सुरेन्द्र दूबे
आज हमें वर्ष 1986 में रिलीज हुई फिल्म ” नाम ” के एक मशहूर गाने की बड़ी याद आ रही है- चिट्ठी आई है वतन से चिट्ठी आई है।
ये गीत आनंद बक्शी ने लिखा था और इसे गाया था मशहूर गजल गायक पंकज उधास नें।
पूरे देश में जिस तरह प्रवासी मजदूर इस कोरोना महाकाल में अपने घरों को जाने व घर वालों से मिलने को तड़प रहे है उससे लगता है कि अनिष्ट की आशंका के भय से इनके घरों से चिट्ठियां आ गई है जिसमे लिखा है ” आ जा उमर बहुत है छोटी, अपने भी घर में है रोटी”।
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चिट्ठी लिखना लिखाना तो अब बीते जमाने की बात हो गयी। अब उसकी जगह मोबाइल ने ले ली है। न खत लिखने का झंझट और न डाकिये का इंतजार। प्रवासी मजदूर पिछले 45 दिन से घर जाने के लिए छटपटा रहा है। सब को टेलीफोन से चिट्ठी आ चुकी है। चिट्ठी लगातार आ रही है। चिट्ठी दुलरा के बुला रही है। बीवी अपना हाल बताकर बुला रही है। बाप एक बार देख लेने की आस से बुला रहा है। बेटा खेत खलिहान का हाल बता रहा है। सब को घर पहुंचने की जल्दी है, पर सरकार अपनी चाल में मस्त है।
कभी कहती है बस से भेजेगे, कभी कहती है रेल से भेजेंगे। मजदूर कह रहा है हुजूर हम पैदल ही चले जाएंगे। जाने तो दो, पर सरकार ऐसा कैसे करने दे। उसकी भी कोई इज्जत है बिरादरी मे। उसे मुंह भी तो दिखाना है।
मजदूर अपने सर पर गठरी बांधे और उसकी बीवी कांख में बच्चे को दबाए निकल पड़े हैं। बहुत दिनों तक बात ढकी छिपी रही, पर हाई-वे पर निकलते काफिले अब अंधों को भी दिखने लगे हैं। ये दृश्य मन को झकझोर देते हैं।
इनकी जेबें खाली हैं। खाने के लिए भोजन नहीं है। राह चलते लोग मदद भी कर रहे हैं, पर पैदल चलते चलते जांगर टूट गया है। तमाम लोग घर वालों को मोबाइल पर अपना हाल बताते बताते इस दुनियां से कूच कर चुके है। जो बचे है उनका कूच जारी है। इन्हें चिट्ठियां बुला रही हैं।
चिट्ठियां आती जा रही है। किसी चिट्ठी में लिखा है ” मैं तो बाप हूँ मेरा क्या है, तेरी मां का हाल बुरा है”। बेटा जवाब देता है ” बाबू सिर्फ 200 किलो मीटर बचा है। परसों तक पहुच जईबे”।
इतना कह कर मोबाइल जेब में रखता है। आसमान की ओर निहारता है और फिर तेजी से चल पड़ता है। किसका इंतजार करे। किससे आस करे। न रेल उसकी है न बस उसके बस में है। पर अपने शरीर पर भरोसा कर सकता है। इसलिए चलता जा रहा है।
सरकार को गीता का ज्ञान प्राप्त हो गया है। न वह कर्ता है और न भरता। वह सिर्फ दृष्टा है इसलिये टुकुर-टुकुर निहार रही है। भगवान कृष्ण भी सोच रहे होंगे कि उन्होंने ऐसा ज्ञान दिया ही क्यों जिसके कारण अपने ही देश में मजदूर शरणार्थी हो गये हैं।
कुछ सरकारें तो अब इन मजदूरों को घर जाने ही नहीं देना चाहती। काम काज फिर से शुरू करना है। सरकार दबाव में है। मजदूरों का दबाव तो झेल गए पर धन्ना सेठों को तो नाराज नहीं कर सकते। कुछ जुगत सोच रही है। कुछ को भिजवा रही है।
कुछ को समझा रही है तो कुछ को भरमा रही है। सरकार बड़े-बड़े इवेंट मैनेज कर लेती है। इसे भी मैनेज कर लेगी। फिलहाल तो वह विदेश से मजदूरों को लाने के लिए हवाई जहाज मैनेज करने में लगी है। विदेश में छवि खराब नहीं होनी चाहिये।
घर से अपने घरों को निकल चुके इन मजदूरों का क्या होगा। इनको मिल रही चिट्ठियों का क्या होगा। जिन चिट्ठियों का ये जवाब दे चुके है,उनका क्या होगा। चिट्ठियां उड़-उड़ कर आ रही हैं। उलाहने सुना रहीं हैं। लोगों को डरा रही हैं। एक आखिरी चिट्ठी आई है। इसे, भी आपकों सुना देते हैं…
तूने पैसा बहुत कमाया, इस पैसे ने देस छुड़ाया।
देस पराया छोड़ के आजा, पंछी पिंजरा तोड़ के आ जा।।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
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