Friday - 25 October 2024 - 7:22 PM

गांव किसान का दर्द और बहस खेती बनाम पूंजी की

डॉ सी. पी. राय

इस समय किसान के खेत का आलू और सब्ज़ियाँ आने लगी तो कितना सस्ता मिल रहा है सब । उससे पहले व्यापारी के गोदाम का था तो आलू ही 50/60 मिल रहा था जिसे गरीब की सब्ज़ी कहते है । यही हाल सब चीज़ का है ।

किसान पूरी मेहनत से पैदा करता है पर उसके पास भंडारण की क्षमता नही है और 80 प्रतिशत किसान छोटे या सीमान्त किसान है जो सिर्फ उतना ही पैदा कर पाते है की वो खा ले और बाकी बेच कर उसे तत्काल कर्ज चुकाना होता है।

इलाज करवाना होता है जो वो रोके होता है फसल तक ,जरूरी कपडा हो या खेती का सामान या फिर गाय भैस सब उसी मे से आगे पीछे करना होता है ।बच्चों की किताब हो या बेटी को शादी सब करना होता है कुछ नकद और कछ उधार जो उसे गांव या पास के व्यापारी से मिल पाता है खेत और फसल की गारन्टी पर पैसे की सीमा के अनुसार। इन्ही तत्कालिक जरूरतों के कारण उसे खाने लायक रोक कर अपनी फसल तत्काल बेचना होता है और इसी बात का फायदा उठाता है व्यापारी ।

एक बार मैने प्रैक्टिकल करने के बाद लिखा था जब मैं आगरा की मंडी के पास एक कालेज में गया था तो सोचा की जरा सेब का भाव देखा जाये तो वहां 5 किलो या ज्यादा लेने पर सेब 40 रुपया किलो मिल रहा था। मंडी के बाहर की ठेल वाले से पूछा तो 60 हो गया था। फिर केवल 1 किलोमीटर दूर सिकंदरा पर खड़ी ठेले वाले से पूछा तो 80 हो गया।

जब और आगे खन्दारी पर पूछा तो 90 और 100 था और जब शहर के अंदर हरी पर्वत चौराहा पर पूछा तो 120 से कम करने को तैयार नही था। जिस समय आलू पैदा होता है किसान के खेत से 2 रुपए किलो तक चला जाता है और कभी कभी बोरे की कीमत मे। कभी तो ये हाल हो जाता है कि किसान वहीं बाहर आलू फेंक देता है की जो ले जाना चाहे वो ले जाये। गन्ने के साथ भी हम अक्सर देखते है की गन्ना खेत में ही जला देते है और टमाटर सड़क पर फेंकते दृश्य भी देखें है।

पर कभी बिस्किट, कोक, या फैकट्री की चीजे फेंकते तो नहीं देखा न दवाई केचप या चिप्स। और अगर कोई कारण फेकने का आया तो मालिक खुद फैक्ट्री में आग लगवा कर उससे ज्यादा इन्शुरेन्स वसूल लेता है पर किसान के मामले मे इन्शुरेन्स वाला 10 हजार करोड़ कमाता है और हजारो किसान आत्महत्या करते हैं क्योकि उनका इन्शुरेन्स उनका वाजिब मुआवजा देता ही नही है।

नेता बड़े बड़े वादे किसानों से करते है पर विपक्ष में और सत्ता में आते ही पूंजीपतियों के पाले मे खड़े हो जाते है इसलिए किसान बदहाल है वर्ना एक समय तक तो पूरा भारत इसी खेती से ही जिन्दा था और सोने की चिडिया था। तब कहां थे कारखाने और पूंजीपति।

यहां तक की लाक डाउन मे भी जब सब बंद था होटल कारखाने जहाज कारे और कपडे भी आल्मारी में थे तो जरूरत सिर्फ खाने का अन्न, सब्जी दूध सभी को और जो बीमार थे उनको दवाई की पड़ी और किसान ने कोई चीज कम नहीं होने दिया।

जब मंदी का असर भी कही आता है तो कल कारखाने और दफ्तर लडखडाते हैं पर खेती उस समय भी देश और समाज को सहारा देती है थामती है और देश को डूबने नही देती। पर इसका उतना ही उपेक्षित रखा गया और रखा जा रहा है जबकी अमरीका इंग्लैण्ड जैसे देश खेती को भारी आर्थिक सहायता देते है ।

एक सवाल हमेशा से कचोटता है कि जो लोग हमारे सामने जमीन पर रख कर थोडा सा सामान बेच रहे थे या साइकिल पर बेच रहे थे या छोटा मोटा लकडी का खोखा लगाकर बेच रहे थे वो देखते देखते बडी पक्की दुकान के मालिक हो गये, बडी बडी कोठियो के मालिक हो गये यहां तक की फैक्ट्री और होटलों के मालिक हो गये और उनके परिवारो मे जितने लडके होते गये उनके उतने करोबार और कोठियां बढती गई।

