Thursday - 31 October 2024 - 6:47 AM

डंके की चोट पर : पॉलिटीशियन और लीडर का फर्क जानिये तब दीजिये वोट

शबाहत हुसैन विजेता

ज़िम्बाब्वे की यूनीवर्सिटी में पढ़ाया जा रहा है कि पॉलिटीशियन को कभी लीडर समझने की भूल नई करना चाहिए. पॉलिटीशियन लीडरशिप के बारे में कुछ नहीं जानता है, उसका कंसर्न अगले इलेक्शन से जुड़ा होता है, जबकि लीडर का कंसर्न अगली पीढ़ी से जुड़ा होता है. पॉलिटीशियन का मकसद सिर्फ जनता का वोट हासिल करना होता है. पब्लिक को लीड करना उसका मकसद होता ही नहीं है. पॉलिटीशियन का फोकस अगला इलेक्शन होता है. उसी के हिसाब से वह योजनायें तैयार करता है. उसकी योजनाओं में जो सड़कें और पुल होते हैं उनका मकसद सिर्फ अगले चुनाव में वोट हासिल करना होता है. उससे इस बात से कोई मतलब नहीं होता है कि विकास के रास्ते को कैसे उस तरफ मोड़ा जाए जो आने वाली पीढ़ी को विकास के रास्ते पर ले जा सके.

हिन्दुस्तान के पांच राज्यों में चुनाव का उत्सव चल रहा है. पॉलिटीशियन दरवाज़े-दरवाज़े घूमकर वोटों का गणित अपनी पार्टी की तरफ करने के मकसद से रात-दिन एक किये हुए हैं. चुनाव आयोग ने जो गाइडलाइंस तय की हैं उसकी रोजाना धज्जियां उड़ रही हैं. देश का गृहमंत्री सैकड़ों लोगों की भीड़ के साथ दरवाज़े-दरवाज़े वोट मांग रहा है. उसका इस बात से कोई लेना देना ही नहीं है कि कोरोना किस तेज़ी से फैल रहा है. उसका मकसद सिर्फ यह है कि उसे ज्यादा से ज्यादा वोट मिल जाएं.

उत्तर प्रदेश में पांच साल से जिस पार्टी की सरकार है वह पार्टी घूम-घूमकर लोगों को पलायन का डर दिखा रही है. लोगों को हिन्दू-मुसलमान में बांटा जा रहा है. नफरत की आंधी तेज़ और तेज़ करने की प्लानिंग चल रही है. नतीजों की परवाह किसी को नहीं है.

हिन्दुस्तान की आज़ादी को 75 साल गुज़र गए. इन 75 सालों में हिन्दू-मुसलमान मिलजुलकर रहते रहे. एक दूसरे की मदद से देश को तरक्की के रास्ते पर ले जाते रहे. इस दौरान एक प्रधानमंत्री को उसके ही घर में उसके ही सुरक्षाकर्मियों ने गोलियों से बींध दिया और एक पूर्व प्रधानमन्त्री को उस वक्त बम से उड़ा दिया गया जब वह बड़ी तेज़ी से प्रधानमंत्री बनने वाले रास्ते पर दोबारा चल पड़ा था.

इन 75 सालों में देश ने एक सीमान्त गांधी को भी देखा जिसने कभी हिन्दुस्तान-पाकिस्तान के बंटवारे को क़ुबूल नहीं किया और वह जब चाहे बगैर पासपोर्ट वीजा के हिन्दुस्तान में रहा और जब चाहे पाकिस्तान चला गया. यह सीमान्त गांधी इतना ताकतवर था कि प्रधानमंत्री को भी भीड़ में डांट देता था और प्रधानमंत्री कोई जवाब नहीं देता था.

इन 75 सालों में देश ने ऐसा प्रधानमंत्री भी देखा जो फटी धोती पहनकर विदेश भी चला जाता था क्योंकि उसके लिए नई धोती खरीदने से ज्यादा बच्चो की पढ़ाई और उनके खाने का इंतजाम करना था.

