शबाहत हुसैन विजेता
रात के अंधेरे में पुलिस एक लाश जला रही है. लाश लावारिस नहीं है. इस जलती हुई लाश के पास किसी को भी जाने की इजाजत नहीं है. क्राइम ब्रांच के इन्स्पेक्टर को लाश जलाने की जगह पर लॉ एंड ऑर्डर मेंटेन करने का ज़िम्मा दिया गया है.
लाश को पुलिस ने क्यों जलाया? रात के अंधेरे में क्यों जलाया? घर वालों से छीनकर लाश जलाने का इंतजाम क्यों किया? क्यों घर वालों को ऐसे मौके से दूर किया गया? कौन लोग थे जो ऐसे वक्त पर लॉ एंड ऑर्डर के लिए खतरा थे?
पिछले कुछ सालों में खाकी वर्दी पर उठने वाले सवाल बहुत बढ़ गए हैं. पुलिस पर बढ़ने वाले सवालों की वजह क्या है? क्या पुलिस वाकई लॉ एंड ऑर्डर मेंटेन करने में ही लगी है? लॉ एंड ऑर्डर का मतलब आखिर क्यों खत्म होने लगा है? क्या पुलिस को सही और गलत बताने वाला कोई नहीं है? क्या पुलिस के गलत और सही पर नज़र रखने वाला कोई नहीं है?
पुलिस पर बार-बार सवाल उठ रहे हैं लेकिन उन सवालों का कोई जवाब किसी के पास भी नहीं है. सच बात तो यह है कि यह जवाब खुद पुलिस के पास भी नहीं हैं. रात के अंधेरे में जलती लाश के पास मौजूद क्राइम ब्रांच का इन्स्पेक्टर एक महिला पत्रकार के हर सवाल पर सिर्फ यही पूछता है कि डीएम से बात हुई आपकी? मतलब साफ़ है कि डीएम का ऑर्डर था कि पुलिस लाश जला दे.
डीएम ने आखिर पुलिस को डोम का काम क्यों सौंपा? और पुलिस ने उस काम के लिए अपनी मंजूरी क्यों दे दी जो उसका काम था ही नहीं? क्या पुलिस खुद भी दबाव में है? पुलिस अगर दबाव में है तो फिर वह लॉ एंड ऑर्डर को कैसे मेंटेन रख पायेगी?
हुकूमत ने तय किया है कि लड़कियों से छेड़खानी और रेप करने वालों के चौराहों पर पोस्टर लगाए जायेंगे. यहां तो रेप पीड़िता की लाश को पुलिस ने ही जला दिया. पुलिस ने लाश क्यों जलाई? क्या पुलिस कोई सबूत जला रही थी? पुलिस अगर सबूत जला रही थी तो वह सबूत कौन जलवा रहा था? आखिर इन्स्पेक्टर ने कैमरे पर इतने कांफीडेंस से कैसे पूछा कि डीएम से बात हुई आपकी? मतलब डीएम को सब पता है. मतलब डीएम को मालूम है कि घर वालों से छीनकर लाश जलाई जा रही है.
लाश जलाने का हक़ पुलिस को आखिर कौन दे रहा है? लॉ एंड ऑर्डर का हाल बिगड़ रहा है तो ज़िम्मेदारी किसकी है? गैंगरेप लगातार हो रहे हैं तो उसके लिए ज़िम्मेदार कौन है?
हाथरस में 19 साल की लड़की के साथ जो वहशियाना हरकत अंजाम दी गई उसमें बताया गया कि लड़की की रीढ़ की हड्डी टूट गई थी. बताया गया कि उसकी ज़बान काट ली गई थी. बताया गया कि चार लोगों ने उसके साथ रेप किया था. बताया गया कि लड़की अपने भाई के साथ थाने में रिपोर्ट लिखाने आयी थी और पुलिस ने फ़ौरन रिपोर्ट लिखी थी. बताया गया कि लड़की थाने आई थी तो उसकी स्थिति गंभीर थी इस नाते फ़ौरन पुलिस ने ही उसको अस्पताल में भर्ती करवाया था. फिर बताया गया कि लड़की की ज़बान नहीं काटी गई थी. फिर बताया गया कि मेडिकल हुआ है रेप नहीं हुआ था.
