संदीप के. पांडेय
ऐसा क्या हुआ कि देश का सबसे बड़ा वोटबैंक रहनुमाई के नाम पर राजनीतिक अछूत बन गया? जब भी चुनावों में मुसलमानों को टिकट देने की बात आती है तो ज्यादातर लोगों के निशाने पर बीजेपी ही रहती है। बीजेपी के उम्मीदवारों की सूची इसका प्रमाण भी देती रही है। अगर धारणा की बात करे तो ये कहने में मुझे कोई संकोच नहीं की खुद मुसलमान भी बीजपी को अपना विरोधी ही मानते हैं।
लेकिन उन दलों का क्या जो खुद को मुसलमानों का सबसे बड़ा हितैषी साबित करते रहे हैं। क्या वो दल मुसलमानों को उनके वोट के बदले नेतृत्व का कोटा दे रहें हैं?
2011 के धार्मिक जनगणना के मुताबिक देश की कुल आबादी में मुसलमानों की हिस्सेदारी 14 फीसदी है। और अगर बात उत्तर प्रदेश की हो तो यहां की आबादी में मुसलमानों की हिस्सेदारी 19 फीसदी हो जाती है। इस लिहाज से देंखे तो देश में सबसे ज्यादा मुसलमान यूपी के अन्दर रह रहे हैं।
यूपी की सियासत में मुसलमान कितने अहम हैं ये उनकी तादाद यानी वोट से पता चलता है। 1990 तक मुसलमानों को कांग्रेस का परंपरागत वोटर माना जाता था, लेकिन राम मंदिर आंदोलन के बाद मुसलमान कांग्रेस से बिदक गए। यही वो दौर था जब यूपी और बिहार में क्षेत्रीय दलों ने अकार लेना शुरू किया था। नतीजा ये हुआ बीजेपी को छोड़ बाकी सभी दल मुसलमानों को अपने पाले में करने के लिए पैंतरे चलने लगे। 1990 में जिस तेजी से राजनीतिक और सामाजिक घटनाक्रम बदल रहे थे उसी तेजी से सियासी समीकरण भी साधे जा रहे थे।
30 अक्टूबर और 2 नवंबर 1990 को अयोध्या में कारसेवकों पर गोली चलाने का आदेश देकर चंद घंटों में ही यूपी के तत्कालीन सीएम मुलायम सिंह यादव मुसलमानों के हीरो बन गए। यहां तक की हिंदुवादियो ने उन्हे ‘मुल्ला मुलायम’ के नाम से पुकारना शुरु कर दिया। उधर बिहार में भी 23 अक्टूबर 1990 को रथयात्रा के दौरान समस्तीपुर में लालकृष्ण आडवाणी को गिरफ्तार करवा कर तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद भी मुसलमानों के मसीहा बन गए।
इसके बाद यूपी के मुसलमान, समाजवादी पार्टी के साथ स्थाई रूप से जुड़ गए तो बिहार में मुसलमानों ने लालू प्रसाद को अपना नेता मान लिया। इन दोनों सियासी दलों और मुसलमानों की दोस्ती परवान चढ़ती रही। आने वाले 2 दशकों तक समाजवादी पार्टी ने मुसलमानों को लेकर किसी भी मंच से कभी भी कोई हिचक नहीं दिखाई।
इस राजनीति ने 2014 के बाद करवट ली। नरेन्द्र मोदी का पीएम बनना देश की राजनीति को एक नई दिशा देने वाला साबित हुआ। आतंकवाद, पाकिस्तान, वंदे मातरम, खतरे में लोकतंत्र, घुसपैठ, राष्ट्रवाद, सामाजिक विद्वेष जैसे मुद्दे समाज और राजनीति में उभर कर सामने आए। बिलकुल इसी समय ये महसूस किया जाने लगा कि पहली बार समाजवादी पार्टी हो या आरजेडी इन्होने मुस्लिम वोटों से तो परहेज नहीं किया लेकिन सार्वजनिक मंचों से खुद को मुसलमानों का पैरवीकार बताने में संकोच जरुर करने लगे।
अब 2019 के लोकसभा चुनाव को ही देखिए
यूपी में सपा और बसपा के गठबंधन को क्रांतिकारी घटना माना गया। इसके साथ ही इस बात की चर्चा भी होने लगी कि यूपी में मुसलमान गठबंधन का साथ देगा ताकि नरेन्द्र मोदी को रोका जा सके। यहां जो एक बात खटकने वाली थी वो ये कि इस बार सपा और बसपा ने मुसलमानों को टिकट देने में कंजूसी क्यों दिखाई?
बसपा ने अपने कोटे की 38 सीटों में से सिर्फ 6 टिकट मुसलमानों को दिया तो वहीं सपा ने 4 सीटों पर मुस्लिम उम्मीदवार उतारा। अगर दोनों को मिला दें तो 75 सीटों में इन दोनों दलों ने मुसलमानों को सिर्फ 10 टिकट दिए। जबकि 2014 में बसपा ने 19 टिकट दिए थे, और सपा ने 14, इन दोनों का योग करें तो 2014 में दोनों ने मिलकर कुल 33 मुस्लिम उम्मीदवार उतारे थे।
मुसलमानों के पैरवीकार होने का खुला दावा करने वाली समाजवादी पार्टी पहले कभी इतनी डरी हुई दिखाई नहीं दी। ये डर इस बात का तो नहीं है कि कहीं मुसलमानों को ज्यादा टिकट दिया तो उनके हिंदू वोटर उनसे कट सकते हैं? यही डर बसपा में भी दिखाई दे रहा है और उन सभी दलों में जो अबतक अलग से मुस्लिम हिमायती दिखने की कोशिश करते थे।
पिछले 3 दशक में पूरी दुनिया में जिस तरह से दक्षिणपंथ का उभार हुआ है कहीं ये उसी का परिणाम तो नहीं कि ‘तरफदारों’ को मुसलमानों का वोट तो चाहिए लेकिन मुस्लिम रहनुमा नहीं। गाहे बगाहे ये बात भी उठती रही है कि देश में मुसलमानों का कोई मुस्लिम नेता क्यों नहीं है, जो संसद में उनकी अलग से आवाज उठाए, उनके हिमायत की अलग से बात करे। इसके जवाब में एक तबके का कहना है कि एक बार मुसलमानों को मो. जिन्ना के नाम का उनका नेता मिला था जिसने अलग से आवाज उठाई, अलग से मुद्दे उठाए और अलग मुल्क का सिद्धांत दिया।
इन दलों के बरअक्स प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी हर मंच से सबका साथ सबका विकास का नारा उछालते हैं और वो इसके प्रमाण में अपनी योजनाओं का हवाला देते हैं जिसमें बिना भेदभाद, बिना जाति-धर्म देखे सबको लाभ पहुंचाए जाने की बात कही जाती है। यानी इतना तो तय है कि बीजेपी मुस्लिमों को अलग से कुछ भी देने की हिमायती नहीं है। बीजेपी नेता गिरिराज सिंह सवाल पूछते हैं कि बीजेपी सरकार की योजनाओं का लाभ लेने वाले मुस्लिम क्यों बीजपी से नफरत करते हैं?
क्या ये ‘अलग’ से मिलने वाली सुविधा ही तो इस पूरे सियासत की जननी नहीं है?
(लेखक स्वतंत्र लेखक और टीवी पत्रकार हैं )