शबाहत हुसैन विजेता
कमज़ोर तबके पर पुलिस ज़ोर आज़माइश करती है तो रहम को किनारे रख देती है। उसके हाथ में लाठी आ जाये तो सामने बूढ़ा हो, बच्चा हो या औरत कोई फर्क नहीं पड़ता। मौका पाते ही ज़ुल्म की हदों को पार कर जाती है पुलिस। वह फेहरिस्त बहुत लम्बी है जिसमें पूछताछ के लिए थाने बुलाए गए लोग वापस अपने घरों पर नहीं लौटे।
वाहन चेकिंग के नाम पर किसी भी इज़्ज़तदार के मुंह पर तमाचा रसीद कर देना पुलिस के लिए बिल्कुल आम बात है। उत्तर प्रदेश विधानसभा के सामने 13 साल तक धरना देने वाली कटोरी देवी पर पुलिस ने इतने ज़ुल्म किये कि वह वर्दी वालों को देखते ही हाथ में चप्पल उठा लेती थी और तब तक चिल्लाती रहती थी जब तक कि पुलिस वाला आंखों से ओझल न हो जाये। कटोरी देवी इंसाफ मांगने के लिए धरना देते-देते गिनीज़ बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड का हिस्सा बन गई लेकिन इस दौरान पुलिस ने उसके कागज़ात छीन लिए, उसे लाठियों से पीटा, उसके मुंह में पेशाब किया।
पुलिस के ज़ुल्म के आगे मानवाधिकार पनाह मांगते हैं। आम आदमी इंसाफ पाने के लिए भी पुलिस थानों के चक्कर लगाना पसंद नहीं करता। पुलिस ने जिन कारनामों को अंजाम दिया है उसकी वजह से आम आदमी का उस पर भरोसा नहीं रह गया है।
कानून के ज़रिए हर खास-ओ-आम को इंसाफ दिलाने के लिए वकील सबसे मज़बूत कड़ी होता है। अदालत के ज़रिए इंसाफ पाने के लिए हर किसी को वकील का दामन थामना ही पड़ता है। फरियादी और जज के बीच की कड़ी होता है वकील। वकील हर उस इंसान की आवाज़ होता है जो मुल्क के कानून के ज़रिए इंसाफ हासिल करना चाहता है। जिन कमज़ोरों की आवाज़ पुलिस नहीं सुनती, वकील उनकी आवाज़ को कानून तक पहुंचा देता है।
पिछले कुछ सालों में जिस तरह से पुलिस अराजक हुई है और उसका शिष्टाचार से रिश्ता टूटा है उसी तरह कानून का दूसरा रखवाला वकील भी अराजक हो गया है। वकील अब उस झुंड का नाम हो गया है जो कहीं भी कभी भी मनमानी कर सकता है। अदालत परिसर में वकीलों का झुंड कब किसे पीट देगा कहा नहीं जा सकता।
वक़्त के साथ-साथ वकीलों का आतंक बढ़ता ही जा रहा है। कचहरी परिसर में पुलिस द्वारा पकड़कर लाये गए आतंकियों पर मधुमक्खियों की तरह टूट पड़ने वाले वकीलों का तांडव पूरे देश ने देखा है। काले कोट की ज़िम्मेदारी को किनारे रखकर वकीलों ने कई बार कानून के साथ ऐसा दुर्व्यवहार किया है जिसे भुलाया नहीं जा सकता। पूर्व सांसद और व्यापारी नेता बनवारी लाल कंछल और जेएनयू के छात्रनेता कन्हैया कुमार की वहशियाना ढंग से की गई पिटाई को भुलाया नहीं जा सकता।
दिल्ली की तीस हज़ारी कोर्ट में वकीलों ने पुलिस के साथ मारपीट की तो चर्चा का मुद्दा नहीं बना। चर्चा तो तब हुई जब पुलिस ने आंदोलन शुरू कर दिया और पुलिस धरने पर बैठ गई।
वक़ीलों ने पुलिस पर पहली बार हाथ उठाया हो ऐसी बात नहीं है। यह कई बार हो चुका है। करीब 20 साल पहले लखनऊ में हाईकोर्ट से लेकर केडी सिंह बाबू स्टेडियम तक वकीलों ने पुलिस को दौड़ा-दौड़ा कर पीटा था। सीओ स्तर के अधिकारियों को चौराहे पर हवाई जहाज बनाकर खड़ा कर दिया था। उनकी वर्दियां फाड़ दी थीं और उनके वाहनों को फूंक दिया था।
