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ग्राउंड में गैरमौजूद, मगर बिहार चुनाव के केंद्र में हैं लालू

प्रीति सिंह

बात बिहार की राजनीति की हो और राजद प्रमुख लालू प्रसाद यादव का जिक्र न हो, ऐसा हो ही नहीं सकता। लालू विरोध कर सत्ता में आने वालों को सत्ता में बने रहने के लिए भी लालू का नाम जरूरी लगता है। वैसे तो पिछले ढ़ाई साल से लालू यादव जेल में हैं, पर बिहार की राजनीति के केंद्र में इस बार भी अभी तक वही दिख रहे हैं।

वैसे देखा जाए तो ढाई साल से जेल में बंद होने के कारण लालू यादव राजनीति के हाशिये पर हैं, फिर भी बिहार की राजनीति में उनके विरोधियों को उनका नाम लेना जरूरी लगता है। बिहारी में चुनावी माहौल हैं इसलिए लालू यादव अब राजनीति के केंद्र में आ गए हैं।

बिहार मे विधानसभा चुनाव का बिगुल बज चुका है। पहले चरण के चुनाव का नामांकन भी शुरु हो गया है। पक्ष और विपक्ष में आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति पिछले कई माह से चल रही है। विपक्षी दल जहां नीतीश सरकार के कामकाज के मुद्दे पर घेरने में लगी हुई है तो वहीं सत्तारूढ़ दल की राजनीति लालू के इर्द-गिर्द ही है।

सत्तारूढ़ दल पिछले चार माह से लगातार लालू यादव को पोस्टर के जरिए घेर रहा है। कभी उनके तीसरे बेटे तरूण का खुलासा करके राजनीति गर्म करने की कोशिश कर रहा है तो कभी बता रहा है कि एक ऐसा परिवार जो बिहार पर भार है।

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थोड़ा पीछे चलते हैं। 11 जून को लालू यादव ने अपना तिहत्तरवां जन्मदिन मनाया था। इस मौके पर भी वह विरोधियों के निशाने पर रहे थे। इस दिन का इस्तेमाल उनकी अपनी पार्टी से ज्यादा उनके विरोधियों ने किया। इस मौके पर जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) की तरफ से पोस्टर के जरिए उन पर हमला किया गया। पटना में लगे इस पोस्टर में लालू के 73वें जन्मदिन के मौके पर दिखाया गया कि किस तरीके से उन्होंने 73 साल में 73 अकूत संपत्ति की संख्या तैयार की है।

इस पोस्टर का टैगलाइन था, ‘लालू परिवार का संपत्ति नामा, 73वें जन्मदिवस पर 73 संपत्ति श्रृंखला।’

सितंबर माह के तीसरे सप्ताह में भी लालू के विरोधियों ने राजधानी पटना के इनकम टैक्स चौराहे पर पोस्टर लगाया था। पोस्टर के माध्यम से बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू यादव और उनके परिवार पर प्रहार किया गया था। हालांकि पोस्टर किसके द्वारा लगाया गया था इस बात का जिक्र नहीं था।

इस पोस्टर में लालू परिवार पर कटाक्ष किया गया है। पोस्टर में लालू परिवार के पांच सदस्यों की तस्वीरें थीं। लालू की बड़ी सी तस्वीर है, जिसे सींखचों के पीछे दिखाया गया था। लिखा गया है कि एक ऐसा परिवार है जो बिहार पर भार है। साथ ही लालू को कैदी नंबर 3351 बताया गया था।

बिहार में चुनावी हलचल बढऩे के साथ ही पोस्टर वार शुरु हो गया था। पिछले कुछ माह से जो स्थिति दिख रही है उसमें राज्य की सभी पार्टियां एक तरफ और लालू अकेले दूसरी तरफ दिख रहे हैं। सत्तारूढ़ दल के निशाने पर लालू यादव हैं।

लालू के पंद्रह साल बनाम नीतीश के पंद्रह साल पर चुनाव मोडऩे पर सत्तापक्ष जुट गया है। चाहे वर्चुअल हो या समक्ष, जनता को बताया जा रहा है कि विकास नीतीश के 15 साल में हुआ और लालू के 15 साल में भ्रष्टाचार।

अमित शाह के भी निशाने पर रहे लालू

राजद प्रमुख लालू प्रसाद यादव बीते ढ़ाई साल से जेल में हैं। ट्विटर पर ही उनकी थोड़ी-बहुत सक्रियता दिखती है। हाशिए पर रहने के बावजूद वे विरोधियों के लिए कितने महत्वपूर्ण हैं इसका अंदाजा ऐसे लगा सकते हैं। 7 जून का बिहार विधान सभा चुनाव के शंखनाद के मौके पर देश की पहली वर्चुअल रैली में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने उन पर और उनके परिवार पर निशाना साधने से परहेज नहीं किया।

