जुबिली न्यूज डेस्क
भारत में पारंपरिक रूप से लड़कियों की परवरिश इस तरह से की जाती है कि वो अच्छी पत्नी के साथ माँ बनें और शादी उनकी ज़िंदगी का सबसे अहम मक़सद होता है.
लेकिन अब बड़ी संख्या में महिलाएं अपनी आज़ादी के लिए अकेले चलने का रास्ता अपना कर सिंगल रहने का विकल्प चुन रही हैं. बीते रविवार को साउथ दिल्ली के कैरिबियन लॉउंज में दो दर्जन महिलाओं के साथ एक लंच में मैं शामिल हुई.कमरा उत्साहजनक बातचीत और हँसी ठहाके से भरा हुआ था.ये सभी महिलाएं भारत में शहरी ‘सिंगल वुमन’ की एक फ़ेसबुक कम्युनिटी ‘स्टेटस सिंगल’ की सदस्य थीं.
इस कम्युनिटी की फाउंडर और लेखिका श्रीमई पियू कुंडू ने वहाँ मौजूद सभी महिलाओं से कहा, “अपने को विधवा, तालाक़शुदा या अविवाहित कहलाना हमें बंद कर देना होगा. हमें ख़ुद को गर्व से ‘सिंगल’ कहना शुरू करना चाहिए.”
लंच में मौजूद महिलाओं ने उनकी बात पर ताली बजा कर ख़ुशी जताई. एक ऐसा देश जिसे आम तौर पर ‘शादी के लिए दीवाने’ के रूप में देखा जाता है, वहाँ अकेले जीने को लेकर अब भी काफ़ी भ्रांतियां हैं.
ग्रामीण भारत में, अकेली महिलाओं को उनके परिवार अक्सर बोझ के रूप में देखते हैं- अविवाहित को बहुत कम अधिकार होता है और विवधवाएं तो वृंदावन और वाराणसी जैसे पवित्र जगहों में निर्वासित हो जाती हैं.
कुंडू और दिल्ली पब में मिलीं महिलाएं काफ़ी अलग हैं. अधिकांश मध्य-वर्ग की पृष्ठभूमि से आती हैं. इनमें अध्यापक, डॉक्टर, वकील, प्रोफ़ेशनल, बिज़नेस वुमन, एक्टिविस्ट, लेखिका और पत्रकार शामिल हैं.
कुछ अपने पति से अलग हो गई हैं या तालाक़शुदा हैं या विधवा हैं जबकि दूसरी वे महिलाएं हैं जिन्होंने कभी शादी नहीं की.
भारत में कितनी हैं ‘सिंगल वुमन’?
संपन्न शहरी सिंगल महिलाओं को अच्छे उपभोक्ता के रूप में देखा जाने लगा है. बैंक, जूलरी मेकर्स, उपभोक्ता सामान बनाने वाली कंपनियां और ट्रैवल एजेंसियां उन्हें संपन्न ग्राहक के रूप में देखती हैं.
‘सिंगल वुमन’ बॉलीवुड फ़िल्म जैसे पॉपुलर कल्चर में भी जगह बनाने लगी हैं, उदाहरण के लिए ‘क्वीन’ और ‘पीकू’ जैसी फ़िल्में. ‘फ़ोर मोर शॉट्स प्लीज़’ जैसी वेब सिरीज़ में तो सिंगल महिलाएं तो मुख्य क़िरदार की भूमिका में हैं. ये वेब सिरीज़ व्यावसायिक रूप से काफ़ी सफल रहीं.
अक्टूबर में सुप्रीम कोर्ट ने फ़ैसला दिया कि अविवाहित समेत सभी महिलाओं को गर्भपात का अधिकार है. इसे शीर्ष अदालत द्वारा सिंगल महिलाओं के अधिकार को स्वीकार करने के रूप में देखा गया.
वो कहती हैं, “एक सिंगल महिला के रूप में मैंने भेदभाव और अपमान झेला है. जब मैं मुंबई में किराए का घर खोज रही थी, हाउसिंग सोसाइटी के सदस्य मुझसे पूछते थे कि क्या आप शराब पीती हैं? क्या आप सेक्सुअली एक्टिव हैं?”
