कृष्णमोहन झा
देश में लगभग सवा दो माह के लाक डाउन के बाद अब 30 दिवसीय अन लाक -1 की शुरुआत हो चुकी है और बहुत सी बंदिशों के साथ धर्म स्थल, माल और रेस्ट्रांरेन्ट भी खोलने की अनुमति दे दी गई है।
उद्योग धंधे भी प्रारंभ हो चुके हैं यह बात अलग है कि इन उद्योग धंधों में काम करने वाले जो प्रवासी मजदूर अपने गृह राज्यों को वापस लौट चुके हैं उनकी अनुपस्थिति उद्योग मालिकों की चिंता का विषय बनी हुई है और वे अपने कुशल मजदूरों को वापस लौट आने के लिए कई तरह के प्रलोभन दे रहे हैं।
उधर, अपने गृह राज्य पहुंच चुके प्रवासी मजदूरों का एक वर्ग भी अब तक अपने गांव में जीविकोपार्जन के साधन न जुटा पाने के कारण एक बार फिर उन राज्यों में जाकर अपने पुराने कामधंधे में जुट जाने का मन बना चुका है जहां दुबारा कभी पैर न रखने की कसम खाकर उसने भीषण गर्मी में अपने गृहराज्य की सैकड़ों मील लंबी यात्रा प्रारंभ की थी लेकिन पेट की आग के आगे कोई कसम मायने नहीं रखती।
जीवन यापन के लिए पर्याप्त रोजी रोटी कमा लेने के साधन उन्हें अगर अपने ही राज्य में उपलब्ध करा दिए गए तो दूसरे राज्यों में जाकर रोजरोटी कमाने का विचार शायद उनके मन से निकल भी सकता है परंतु सवाल यह उठता है कि अगर यह पहले ही संभव होता तो क्या दूसरे राज्यों में उन्हें प्रवासी मजदूर बनकर रोजी रोटी कमाने की विवशता का सामना करना पडता।
जिन परिस्थितियों में इन मजदूरों ने कभी अपने परिवारजनों और गृह राज्य का मोह भी त्याग दिया था वही परिस्थितियां एक बार फिर उनके सामने उपस्थित हो चुकी हैं। अपने राज्य में रोजगार के साधनों का अभाव अथवा बेहतर जिंदगी जीने की ललक उन्हें एक बार फिर दूसरे राज्यों की ओर रुख करने के लिए प्रेरित कर सकती है।
मैंने पहले भी इसी विषय पर लिखे अपने एक लेख में यह संभावना व्यक्त की थी कि लाक डाउन से उपजी अप्रत्याशित बेरोजगारी के कारण जो प्रवासी मजदूर अपने गृह राज्य लौट रहे हैं उन्हें अगर निकट भविष्य में ही उद्योग धंधों में पहले जैसा काम शुरू होने का भरोसा दिलाया जाए तो वे अपने कार्य स्थल पर रुकने का मन भी बना सकते हैं। अब कमोवेश वही स्थिति बनती दिखाई दे रही है। दूसरे राज्यों में स्थित उन उद्योगों के मालिक, जहां ये प्रवासी मजदूर लगातार कई वर्षों से काम करते हुए कुशल मजदूर की श्रेणी में चुके थे, अब अपने इन मजदूरों की कमी के कारण उद्योगों में पहले जैसा कामकाज शुरू होने की कल्पना ही नहीं कर सकते इसलिए वे उन्हें उनके गृह राज्यों से वापस बुलाने के लिए सरकार से पुन: स्पेशल श्रमिक ट्रेन चलाने की मांग कर रहे हैं।
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कुछ उद्योगों के मालिक अपने मजदूरों को वापस लाने के लिए लग्जरी बस भेजने अथवा हवाई जहाज का किराया देने के लिए भी तैयार हैं। बदली हुई परिस्थितियों में ये संभावनाएं बलवती होती दिखाई पड़ा रही हैं कि बड़ी संख्या में प्रवासी मजदूरों का पुनः उन राज्यों की ओर प्रस्थान का सिलसिला प्रारंभ हो सकता है जहां पहले बेहतर जीवन यापन के साधनों की तलाश उन्हें खींच ले गई थी। बीते दिनों में इन प्रवासी मजदूरों को लेकर काफी राजनीति भी हो चुकी है। इन प्रवासी मजदूरों के प्रति जो सहानुभूति प्रदर्शित की जा रही थी उसे देखकर तो ऐसा प्रतीत हो रहा था कि प्रवासी मजदूरों के जीवन में अच्छे दिनों का इन्तजार खत्म होने का वक्त आ चुका है। हर राजनीतिक दल को यह चिंता सता रही थी कि उसका प्रतिद्वंद्वी दल मुसीबत के मारे इन लाखों प्रवासी मजदूरों के प्रति सहानुभूति प्रदर्शित करने में कहीं उससे आगे न निकल जाए।
