Monday - 28 October 2024 - 11:21 PM

यूपी सियासत का कड़वा सच हैं कुलदीप सेंगर!  

राजेंद्र कुमार 

उन्नाव रेप मामले में दोषी पाए गए विधायक कुलदीप सिंह सेंगर को दिल्ली की तीस हजारी अदालत ने उम्रकैद की सजा सुनाई है। सेंगर पर 25 लाख रुपए का जुर्माना भी लगाया गया है। सजा सुनते ही बीजेपी से निष्कासित हो चुका सेंगर कोर्ट में फूट-फूटकर रोने लगा। इसके पहले  कोर्ट में बहस के दौरान कुलदीप सेंगर की ओर से वकील ने कहा कि विधायक कुलदीप की दो बेटी हैं, पत्नी है, वह सभी उनपर निर्भर हैं, उनपर परिवार की जिम्मेदारी है। सेंगर के वकील की इन दलीलों का अदालत पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा और सेंगर ताउम्र जेल  में बिताने की सजा सुना दी गई।

इस सजा को लेकर पीड़िता के परिवार ने संतोष जाहिर किया है, लेकिन इस क्रम में पीड़िता का पूरा परिवार बर्बाद हो गया।

ऐसे में अब यह सवाल उठ रहा है कि क्या देश की अदालतों में 76 जनप्रतिनिधियों के खिलाफ सुने जा रहे प्रकरणों में इस तरह ही सजा सुनाई जायेगी। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) की रिपोर्ट के अनुसार कम से कम 76 सांसदों और विधायकों के खिलाफ महिलाओं के खिलाफ जुर्म के मामले दर्ज हैं।

इन जन प्रतिनिधियों ने यह जानकारी खुद ही चुनाव आयोग को दी है। इनमें 58 विधायक हैं और 18 सांसद। इनमें से नौ सांसद और विधायक ऐसे हैं, जिन्होंने बलात्कार जैसे अपराध के मामले घोषित किए हैं। इनमें से ही एक विधायक बीजेपी के कुलदीप सेंगर थे, जिन्हें ताउम्र जेल में बिताने की सजा हुई है।

बीजेपी से निष्कासित हो चुके कुलदीप सेंगर सियासत की उस विष-बेल की सन्तति हैं, जिसके बीज यूपी की सियासी जमीन पर 1977 में ही बोये जा चुके थे। शुरू में थोड़ा संकोच था, लिहाजा इसे पनपने में वक्त लगा, लेकिन 80 का दशक खत्म होते-होते राजनीतिज्ञों के मन से अपराधियों को लेकर संकोच क्या टूटा, इस करामाती बेल ने सियासत का असली चेहरा ही ढंक दिया। अब अपराध और दबंगई ही यूपी की सियासत का कड़वा सच..हैं। जो जितना दबंग समाज में उसका उतना रुतवा, सत्ता में हनक। उन्नाव से बीजेपी सांसद साक्षी महाराज का जेल में कुलदीप सेंगर से मिलने जाना उसकी हनक को ही दर्शाता है।

कुलदीप सरीखे दबंग तमाम नेता बीते पैत्तीस -चालीस सालों में यूपी की राजनीति में एक बदनुमा दाग की तरह दर्ज हुए हैं। यूपी के राजनीतिक इतिहास को देखें तो पायेंगे कि 1977 से 1985 के बीच पूर्वाचल के कई दबंग विधानसभा पहुंचे थे। लेकिन वे सदन में अलग-थलग रहते थे। और बाकी विधायक इनसे बातचीत करने में भी परहेज करते थे।

यह लिहाज 1989 के बाद कम होने लगा और अब तो स्थिति ठीक उल्टी है। अब तो सत्तारूढ़ दल दागियों को मंत्रिपद देने में भी संकोच नहीं करते। मायावती की सरकार में जब एक इंजीनियर की हत्या को लेकर बसपा विधायक शेखर तिवारी को गिरफ्तार किया गया था, तब बीजेपी के प्रवक्ता हृदय नारायण दीक्षित ने कहा था कि राजनीति के अपराधीकरण की मौजूदा विकासमान यात्रा के बीज कांग्रेस ने बोये थे, लेकिन बाद में अपने लाभ के लिए सभी दलों ने इसे खाद-पानी दिया। जिसके चलते ही वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में ऐसे 143 लोग विधायक बन गए जिनके खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज थे।

इन 143 आपराधिक छवि वाले विधायकों में 114 बीजेपी, 14 सपा और पांच बसपा के हैं। तीन विधायक निर्दलीय हैं, जिन पर गंभीर मुकदमें दर्ज हैं। तीनों विधायक अपने-अपने क्षेत्र के बाहुबली माने जाते हैं। इन आंकड़ों में उन लोगों के लिए सवाल भी छिपे हैं, जिन्हें कुलदीप सेंगर के कृत्य पर उबकाइयां आ रहीं।

मौजूदा विधानसभा के सदस्य मुख्तार अंसारी और अमनमणि त्रिपाठी  चुनाव के वक्त हत्या के आरोप में जेल में थे, फिर भी चुनाव जीत गए। यह तो गनीमत है, कि जनता ने सपा, बसपा और कांग्रेस के तमाम दागी नेताओं को जीतने नही दिया। इन तीनों दलों ने बड़ी संख्या में दागी नेताओं को चुनाव मैदान में उतारा था। अपराधिक छवि के नेताओं को चुनाव मैदान में उतारने का सिलसिला बीते बीस सालों में बढ़ा है। एडीआर के एक अध्ययन में पाया गया है कि 2004 से 2017 तक यूपी में हुए विधानसभा और लोकसभा चुनाव में राजनीतिक दलों ने दबंग नेताओं को चुनाव मैदान में उतरने पर जोर दिया। और इस दौरान आपराधिक मामलों में लिप्त 38 प्रतिशत नेता संसद और विधानसभा में पहुंचे।