पुलिस-वकील संघर्ष पर अदालत की तरफ से वकीलों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई। वाहन चेकिंग के नाम पर पुलिस ने जब भी किसी वकील का चालान काटा तब सैकड़ों की संख्या में वकीलों ने मौके पर पहुंचकर पुलिस कर्मियों को पीटा। ऐसे मामलों में बाद में सिर्फ कम्प्रोमाइज ही होते रहे हैं। किसी भी वकील के खिलाफ कभी कार्रवाई नहीं हुई।
दिल्ली मामले में भी मार खाने वाली पुलिस के खिलाफ ही सज़ा का एलान हुआ। जज साहब ने पुलिस अधिकारियों के ट्रांसफर और दीवान व दरोगा के सस्पेंशन का आदेश सुना दिया।
इस बार पुलिस कर्मी आंदोलित हो गए। वह वकीलों के खिलाफ एक्शन को अड़ गए। पुलिस कमिश्नर की बात को मानने से भी इंकार कर दिया और दोषी वकीलों की गिरफ्तारी की मांग करने लगे। पुलिस के इस रुख पर अदालत भी नर्म हो गई।
पुलिस -वकील संघर्ष मामले में किसी एक का पक्ष नहीं लिया जा सकता क्योंकि दोनों ने ही अराजकता की हदों को पार किया है और दोनों ने ही कानून को चिंदी-चिंदी करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है।
हास्यास्पद बात यह है कि वकीलों ने एलान किया है कि अगर उनके खिलाफ मुकदमा दर्ज हुआ और किसी भी वकील को जेल जाना पड़ा तो कोई भी वकील पुलिस का केस नहीं लड़ेगा। बात की गहराई में जाया जाए तो पता चलेगा कि मज़बूत कोई भी नहीं है और दोनों मिलकर कानून की ऐसी तैसी करने में लगे हैं।
पुलिस अपराधियों को पकड़कर कोर्ट में पेश करना छोड़ दे तो वकील के पास काम ही क्या रह जायेगा और कोर्ट में वकील ही न हों तो पुलिस अपराधियों को पकड़ भी ले तो उन्हें सजा कैसे दिला पाएगी। दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। वकील पुलिस का केस लड़ने से इंकार करेंगे तो पुलिस भी जज और अदालत की सुरक्षा करने से इंकार कर सकती है। तमाम वक़ीलों को मिले गनर वापस हो सकते हैं।
जज को निष्पक्ष होना चाहिए। हर बार वकीलों के पक्ष में फैसला देने से इंसाफ की भावना कमज़ोर हो जाती है।
वकील और पुलिस दोनों मिलकर ही कानून का पालन करवाने का काम करते हैं। दोनों अराजक रहेंगे तो फिर आम आदमी को इंसाफ कैसे हासिल होगा। काला कोट कोर्ट में बहस करने के लिए मिलता है अपनी मसेल्स पॉवर दिखाने के लिए नहीं। इसी तरह खाकी वर्दी अमन और सुकून कायम करने और जनता को सुरक्षित होने का वादा करने के लिए है। वर्दी की हनक में किसी पर ज़ोर आज़माइश नहीं की जा सकती।
आज़ाद हिन्दुस्तान के 72 साल के इतिहास में पहली बार पुलिस भी धरना-प्रदर्शन के हालात तक पहुंच गई है। जिस वर्दी को अनुशासन का प्रतीक माना जाता है। हकीकत में सबसे ज्यादा अनुशासन की ज़रूरत वर्दी वालों को ही है।
वकील-पुलिस संघर्ष में किसी एक को सही और किसी एक को गलत नहीं ठहराया जा सकता। हकीकत में दोनों ही अराजक हैं और दोनों ही अपनी ड्यूटी को भूल बैठे हैं। बेहतर होगा कि ऐसे संघर्षों का संज्ञान सरकार और कोर्ट दोनों ही लें। जज वकीलों की लगाम कसें और सरकार पुलिस पर लगाम लगाये वर्ना यह अराजक व्यवस्था कानून का राज स्थापित नहीं कर पायेगी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, लेख में उनके निजी विचार हैं)
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