आपदा काल में मालविका हरिओम लगातार मजबूरों के दर्द को गज़लों की शक्ल में सामने ला रही हैं । अपनी गज़लों के जरिए वे मानवीय संवेदना को झकझोर रही हैं। बतौर शायर मालविका ने इस वक्त के हालात पर काफी कुछ लिखा है । उनकी ये ताजा गजलें पढिए ।
संकट काल में संवेदनाएं झकझोरती है और कलमकार उसे अल्फ़ाज़ की शक्ल में परोस देता है । ये वक्त साहित्य रचता है और ऐसे वक्त के साहित्य को बचा कर रखना भी जरूरी है। जुबिली पोस्ट ऐसे रचनाकारों की रचनाएं आपको नियमित रूप से प्रस्तुत करता रहेगा ।
मालविका हरिओम
1
ग़रीबी भूख लाचारी से गलते जा रहे हैं सब
हमारे देश के मज़दूर चलते जा रहे हैं सब
लिए माँ-बाप की धुँधली-सी इक तस्वीर आँखों में
मुसल्सल भीगती आँखों को मलते जा रहे हैं सब
वो पोखर ताल झूले खेत छप्पर बाग़ अमराई
ख़यालों से हक़ीक़त में बदलते जा रहे हैं सब
छला सत्ता ने जिनको और पूँजीवाद ने लूटा
वही बेख़ौफ़ से सायों में ढलते जा रहे हैं सब
इन्हें मालूम है अपनी लड़ाई ख़ुद ही लड़नी है
तभी सड़कों पे गिरते और सँभलते जा रहे हैं सब
2
जहाँ बारिश ज़रूरी है वहाँ बादल नहीं जाता
ये कलियुग है यहाँ भूखा कभी रोटी नहीं पाता
बनाता है जो सबके आशियाँ वो ख़ुद ही बेघर है
किसी मज़दूर के हिस्से में छप्पर क्यों नहीं आता
दवा दे दो दुआ दे दो भले उसको सज़ा दे दो
जो घर के वास्ते निकला हो वो फिर रुक नहीं पाता
मुक़द्दर में उसी के मुफ़लिसी तकलीफ़ लाचारी
जिसे औरों को मीठी बात से छलना नहीं आता
जो ख़ुद जूता बनाता है उसी के पाँव में पन्नी
ये निर्मम रूप पूँजीवाद का देखा नहीं जाता
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