस्ट कर लिया जाए।
4 घंटे की मोहल्लत में पूरे देश को बंद कर देने का फैसला 67 दिन बाद भी सड़क और ट्रेनों में भटक रहा है। 23 मार्च को मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह जी के शपथ लेने के अगले ही दिन 24 मार्च को जब लॉकडाउन किया गया । 2-3 दिन के भीतर ही मजदूरों में सरकार का भरोसा खत्म होने लगा।
मजदूर पैदल ही अपने डेरों से घरों की ओर लौटने लगे। पहले तो यूपी-हरियाणा-दिल्ली की सरकारों के बीच मजदूर चकरघिन्नी बन गए फिर धीरे धीरे पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तेलंगाना, तमिलनाडू में रह रहे करोड़ो प्रवासी मजदूर भी अपने गांव घर की ओर चल पड़े। न चाहते हुए भी दर्द से भरी तस्वीरें सामने आने लगी। महीना गुजर गया लेकिन मजदूरों का रेला खत्म नहीं हुआ तब मजबूरी में रेल चलाने की अनुमति देनी पड़ी।
आखिरकार महीने भर तक योजना बनाने के बाद ट्रेनें चली और खूब चलीं इतने मन से चलीं कि 40 श्रमिक ट्रेनों ने रेलवे के सिग्नल को ही धत्ता बता दिया। रेलवे ने कहा कि गोरखपुर जाओ, ट्रेनों ने कहा ना हम तो उडीसा जाएंगे। रोक के दिखाओ।
ट्रेनों की मनमर्जी के बीच यात्रियों के मौत भी खबरें आने लगी। अब भूखे प्यासे मजदूरों से 3-4 दिन का सफर भी नहीं किया जा सका। रेलवे का दावा है कि उसने खाने के पैकेट बांटे। इसके बाद भी अगर मजदूर मर गए तो बेचारी रेलवे क्या कर सकती है। आरपीएफ की रिपोर्ट के मुताबिक 9 मई से 27 मई के बीच 80 यात्रियों की मौत हुई।
खैर देर सबेर, भरपेट भूखे पेट, पैदल स्लीपर और हवाई जहाज के अनुभवों से गुजरते हुए जब मजदूर गांव पहुंचने लगे तो गांवों और जिलों में कोरोना पॉजिटिव मरीजों की संख्या बढ़ने लगी। जब निचले तबके में कोरोना नहीं फैला था तब उन्हे सरकारी नियंत्रण में घर भेज दिया गया होता तो क्या कोरोना इतने आंकड़ों को छू पाता ?
या फिर एयरपोर्ट पर ही सही से स्क्रीनिंग होती तो क्या तब भी यही तस्वीर सामने आती? सरकार ने कहा कि देश में कोरोना का एक भी मरीज मिलने से पहले ही स्क्रीनिंग शुरू हो गई थी। ठीक बात है। लेकिन एक आरटीआई के जवाब में डीजीसीए ने जो जवाब दिया उसके मुताबिक विदेश से आने वाले यात्रियों में से मात्र 19 फीसदी की ही स्क्रीनिंग हुई।
सरकार कहती है कि 30 जनवरी से पहले ही स्क्रीनिंग शुरू हो गई और आरटीआई के जवाब में डीजीसीए कहती है कि 15 जनवरी से शुरू हुई स्क्रीनिंग सिर्फ 7 एयरपोर्ट पर ही हो रही थी वो भी केवल चीन और हॉन्गकॉन्ग के यात्रियों की। आरटीआई को दिए जवाब में डीजीसीए बताती है कि 26 फरवरी तक इटली और यूरोप से आने वालों की कोई स्क्रीनिंग नहीं हुई। यूनिवर्सल स्क्रीनिंग 4 मार्च से शुरू हुई।
आरटीआई को मिले जवाब में डीजीसीए के मुताबिक 15 जनवरी से 18 मार्च तक कुल 78.4 लाख यात्री आए और 15,24,266 यात्रियों की स्क्रीनिंग हुई। यानी 19 फीसदी यात्रियों की ही स्क्रीनिंग हुई, 80 फीसदी की नहीं।
ये किसकी सोच हो सकती है कि कोरोना उनता ही फैलेगा जितना हम सोचेंगे। और परिस्थितियां भी उतनी ही बिगड़ेगी जिनती छूट देंगे। लॉकडाउन के दौरान जो करोड़ो मजदूर एक प्रदेश से दूसरे राज्य में जाकर दिहाड़ी मजदूरी करते हैं वो किन हालातों में रह पाएंगे?
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क्या इसके बारे में सरकार ने नहीं सोचा। और अगर सोचा था तो लॉकडाउन की घोषणा करते समय इन मजदूरों के लिए क्या संदेश दिया गया था? सरकार ने कोरोना से निपटने के लिए 21 दिन मांगे थे, 68 दिन बीत चुके हैं, हालात देखिए तो लग रहा है कि अभी काफी दिन ऐसे ही गुजरेंगे। और अब तो कोरोना के साथ ही जीने की आदत डालनी होगी टाइप फलसफा भी बताया जा चुका है। तो कोरोना के साथ जीना तो मजबूरी हो सकती है लेकिन क्या इस व्यवस्था के साथ जीना अभिशाप नहीं है? एक आपदा पिछले 6 सालों से लग रहे अच्छे दिन के नारों को हवा हवाई साबित नहीं कर रही है?
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं, यह उनके निजी विचार हैं)