इन 75 सालों में देश ने एक ऐसा प्रधानमंत्री भी देखा जिसने नेता विपक्ष को देश का नेतृत्व करने के लिए इसलिए अपनी जगह पर अमेरिका भेजा ताकि वहां उसका सही इलाज हो जाए और वह मरने से बच जाए. इतना बड़ा अहसान करने के बाद भी प्रधानमंत्री न खुद किसी को यह बात बताये और न ही नेता विपक्ष को इस बात की इजाजत दे कि वह किसी और से कहे.

इन 75 सालों में देश ने एक ऐसा भी प्रधानमंत्री देखा जो किसी की भैंस चोरी का मुकदमा लिखाने थाने चला गया था और थाने में किसी भी पुलिसकर्मी ने यह पहचाना नहीं था कि रिपोर्ट दर्ज कराने आया व्यक्ति देश का प्रधानमंत्री है.

यह देश ऐसे ही सोने की चिड़िया थोड़े ही कहा गया. ऐसे ही इस देश में हुमायूं और कर्मवती की वजह से रक्षाबंधन का त्यौहार शुरू हो गया. ऐसे ही लखनऊ में वाजिद अली शाह ने होली का जुलूस शुरू करवा दिया. ऐसे ही नवाबीने अवध ने भंडारे की प्रक्रिया शुरू करवा दी जो आज तक चलती आ रही है.

दरअसल पहले लीडर होते थे. लीडर जो नेक्स्ट जनरेशन से कंसर्न रखते थे. लीडर जिन्हें आने वाले दौर के हिन्दुस्तान की फ़िक्र होती थी. लीडर जो सिर्फ परचा भरकर चुनाव जीत जाते थे. लीडर जिन्हें चुनाव में झूठ और मक्कारी के रास्ते से गुजरने की ज़रूरत नहीं होती थी. लीडर जो अपने दरवाज़े पर आये फरियादी की फ़रियाद सुनते वक्त उसका धर्म नहीं पूछते थे.

दौर बदला और लीडर पॉलिटीशियन में बदल गए. पॉलिटीशियन जिनका कंसर्न सिर्फ चुनाव जीतना भर रह गया है. पॉलिटीशियन जो नफरत फैलाकर भी चुनाव जीतना चाहते हैं. पॉलिटीशियन जो भाई-भाई के बीच दीवार उठाकर भी कुर्सी पर बैठे रहना चाहते हैं. पॉलिटीशियन मतलब वह शख्स जो येन-केन-प्रकारेण सिर्फ सत्ता का सुख भोगते रहना कहते हैं. पॉलिटीशियन जो दिल से भी अपराधी हैं, दिमाग से भी अपराधी हैं और अपने क्रियाकलाप से भी अपराधी हैं.

देश पॉलिटीशियन से नहीं लीडर से ही बदलेगा. चुनावी दौर है जनता को दरवाज़े पर वोट मांगने आये शख्स के भीतर झांककर देखना होगा कि वोट मांगने वाला पॉलिटीशियन है या फिर लीडर. लीडर के बजाय पॉलिटीशियन को वोट दे दिया तो उसका मकसद सिर्फ अगले इलेक्शन पर ही टिका रहेगा. आने वाली पीढ़ी को छोड़िये मौजूदा दौर की पीढ़ी को भी वह श्मशान और कब्रिस्तान के रास्ते पर लाकर खड़ा कर देगा.

ज़िम्बाब्वे की यूनीवर्सिटी के प्रोफ़ेसर जो अपने देश की नई पीढ़ी को पढ़ा रहे हैं, दरअसल वही शिक्षा हिन्दुस्तान की यूनीवर्सिटी के लिए भी ज़रूरी हो गई है. धर्म के नाम पर इंसानों के बीच लकीर खींचने का जो घिनौना खेल हिन्दुस्तान में खेला जा रहा है उससे बचने की पहल छोटे-छोटे देश शुरू कर चुके हैं. यह पहल कब हमारे देश में शुरू होगी, इसी सवाल का जवाब ही हमारे देश का भविष्य तय करेगा.

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