एडीआर के अध्ययन में यह भी पाया गया कि सपा, बसपा और बीजेपी ने आपराधिक प्रकरणों में लिप्त नेताओं को चुनाव लड़ाने में कभी भी संकोच नहीं किया है।  लेकिन राजनीति में ऐसे दबंग नेताओं को लाने की शुरुआत करने वाली अब इस मामले में पिछड़ गई है। इसकी वजह है,  कांग्रेस में ऐसे विधायकों की संख्या शायद इसलिए कम है क्योंकि राजनीति के तीव्र अपराधीकरण के पिछले दो दशकों में कांग्रेस सत्ता से बाहर रही, जबकि अपराधियों का मुख्य आकर्षण सत्ता ही है।

धारणा यह है कि राजनीति में अपराधियों का महिमामंडन सपा की देन है, लेकिन बीजेपी इस मामले में पीछे नहीं है। राजनीति के अपराधीकरण पर मोटे-मोटे आंसू बहाने वाली बीजेपी की कारस्तानी पर गौर करिये। इस पार्टी ने सपा प्रमुख मलायम सिंह को पटखनी देने की चाहत में पूर्व दस्यु सरगना तहसीलदार सिंह और दबंग डी.पी.यादव को उनके सामने टिकट दिया। बीजेपी ने लखनऊ में हिस्ट्रीशीटर अजीत सिंह व रेनू यादव (माफिया रमेश कालिया की पत्नी) तथा पूर्वाचल में कृष्णानन्द राय, चुलबुल सिंह, अजय राय व रमाकान्त यादव जैसे दबंगों को टिकट देने में रत्ती भर संकोच नहीं किया।

यह बीजेपी ही थी, जिसने 1997 में कल्याण सिंह सरकार बचाने के लिए अन्य दलों के आपराधिक पृष्ठभूमि वाले कई विधायकों को बेझिझक गले लगाया। सपा बेशक इस मामले में चैंपियन है। अरुण शंकर शुक्ल अन्ना को सपा नेतृत्व ने 80 के दशक में उस वक्त राजनीतिक मंच दिया था, जब अपराधियों को लेकर राजनीतिक दलों में थोड़ा बहुत संकोच बाकी था। सपा ने ही पूर्व दस्यु सुन्दरी फूलन देवी को संसद पहुंचाया, जबकि अमरमणि त्रिपाठी, मुख्तार अंसारी व सोनू सिंह को विधानसभा।

पूर्वाचल में रमाकान्त यादव, उमाकान्त यादव व मित्रसेन यादव, आनंद सेन को भी सपा ने टिकट देकर संसद या विधानसभा की राह दिखायी। बसपा सोशल इंजीनियरिंग के मौजूदा प्रयोग से पहले इस मामले में लगभग पाक-साफ थी, लेकिन 2002 विधानसभा चुनाव के बाद जब पार्टी ने सर्वसमाज के लिए दरवाजे खोले, तो दागी व आपराधिक पृष्ठभूमि वाले तमाम व्यक्ति बसपा में प्रवेश पा गए। मुख्तार अंसारी से लेकर शेखर तिवारी, आनन्दसेन यादव व गुड्डू शर्मा पंडित सरीखे तमाम आपराधिक छवि के नेता इस दल में रहे हैं और मायावती ने इन्हें पाक साफ बताया था जैसे बीजेपी ने कुलदीप  सेंगर को को बताया था।

जबकि बीजेपी के सभी बड़े नेता यह जानते थे कि कुलदीप सेंगर और उसका परिवार दबंगई करता है। चार भाइयों में सबसे बड़े कुलदीप को वर्ष 2002 के विधानसभा चुनावों में बहुजन समाज पार्टी का टिकट मिला। उन्नाव सदर सीट पर कुलदीप ने जीत का परचम लहराया। यहां से कुलदीप और उसके तीन भाइयों का वर्चस्व बढ़ता ही गया। कहते हैं कि हर राजनीतिक दल में कुलदीप की पकड़ थी। सरकारी अधिकारियों को धमकाकर काम कराना उसकी आदत थी। जो कुलदीप पर भारी पड़ते थे, उन्हें वह अपने बर्ताव से कायल कर लेता था। 2017 में कुलदीप बीजेपी के पाले में आ गया और बांगरमऊ सीट से चौथी बार विधायक बना।

उन्नाव में आज भी कुलदीप का इतना खौफ है कि कोई कुछ भी बोलने को तैयार नहीं है। शायद कुलदीप के इसी खौफ का आंकलन करते हुए कोर्ट ने रिकॉर्ड में मौजूद सबूतों के आधार पर माना कि बीजेपी से निष्कासित विधायक कुलदीप सिंह सेंगर से मिली धमकियों की वजह से पीड़िता शुरुआत में अपने साथ हुए अपराध का खुलकर खुलासा नहीं कर पाई।

और इसी आधार पर कोर्ट ने यह कहा कि मौजूदा केस से उन तमाम रोकों और बंदिशों का पता चलता है जिनमें ग्रामीण इलाकों में रहने वाली तमाम महिलाएं पलती, बड़ी होती हैं। इनसे गांव-देहातों में रहने वाली युवा लड़कियों के दिमाग में प्रभावशाली वयस्कों द्वारा यौन उत्पीड़न के बारे में रिपोर्ट दर्ज कराने को लेकर एक डर बैठ जाता है। इस डर को निकालने की दिशा में कोर्ट का फैसला कितनी बड़ी नजीर बनेगा, यह भविष्य बतायेगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, लेख में उनके निजी विचार हैं)

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