जब सवाल करो तो कहा जाता है कि उसने पैसा लगाया और मेहनत की। पर किसान भी तो पैसा लगाये बैठा है और अधिकतर मामलों मे इन व्यापारियों से ज्यादा क्योकि किसान का खेत लाखो का है। उसमें वो खर्च भी करता है बीज पानी खाद पर और दिन रात जाड़ा गर्मी बरसात उसमे पसीना बहाता है।

बिना जान की परवाह किये उसकी रखवाली करता है और कभी बाढ़ तथा कभी सूखा और कभी फसल तथा पशु की बीमारियो का सबसे ज्यादा रिस्क भी लेता है तो किस मामले मे वो व्यापारी से पीछे है ये सवाल सत्ताओ से भी है और समाज से भी।उसकी फसल प्राकृतिक आपदा का शिकार होती है तो उसे नाम मात्र का मिलता है ।और बडा सवाल है की व्य्पारी के बच्चे बढे तो व्यापार और घर बढ़ जाते है पर किसान के खेत और मकान छोटे होते जाते है क्यो ?

किसी किसान को बड़ा होते नही देखा अगर उसके परिवार के कुछ लोग नौकरी या किसी व्यापार मे लग गये तभी उसका जीवन थोडा ठीक होता है वर्ना उसका बेटा फौज मे जाकर जान हथेली पर लिये सिर्फ इसलिए खड़ा रहता है किसी भी परिस्थिती मे सीमा पर ताकी साल के अन्त मे वो कुछ पैसे बचा कर गांव ले जाये जिससे घर की कुछ जरूरते पूरी हो सके ।

जहां तक फसल कहीं भी बेचने का सवाल है वो नियम पहले से है पर 70 % से ज़्यादा किसान अपने ब्लॉक या पास की मंडी के बाहर कभी नहीं जाते क्योंकि उतना उत्पादन ही नही है । उनके निकट मंडी बना और हर हाल में उनकी उपज ख़रीद कर और स्वामीनाथन आयोग के अनुसार मूल्य देकर तथा उद्योग की तरह सुरक्षा और इंश्योरेंस देकर ही उसका भला किया जा सकता है तथा उसे कृषि में और गाव में रोका जा सकता है।

गांधी जी की दृष्टि आज भी ठीक है की आसपास के 20 गांव अपनी ज़रूरतें वहीं से पूरा करे इसके उनका मतलब उन सब चीज़ को भी वही डेवलप करने से था जिनकी ज़रूरत पड़ती है स्कूल कालेज अस्पताल तथा स्थानीय उपज से जुड़े छोटे उद्योग भी। नौकरी वालो की तन्ख्वाह पिछ्ले 25सालो मे 250 गुना तक बढी और पूंजीपतियों की संपत्ति तो हजारो गुना पर किसान के फसल की कीमत 19या 20भी मुश्किल से कुछ चीजो की ।

व्यापारी का लाखों करोड़ों का कर्जा सरकार माफ कर देती है या बट्टे खाते मे डाल देती तो किसान को भी उतनी ही मदद क्यों नही देती। नौकरी बाले के बच्चों को अगर पढाई का मिलता है, घर मिलता है उसका मेन्टीनेंस मिलता है, फ़्री बिजली मिलती है, मेडिकल मिलता है घूमने का पैसा मिलता है तो किसान के बच्चे की पढाई और उसका इलाज क्यो न मिले ?

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उसको फ़्री नही तो सस्ती बिजली और डीजल क्यों न मिले, उसकी बेटी की शादी की सहायता क्यों न मिले ? उसको चाहे 10 साल में एक बार ही सही घर ठीक कराने के पैसे क्यों न मिले और प्राकृतिक आपदा आने पर उसका कर्जो माफ क्यों न हो ? भारत का मूल गांव, किसान और खेती है उसे मजबूत करना ही होगा गांव को शहरो की बराबरी पर विकसित करना ही होगा ।

क्या ये तय नहीं हो सकता कि जो शहर मे एक स्कूल कालेज ,अस्पताल और फैक्ट्री बना रहे है उन्हे उस जिले के गाँव मे भी बनाना ही होगा और उसके लिये लाल फीताशाही खत्म कर, पुलिस का आतंक और शोषण खत्म कर उसे गांव में लोगों को सुरक्षा का एहसास कराने की मूल जिम्मेदारी देकर तैयार करना होगा जिससे ये सब खोलने वाले तथा उसमे काम करने वाले शौक से गांवो मे जाने को तैयार हो ।

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बहस बडी है पर समय भी बडा है तो कोई तो होगा जो बडा सोचेगा महात्मा गांधी के संदेश समझेगा और भारत को कर्जो से लड़े तथा जनता के पैसे से बडा आदमी बने लोगो का देश नही बल्की खुशहाल गाँव और खुशहाल लोग वाला भारत बनाएगा । पर पहले उन सवालो का जवाब ढूढना होगा और सत्ता को जवाबदेह होना होगा जो ऊपर उठे है ।

लेखक स्वतंत्र राजनीतिक चिंतक और वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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