कुमार भवेश चंद्र
साल के आगाज़ के साथ दिल्ली के तख्त के लिए सियासी चहल पहल तेज होने के संकेत मिलने लगे हैं। अगले ही महीने दिल्ली प्रदेश में नई सरकार को शपथ लेना है। मौजूदा केजरीवाल सरकार का कार्यकाल 22 फरवरी को समाप्त हो रहा है। जाहिर है इससे पहले नई सरकार चुनने के लिए दिल्ली विधानसभा की 70 सीटों के लिए किसी भी वक्त चुनाव का ऐलान हो सकता है।
साल की शुरुआत में दिल्ली का तख्त सियासी तापमान बढ़ाने वाला है तो इसका अंत होगा बिहार के चुनाव से जहां इस साल नवंबर तक नई सरकार का गठन होना है। मौजूदा नीतीश सरकार का कार्यकाल 29 नवंबर को समाप्त हो रहा है।
दोनों ही राज्यों में होने वाले चुनाव उन राज्यों की मौजूदा सरकार के लिए परीक्षा का सबब तो बने ही हैं। ये चुनाव इसलिए भी अहम होते जा रहे हैं क्योंकि बीजेपी के डबल इंजन वाले फार्मूले को कई राज्यों ने ठुकरा दिया है। और इसी लिहाज से दिल्ली और बिहार के विधानसभा चुनाव पर सबकी नज़र है।
अब देखना ये है कि दिल्ली और बिहार की जनता क्या फैसला सुनाती है? दिल्ली की तितरफा लड़ाई में केजरीवाल कहां जगह बनाते हैं, आमतौर पर दो तरफा मानी जाने वाली बिहार की चुनावी लड़ाई में नीतीश कुमार कितने खड़े उतरते हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी के लिए चुनौती ये है कि क्या वह राज्यों में सिमट रहे प्रभाव को इन दो राज्यों में रोक पाने में कामयाब हो पाती है या एक बार फिर झटका ही उनके हिस्से में आता है।
दिल्ली चुनाव की कहानी बहुत ही दिलचस्प है। साल की शुरुआत में ही होने वाले इस चुनाव के लिए बीजेपी ने अपने पासे फेंकने शुरू कर दिए हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने साल की शुरुआत से पहले ही एक एक रैली करके जरिए दिल्ली का चुनावी माहौल गरमा दिया है। केजरीवाल ने भी चुनावी आहट के साथ सियासी दांव फेंकने तेज कर दिए थे। महिलाओं को मुफ्त बस यात्रा को उनका बड़ा दांव माना जा रहा है। इसके अलावा उनकी पार्टी शिक्षा, स्वास्थ्य और नगर विकास के क्षेत्र में अपने काम को बड़ी उपलब्धि बता रही है। सत्ता में होने का लाभ उठाते हुए आम आदमी पार्टी ने टीवी चैनलों पर अपनी सरकार की उपलब्धियों का बखान करते विज्ञापनों की बरसात शुरू कर दी है।
दिल्ली की ये सियासी लड़ाई बड़ी दिलचस्पी इसलिए भी पैदा कर रही है, क्योंकि यह देश की मिली आबादी का मूड भी बताता है। दिल्ली में पूर्वांचल की सियासत का तड़का लगाकर बीजेपी यह दांव अपने पाले में करना चाहती है। कांग्रेस ने इस लड़ाई को तिकोना बनाते हुए बीजेपी सरकार के विवादित फैसलों को ही धार देने का संकेत तो दिया ही है। वैसे दिल्ली के विकास मॉडल को लेकर उसका अपना अप्रोच भी है।
लोकसभा चुनाव के नतीजे के बाद सांसद रहे संदीप दीक्षित का बयान याद करिए। दीक्षित ने कहा था, “ मैं पूरे भरोसे के साथ कह सकता हूं कि यदि बालाकोट स्ट्राइक नहीं हुआ होता तो बीजेपी 180 सीटें भी नहीं जीत पाती। बालाकोट की वजह से बीजेपी को लगभग 100 सीटों का फायदा हुआ है।”
वैसे संदीप की बात को वजन इस बात से भी मिलता है कि दिल्ली की सीटें जीतने के लिए बीजेपी को गायक हंसराज हंस और क्रिकेटर गौतम गंभीर को मैदान में उतारना पड़ा। अब देखना है कि दिल्ली विधानसभा चुनाव में बीजेपी कैसे कैसे दांव आजमाती है।
जहां तक बिहार में चुनावी तस्वीर की बात है तो पड़ोसी राज्य झारखंड ने कुछ संकेत दिया है। लेकिन तस्वीर अभी साफ होनी बाकी है। जेडीयू और बीजेपी की दोस्ती को लेकर भी कई सवाल हैं। जेडीयू के उपाध्यक्ष प्रशांत किशोर ने अपनी पार्टी को बड़े भाई की भूमिका लाने की भूमिका बना ली है।
2019 में बराबर सीटों पर लड़ने वाली जेडीयू विधानसभा के चुनाव में बीजेपी से अधिक सीटों की बात करने लगी है। प्रदेश में बीजेपी के साथ खट्टे मीटे रिश्ते निभा चुके नीतीश और उनकी पार्टी क्या रुख अपनाएगी इसका अनुमान इस वक्त करना वाजिब नहीं रहेगा। लेकिन केंद्र में सहयोग के बावजूद अपनी पार्टी के सांसदों के मंत्रिपरिषद में शामिल करने का प्रस्ताव ठुकरा चुके नीतीश के मन में क्या चल रहा है, इसे अभी से नहीं समझा जा सकता।
पड़ोसी राज्य झारखंड में मजबूत होने वाली कांग्रेस और आरजेडी का साथ स्थायी है। वे अपने गठबंधन में किसे जगह देते हैं ये अभी भविष्य के गर्भ में हैं। इन सबके बीच बीजेपी अपने लिए वहां बड़े सपने नहीं देख रही, इसे इनकार करना आसान नहीं। जाहिर है बिहार का चुनावी रण सबसे जटिल है और बहुत कुछ भविष्य के गर्भ में है। वहां कुछ दिलचस्प समीकरण उभरने की पूरी उम्मीद है। बिहार के सियासी संकेत बीजेपी के लिए हमेशा मुश्किलें पैदा करते रहे हैं। जाहिर है बीजेपी के चाणक्य के दिमाग में बहुत सारे सवाल आ-जा रहे होंगे।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, लेख उनके निजी विचार हैं)
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