यह सारे बयान बाद में एक दूसरे से काटते चले जाते हैं. लड़की की गर्दन और रीढ़ की हड्डी टूटी थी तो वह खुद चलकर थाने कैसे आयी थी? लड़की की ज़बान कटी हुई थी तो उसके भाई को रेप की जानकारी कैसे मिली थी? लड़की की ज़बान नहीं कटी थी तो फिर ज़बान कटने की बात सामने क्यों और कैसे आयी? लड़की का रेप नहीं हुआ था तो फिर किन वजहों से उसके साथ वहशियों की तरह से मारपीट की गई थी?
रेप की पुष्टि अगर मेडिकल जांच में हो गई थी तो फिर पुलिस ने घर वालों से लाश छीनकर रात के अंधेरे में क्यों जला दी? आखिर लॉ एंड ऑर्डर कौन लोग खराब करने वाले थे जिसकी वजह से लाश जलाने के लिए क्राइम ब्रांच के इंस्पेक्टर को बुलवाना पड़ा? क्या वाकई पुलिस को डीएम ने ही लाश जलाने के लिए कहा था? …तो फिर डीएम से किसने कहा था कि लाश जलवा दो?
हाथरस गैंगरेप में पुलिस के लगातार बदलते बयान और लड़की की मौत के बाद सारे सबूतों की चिता जला देने के पीछे कौन सी वजहें हैं उन्हें तलाशे बगैर तो क़ानून का राज स्थापित ही नहीं ही हो सकता.
गैंगरेप बिलकुल मज़ाक की तरह से किया जा रहा है. दिल्ली गैंगरेप के बाद फांसी की सजा का प्राविधान किया गया है उसके बाद भी रेपिस्ट डर क्यों नहीं रहे हैं इस पर मंथन आखिर कौन करेगा?
लाश जलाने का काम पुलिस ने पहली बार नहीं किया है. पहले भी यह काम पुलिस करती रही है लेकिन इससे पहले पुलिस लाश लेकर श्मशान या कब्रिस्तान तक जाती रही है. घर वालों को अंतिम संस्कार में शामिल करती रही है. हाल ही में विकास दुबे की लाश भी पुलिस ने शमशान तक पहुंचाई थी लेकिन अब हाथरस गैंगरेप मामले में तो पुलिस डोम की भूमिका में आ गई.
सामाजिक कार्यकर्ता दीपक कबीर ने सोशल मीडिया पर लिखा कि लॉ की मौत हो गई सिर्फ ऑर्डर ही बचा है. वरिष्ठ पत्रकार उबैद उल्लाह नासिर ने लिखा आरआईपी जस्टिस. पत्रकार वरुण मिश्र ने पुलिस की जलाई चिता पर लिखा व्यवस्था की चिता.
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सोशल मीडिया पर तरह-तरह के कमेन्ट आ रहे हैं. हर तरफ दर्द के बादल गहरा रहे हैं. व्यवस्था की चिता जली है तो ज़िम्मेदार कौन है? अगर लॉ की मौत हो गई है तो फिर ऑर्डर को कौन मानेगा और कितने दिन मानेगा? अगर न्याय वाकई रेस्ट इन पीस में है तो फिर कौन सा समाज तैयार हो गया है और तैयार हुई नई व्यवस्था किस तरह के हालात तैयार करने वाले हैं इस पर कौन सोचेगा? कब सोचेगा? और जब सोचेगा तो उस सोचने का मतलब क्या रह जाएगा?
सवालों का गड़बड़झाला बड़ा होता जा रहा है. जवाब की उम्मीद की किरणें टूटती जा रही है. सड़कों पर लगने वाले पोस्टर शायद कहीं छप रहे हों मगर जो रात के अंधेरे में चिता जली है न उसकी आंच बहुत कुछ जला डालने को आमादा है.