वो एक गाइनीसे मिलीं जो ‘बातूनी पड़ोसी’ जैसी थीं. कुछ साल पहले जब उनकी मां ने एक संभ्रांत मैट्रिमोनियल साइट पर उनकी तरफ़ से विज्ञापन दिया था. इसके मार्फ़त उनकी मुलाक़ात एक आदमी से हुई जिसने “बातचीत के 15 मिनट के अंदर ही पूछ लिया कि क्या मैं वर्जिन हूँ?” वो कहती हैं, “ये ऐसा सवाल है आम तौर पर हर सिंगल महिला से पूछा जाता है.”
सिंगल महिलाओं की संख्या में बढ़ोतरी को इस तथ्य से समझा जा सकता है कि भारत में शादी की उम्र बढ़ गई है. इसका मतलब है कि 20-30 साल की उम्र वाली सिंगल महिलाओं की भारी संख्या है.
सामाजिक भेदभाव और तंगदिली
“बड़े होते हुए मैंने देखा है कि बिना मर्दों के साथ वाली महिलाओं को हमारे पितृसत्तात्मक, महिला विरोधी व्यवस्था में हाशिये पर धकेल दिया जाता है.”उन्हें गोदभराई और शादियों में नहीं बुलाया जाता और दुल्हन से दूर ही रहने को कहा जाता है क्योंकि विधवा की छाया तक को अपशकुन माना जाता है.”
44 साल की उम्र में जब उनकी मां को प्यार हो गया और उन्होंने दोबारा शादी की, उन्हें ‘समाज की नाराज़गी’ उठानी पड़ी.”एक विधवा दुखी न होने की हिम्मत कैसे कर सकती है? उसे एक रोती हुई, ब्रह्मचर्य का पालन करने वाली और दुखियारी महिला के रूप में देखने की उम्मीद की जाती है. दोबारा शादी करने की उसकी हिम्मत कैसे हुई?”
वो कहती हैं कि उनकी माँ के अपमान ने उन पर बहुत गहरा असर डाला. वो बताती हैं, “मैं शादी की चाहत रखते हुई बड़ी हुई. मैं उन परिकथाओं को मानती थी कि शादी स्वीकार्यता लाएगी और मेरा सारा अंधकार हर लेगी.”
लेकिन शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना देने वाली दो रिलेशनशिप के असफल होने और 26 साल की उम्र में शादी से बाल बाल बचने के बाद कुंडू को अहसास हुआ कि पारंपरिक शादी उनके लिए नहीं है जिसमें महिला एक पुरुष के अधीन हो. वो कहती हैं कि उनके लिए आदर्श रिलेशनशिप वो है जिसकी बुनियाद में रिवाज, धर्म या समुदाय की बजाय ‘सम्मान, बराबरी और पहचान हो.’
भारत आम तौर पर पर एक पितृसत्तात्मक समाज बना हुआ है, जहाँ 90% शादियां परिवार द्वारा तय की जाती हैं और महिलाओं की मर्जी कम ही चलती है. लेकिन 44 साल की भावना दहिया, जो गुरुग्राम में लाइफ़ कोच हैं, उन्होंने शादी की ही नहीं. वो कहती हैं कि चीजें बदल रही हैं और ‘सिगल वुमेन’ की बढ़ती संख्या पर खुशी मनानी चाहिए.
वो कहती हैं, “हो सकता है कि हम समंदर में अकेली बूंद की तरह हों, लेकिन कम से कम अब वो बूंद तो है.अकेली महिलाओं के जितने अधिक उदाहरण होंगे, उतना ही अच्छा. पारम्परिक रूप से, बातचीत का सारा विषय पति के करियर, उसकी योजना, बच्चों के स्कूल के बारे में होते थे, जिसमें महिलों की मर्ज़ी के बारे में बहुत कम ही सोचा जाता था, लेकिन बातचीत का अब ये ढर्रा बदल रहा है. “हम दुनिया में अपनी मौजूदगी दर्ज कर रहे हैं.”