शाश्वत तिवारी
भाजपा के वरिष्ठ राजनेता, मध्य प्रदेश के राज्यपाल लालजी टंडन (बाबू जी) के निधन के समाचार से दुखी वरिष्ठ समाजवादी चिंतक, संस्थापक- गाँधी जयंती ट्रस्ट, बाराबंकी, राजनाथ शर्मा ने टंडन जी के साथ बिताये अपने लंबे समय के कई अहम् संस्मरण व्यक्त किये, उन्होंने बताया कि टंडन जी से मेरी मुलाकात 1965 में हुई। जब मैंनें काफी हाउस जाना शुरू किया। तब वहीं मेरी टंडन जी से मुलाकात हुई। उस वक्त हम लोग अपनी-अपनी पार्टी के संर्घषशील कार्यकर्ता थे। मैं समाजवादी युवजन सभा का कार्यकर्ता था। उस समय सुचिता कृपलानी सूबे की मुख्यमंत्री थी और कर्मचारियों का आंदोलन बहुत तेज चल रहा था।
उन दिनों जनसंघ के नेता नानाजी देशमुख और दीन दयाल उपाध्याय दोनों लखनऊ ही रहते थे। टंडन जी अक्सर कहते कि ‘उन्होंने ही दीनदयाल उपाध्याय और डॉ0 लोहिया की मुलाकात करायी।’ जिन्होंने (दीनदयाल और डॉ0 लोहिया ने) बाद में ‘हिन्द पाक एका’ पर संयुक्त वक्तव्य जारी किया।
टंडन जी का मानना था कि आजादी से पहले जनसंघ ने अखण्ड भारत का जो नारा दिया था, उसका बंटवारे के बाद शब्द ही बदल गया। अखंड भारत यानी एक राष्ट्र। मतलब भारत, पाकिस्तान को पुनः एक करने का सूत्रधार। लेकिन भारत विभाजन के बाद देश के दो मौलिक चिंतक डा0 राममनोहर लोहिया और दीनदयाल उपाध्याय ने अखंड भारत की परिकल्पना से अलग दोनो राष्ट्रों के महासंघ की अवधारणा पर वैचारिक आदान प्रदान किया।
उन्होंने यह बात लखनऊ में आयोजित भारत पाकिस्तान बांग्लादेश का महांसघ बनाओ सम्मेलन में कही। उन्होंने यह भी बताया कि ‘आजादी के 70 वर्षों में इन तीनों देशों ने बहुत कुछ खोया है। आज जरूरत हमें फिर एक होने की है। अगर भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश के बीच महासंघ बन जाए तो यह इतिहास का एक नया अध्याय होगा। जो तीनों मुल्कों में अमन, चैन और तरक्की का मार्ग दिखाएगा।’ वास्तव में बंटवारे का दर्द टंडन जी की बातों में साफ तौर पर दिखाई देता था। शायद यही वजह रही हो जिस कारण वह मुस्लिम समुदाय के भी सर्वमान्य और जनप्रिय नेता हो गए।
लोगों में तमाम खूबियाँ होती हैं मगर उन खूबियों को सम्भाल कर चलने की सलाहियत हर एक में नही होती है, जिसमें होती है, वह असाधारण में भी असाधारण होता है। लालजी टंडन वही शख्सियत हैं। आज देश ने एक ऐसे धर्मनिरपेक्ष राजनेता को खो दिया जो हिन्दू मुस्लिम एकता और लखनऊ की तहज़ीब का प्रतीक रहा है।
वास्तव में बंटवारे का दर्द टंडन जी की बातों में साफ तौर पर दिखाई देता था। शायद यही वजह रही हो जिस कारण वह मुस्लिम समुदाय के भी सर्वमान्य और जनप्रिय नेता हो गए ।
साठ के दशक में टंडन जी ने राजनीति में कदम रखा। जिसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। धीरे-धीरे लखनऊ में जनसंघ की राजनीति में टंडन जी का एक कद बनता चला गया। उनका स्नेह और आशीर्वाद हमेशा मुझ पर बना रहा। उन दिनों डॉ पीडी कपूर का जनसंघ में बड़ा दबदबा था। उसके बाद भी जनसंघ में टंडन जी का अपना राजनीतिक स्थान बन चुका था। टंडन जी की सादगी, विनम्रता, त्याग, संघर्ष और वैचारिक प्रतिबद्धता का कोई सानी नहीं है। यही कारण है कि लोग टंडन जी के मुरीद होते चले गए।