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने तो चुनावी चर्चा में अपने कार्यकर्ताओं से बकायदा कहा कि लोगों के बीच जाए और उनको बताए कि उनकी सरकार बिहार को लालटेन युग से निकाल कर एलईडी युग में लाई है। लोगों को बताइये कि 15 साल पहले बिहार कहां था।

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नीतीश कुमार का मानना है कि लोगों के जेहन में उस गुजरे जमाने की याद ताजा रखना जरूरी है। यह राजनीतिक रूप से उन्हें फायदा पहुंचायेगा।

इसके अलावा उप मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी समेत अन्य भाजपा नेता मौके-बेमौके लालू-राबड़ी राज के कुशासन व उनके परिवार के लोगों के भ्रष्टाचार के कारनामे तथा अपने सुशासन की याद ताजा कराने से नहीं चूकते। मानो सत्ता की कुंजी और लालू विरोध का चोली-दामन का साथ हो।

बहरहाल तरीके कुछ भी हों, सत्ता और विपक्ष दोनों ही अपने-अपने तरीके से एक-दूसरे को घेरने में जुटे हैं। इस बार भी लड़ाई आमने-सामने की ही है और सत्तारूढ़ दल के निशाने पर हैं लालू यादव।

लालू यादव का राजनीतिक सफर

जेपी आंदोलन की उपज लालू प्रसाद यादव प्रांत के करिश्माई नेता रहे हैं। मात्र 29 वर्ष की उम्र में लोकसभा की दहलीज पर पांव रखने वाले वे 1990 में बिहार के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर काबिज हुए और 1997 तक इस पद पर बने रहे।

लालू प्रसाद यादव राजनीति की उस धारा के प्रणेता थे जिसने अगड़ों का घोर विरोध किया और पिछड़ों, दलितों-शोषितों को समाज की पहली पंक्ति में बिठाने का काम किया। उस दौरान अनूठे अंदाज में उन्होंने कई ऐसे लोक-लुभावन काम किए जिससे वे पिछड़ों के मसीहा बन गए।

लालू के व्यक्तित्व में सबसे प्रभावी उनके संवाद का तरीका रहा है। उनके संवाद का अंदाज ऐसा था कि गरीब-गुरबा उनमें अपना अक्श देखने लगा। राजनीतिक समीक्षकों के मुताबिक लालू ने गरीबों की आर्थिक दशा सुधारने के साथ-साथ उन्हें आवाज दी और खुद को मनुवाद के घोर विरोधी के रूप में पेश किया।

लालू ने यादव व मुस्लिम का माई समीकरण बनाकर चार प्रमुख सवर्ण जातियों राजपूत, भूमिहार, ब्राह्मण और कायस्थ (लाला) के लिए भूरावाल साफ करो का नारा दिया।

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लालू यादव ने 1996 में राम रथयात्रा कर रहे भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी को समस्तीपुर में गिरफ्तार कर स्वयं को धर्मनिरपेक्ष नेता के रूप में पेश किया। उनके इस कदम के बाद मुस्लिम उनके कट्टर समर्थक बन गए।

भारत के सबसे बड़े चारा घोटाले में दोषी ठहराए जाने के बाद 1997 में उन्हें मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफा देना पड़ा। मुख्यमंत्री की कुर्सी जाने के बाद उनकी पार्टी जनता दल में भी विद्रोह हुआ, पर उन्होंने अपनी पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बनाकर राष्ट्रीय जनता दल (राजद) की स्थापना की।

लालू के इस निर्णय की देशव्यापी आलोचना हुई। इसके बाद से उन पर लगातार परिवारवाद का आरोप लग रहा है। बिहार की सत्ता में उनकी पत्नी राबड़ी देवी 2005 तक रहीं।

राजनीतिक जानकारों का कहना है कि लालू यादव परिवारवाद,भाई-भतीजावाद को बढ़ावा देने के कारण अपने मकसद से भटक गए। परिवार तक सीमित हो जाने के कारण राज्य में विकास कार्यो पर ब्रेक लग गया और लूट, अपहरण व हत्या का बाजार गर्म हो गया।

इतना ही नहीं अदालतों द्वारा भी लालू राज को जंगलराज की संज्ञा दी जाने लगी और सामाजिक-आर्थिक मापदंड पर बिहार नीचे आ गया। परिणाम यह हुआ कि 2005 में सत्ता उनकी पत्नी के हाथ से खिसक गई और नीतीश कुमार भाजपा-जदयू गठबंधन सरकार के मुखिया बन बिहार के मुख्यमंत्री बन गए। चारा घोटाला मामले में लालू 6 जनवरी, 2018 से रांची जेल में बंद हैं।

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