आश्चर्य की बात तो यह है कि जिन राजनीतिक दलों की सरकारों ने मुश्किल समय में भी प्रवासी मजदूरों को उनके हाल पर छोड़ कर अपनी जिम्मेदारी से मुंह मोड लिया था वे भी दूसरे दल की सरकारों पर मजदूरों के साथ ‘निर्ममता’ से पेश आने का आरोप लगा रहे थे।
महाराष्ट्र में सत्तारूढ महा विकास आघाडी गठन बंधन की मुखिया शिवसेना इस मामले में कुछ ज्यादा ही आगे निकल गई। देश के जिस प्रदेश में प्रवासी मजदूरों की संख्या सबसे अधिक हो उस प्रदेश में इन प्रवासी मजदूरों को अगर जीविकोपार्जन के साधन उपलब्ध होते हैं तो उस प्रदेश के विकास में उनके श्रम का भी योगदान भी होता है इसलिए उनके इस योगदान को ध्यान में रखते हुए शिव सेना के नेतृत्व वाली महाराष्ट्र की गठबंधन सरकार से यह अपेक्षा की जा रही थी कि वह इस विपदा की घड़ी में उनको उनके हाल पर नहीं छोड़ेगी परंतु उसने तो इन मजदूरों के गृह राज्य उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पर मजदूरों के साथ गैर जिम्मेदाराराना व्यवहार का आरोप लगाने में भी संकोच नहीं किया।
आश्चर्य तो तब हुआ जब शिव सेना को बालीवुड अभिनेता सोनू सूद द्वारा प्रवासी मजदूरों को उनके घर पहुंचाने की प्रशंसनीय पहल में राजनीति नजर आ गई।
शिव सेना के मुख पत्र सामना ने तो यह शक भी जाहिर कर दिया कि सोनू सूद यह सब भाजपा के कहने पर कर रहे हैं और भाजपा आगामी बिहार विधान सभा चुनावों में उन्हें उम्मीदवार बनाना चाहती है। सवाल यह उठता है कि क्या सोनी सूद को एक नागरिक के रूप में चुनाव लड़ने का अधिकार नहीं है और अगर सोनू सूद जैसे संवेदनशील व्यक्ति राजनीति में आना चाहते हैं तो ऩिसंदेह यह लोकतंत्र के लिए सुखद संकेत है।
शिवसेना के मुखपत्र में तो सोनू सूद के लिए’ महात्मा सूद’ का संबोधन का प्रयोग करते हुए उन पर कटाक्ष भी किया गया। उधर गठबंधन सरकार की एक घटक कांग्रेस के प्रमुख नेता एवं राज्य सरकार के वरिष्ठ मंत्री का कहना था कि दरअसल जो काम शिवसेना को करना चाहिए था वही काम सोनू सूद कर रहे हैं तो उसका स्वागत किया जाना चाहिए। यह विवाद बढने पर सोनूसूद ने मातोश्री पहुंच कर मुख्यमंत्री एवं शिवसेना सुप्रीमो उद्वव ठाकरे से मुलाकात की जिसके बाद उद्धव ठाकरे के बेटे एवं महाराष्ट्र के मंत्री आदित्य ठाकरे ने पहल की प्रशंसा की।
फिलहाल तो इस अप्रिय विवाद के शांत हो जाने का आभास हो रहा है परंतु इसका हमेशा के लिए पटाक्षेप हो जाने की संभावना कम ही नजर आती है। उत्तर प्रदेश की योगी सरकार प्रवासी मजदूरों के हितों की सुरक्षा के लिए प्रवास आयोग बनाने का फैसला कर चुकी है। इसी तरह मध्य प्रदेश की शिवराज सरकार ने राज्य में मजदूरों के हित श्रमसिद्धि योजना की घोषणा की है।