जनसंघ की जमात में वे उन चंद नेताओं में से थे जिन्होंने हमेशा आपसी राग-द्वेष से मुक्त रहते हुए सभी दलों और सभी धर्म संप्रदाय के लोगों को जोड़ने का काम किया। अपने व्यवहार को लखनऊ की तहज़ीब और सभ्यता में संजोए रखा। पार्षद से लेकर विधायक, मंत्री, सांसद और राज्यपाल तक विभिन्न पदों पर रहने के बाद भी उनके आचरण में कोई परिवर्तन नही हुआ। सभी के प्रति आदर और सम्मान एकसमान रहा।
टंडन जी खाने के बेहद शौकीन थे। अक्सर वह हजरतगंज स्थित आवास पर ठंडाई, आलू टिक्की, चाट- बताशे सहित कई अन्य व्यंजन बनवाते थे और लोगों को बुला-बुलाकर खिलाते थे।
टंडन जी ने जब ‘अनकहा लखनऊ’ लिखी तो वह बहुत प्रसन्न थे। उनकी बातों से ऐसा प्रतीत होता था कि उनकी किताब की चर्चा कई कार्यक्रमों और कई जगहों पर हो। ऐसे में वह विभिन्न विचारधारा के लोगों से पुस्तक पर चर्चा भी करते थे। उनके पुराने परिचित सगीर अहमद (बदायूं) ने भी टंडन जी से मुलाकात करके पुस्तक लेखन की बधाई दी।
उन्होंने एक दिन मुझसे भी कहा कि ‘शर्मा जी यदि संभव हो तो एक आयोजन बाराबंकी में भी होना चाहिए। जिससे लोगों को लखनऊ की तहज़बी और इतिहास की जानकारी हो सके।’ फिर उस पुस्तक की चर्चा के लिए गांधी ट्रस्ट द्वारा एक समारोह का आयोजन जिला परिषद, बाराबंकी के सभागार में किया गया। जिसमें टंडन जी उपस्थित थे। जिसकी अध्यक्षता लविवि के तत्कालीन कुलपति डॉ0 एस0पी0 सिंह ने की। जिसमें सरकार के कानून मंत्री बृजेश पाठक, पूर्व मेयर दाऊजी गुप्ता, राष्ट्रवादी लेखक पवन पुत्र बादल, पूर्व एमएलसी गयासुद्दीन किदवाई, वरिष्ठ कांग्रेस नेता अमीर हैदर, वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप कपूर, संजय चैधरी सहित कई प्रबुद्धजनों ने पुस्तक चर्चा में हिस्सा लिया।
टंडन जी खान-पान के बेहद शौकीन थे। अक्सर वह हजरतगंज स्थित आवास पर चाट, कचालू, पानी पूड़ी सहित कई अन्य व्यंजन बनवाते थे और लोगों को बुला-बुलाकर खिलाते थे। काफी हाउस में बैठकी और हंसी ठहाकों के बीच टंडन जी अनगिनत किस्से सुनाया करते थे।
टंडन जी की विभिन्न राजनीतिक विचारधाराओं के नेताओं से भी समान रूप से मित्रता थी। एक बार गांधी जयन्ती के कार्यक्रम का उदघाटन करने के लिए उन्हें आमंत्रित करने गया। उन्होंने पूछा ‘कार्यक्रम में अन्य अतिथिगण कौन होंगे?’ मैंने उनसे कहा कि ‘क्या आप शिवपाल यादव, रामगोविन्द चौधरी, गोपाल नारायण मिश्र के साथ मंच साझा कर सकते है ?’ उन्होंने बड़ी सहजता से जवाब दिया-‘बिल्कुल। मैं अवश्य आपके कार्यक्रम में सम्मिलित होऊंगा।’ वह आए और बार-बार आए।
उन्होंने अपने व्यक्तित्व और कृतित्व से देश और समाज को जितना दिया, वह अविस्मरणीय है। लालजी टंडन के न रहने से देश के ही नहीं, बल्कि राष्ट्रवादी विचारधारा और कौमी एकता की काफी बड़ी क्षति हुई है। लखनऊ से जुड़ी तहज़ीब और संस्कृति में समाहित उनकी प्रेरक स्मृति को सादर प्रणाम।
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