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केन्द्र की मोदी सरकार ने मजदूरों की समस्याओं को दूर करने के लिए व्यापक कदम उठाने का फैसला किया है। केन्द्र सरकार की यह पहल सराहनीय है कि प्रवासी मजदूर जिन शहरों में अपनी सेवाएं देते हैं वहां उनके लिए आवास भी उपलब्ध कराए जाना चाहिए ताकि भविष्य में कभी उन्हें पलायन करने के लिए विवश न होना पड़े। जिन राज्यों के लोग अपने गृह राज्य में उचित रोजगार के अभाव में दूसरे राज्यों में जाकर रोजी रोटी कमा रहे थे उन सभी को अपने गृहराज्यों में रोजगार के साधन उपलब्ध कराने की मंशा से संबंधित राज्य सरकारें जो पहल कर रही हैं वे निसंदेह सराहनीय है और उन सरकारों के नेक इरादों पर संदेह व्यक्त करना भी उचित नहीं होगा परंतु यह काम इतना आसान भी नहीं है।
निश्चित रूप से इसके लिए समयबद्ध योजनाओं की आवश्यकता है और रोजी रोटी का संकट या फिर बेहतर जीवन स्तर की चाहत कुछ दिनों के बाद फिर उन मजदूरों को निश्चित रूप से दूसरे राज्यों का रुख करने के लिए प्रेरित करेगी। ऐसी स्थिति में सर्वोपरि आवश्यकता इस बात की है कि पिछले दिनों जो कटुता परस्पर विरोधी राज्य सरकारों के बीच पैदा हो गई थी वह प्रवासी मजदूरों के लिए किसी नई मुसीबत का कारण न बन सके।
गौरतलब है कि शिवसेना सुप्रीमो और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे भी पिछले दिनों यह बयान दे चुके हैं कि जो प्रवासी मजदूर महाराष्ट्र छोड़ कर अपने वापस गृह राज्य जा चुके हैं उनके स्थान पर भूमिपुत्रों को रोजगार देने की प्रक्रिया शुरू की जाएगी और इसके लिए पहले उन्हें प्रशिक्षित किया जाएगा। इससे तो यही संकेत मिलता है कि महाराष्ट्र की गठबंधन सरकार और विशेष रूप से उसकी मुखिया शिवसेना की इस बात में कोई दिलचस्पी नहीं है कि जो प्रवासी मजदूर लाक डाउन के दौरान महाराष्ट्र छोड़ कर चले गए थे वे अब वापस लौट कर पुनः अपने काम धंधे में लग जाएं।
दरअसल शिवसेना उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के उस बयान से तिलमिलाई हुई है जिसमें उन्होंने कहा था कि भविष्य में जिन राज्यों में उत्तर प्रदेश के लोगों को काम के लिये बुलाया जाएगा उन राज्यों की सरकारों को इसके लिए उत्तर प्रदेश सरकार से अनुमति प्राप्त करनी होगी। योगी अपनी जगह एकदम सही थे क्योंकि महाराष्ट्र सरकार ने विपदा की घड़ी में दूसरे राज्यों के प्रवासी मजदूरों के रहने खाने की अपेक्षित जिम्मेदारी से मुंह मोड़कर उन बेबस बेसहारा मजदूरों को उनके हाल पर छोड़ दिया था।
दरअसल महाराष्ट्र सरकार को तो उस समय प्रवासी मजदूरों के प्रति अपने उत्तर दायित्व के निर्वाह में अपनी असफलता के लिए खेद व्यक्त करना चाहिए था परंतु शिव सेना ने तो योगी पर पलटवार के उतावलेपन में आकर यह धमकी दे डाली कि भविष्य में प्रवासी मजदूरों को राज्य से बाहर जाने के लिए राज्य सरकार की अनुमति लेनी होगी।
कुल मिलाकर यह स्थिति अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है और जब कोरोना संकट की भयावहता के कारण मजदूरों के सामने रोजी रोटी का भयानक संकट पैदा हो गया है तब उनकी तकलीफें दूर करने के उपाय खोजने के बजाय अगर हर चीज़ को राजनीति के नजरिए से देखने की मानसिकता का परित्याग हर राजनीतिक दल को करना चाहिए।
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