शबाहत हुसैन विजेता
कश्मीर में इंटरनेट सेवा बहाल हो गई है। सेना को कम किया गया है और सड़कों पर लोगों की आवाजाही बढ़ने लगी है। हालात को सामान्य होने की दशा में अग्रसर बताया जा रहा है। कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है, लेकिन आज़ादी के बाद से अब तक सबसे ज्यादा ज़ख्म कश्मीर और कश्मीरियों ने ही झेले हैं। पाकिस्तान पोषित आतंकवाद का सबसे ज्यादा शिकार कश्मीर ही बना है। तीस साल पहले कश्मीर से बेदखल किये गए कश्मीरी पंडितों के साथ आज तक इंसाफ नहीं हो पाया।
कश्मीरी पंडितों के साथ हुई नाइंसाफी को लेकर सोशल मीडिया पर पिछले कुछ सालों से लगातार हंगामा चल रहा है। लगातार यह सवाल उठते रहे हैं कि कश्मीरी पंडितों को इंसाफ दिलाने की दिशा में पूर्व की सरकारों ने क्या कदम उठाये। हद तो यह है कि यही सवाल मौजूदा सरकार का भी है कि कश्मीरी पंडितों के साथ इंसाफ क्यों नहीं हुआ?
मौजूदा सरकार आवाज़ उठाती है तो ज़ेहन में 1990 की 19 जनवरी की तारीख जीवंत हो उठती है। 19 जनवरी 1990 को केन्द्र में भारतीय जनता पार्टी के सहयोग से विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार थी। कश्मीर में राष्ट्रपति शासन था और जगमोहन वहां पर गवर्नर की ज़िम्मेदारी निभा रहे थे। राष्ट्रपति शासन के दौरान 4 लाख कश्मीरी पंडितों को एक साथ कश्मीर से बेदखल कर दिया गया।
कश्मीर में 1990 में हुई बड़े पैमाने पर हिंसा की वजह से कश्मीरी पंडितों को अपना सब कुछ छोड़कर भागना पड़ा था। विश्वनाथ प्रताप सिंह के बाद चंद्रशेखर, नरसिम्हा राव, इन्द्र कुमार गुजराल, एच।डी। देवगौड़ा, अटल बिहारी वाजपेयी, डॉ। मनमोहन सिंह और नरेन्द्र मोदी प्रधानमन्त्री की कुर्सी पर बैठे लेकिन कश्मीर छोड़कर निकलने को मजबूर हुए कश्मीरी पंडितों की वापसी नहीं हो पायी।
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कश्मीरी पंडितों की वापसी के लिये किसी नये क़ानून की ज़रूरत नहीं थी। किसी क़ानून में बदलाव की ज़रूरत नहीं थी। कश्मीरी पंडितों को उनके घर वापस पहुंचाने के लिए सिर्फ सरकार के पास एक मज़बूत इच्छा शक्ति की ज़रुरत थी। केन्द्र में सरकारें बदलती रहीं लेकिन न कश्मीर में आतंकवाद रुका और न पत्थरबाजों पर अंकुश लग पाया। केन्द्र सरकार ने जब 35 ए को हटाना चाहा तो कश्मीर में सेना बढ़ाकर उसे हटा दिया। विरोध के सुर जहाँ से भी उठे उसे जेलों में ठूस दिया। न कोई अलगाववादी नेता बोल पाया और न पूर्व मुख्यमंत्री ही कुछ कह पाए लेकिन यही ताकत कश्मीरी पंडितों को इन्साफ दिलाने के लिए किसी भी सरकार ने इस्तेमाल नहीं की।
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1990 में कश्मीर में जिस तरह के हालात थे उसे तत्कालीन गवर्नर जगमोहन की किताब माई फ्रोजेन टर्बुलेंस इन कश्मीर से समझा जा सकता है। यह शर्मनाक स्थिति है कि किसी गवर्नर को इस तरह की किताब लिखने को मजबूर होना पड़े। इससे भी ज्यादा शर्मनाक यह है कि इतनी सरकारें बदल जाने के बावजूद कश्मीरी पंडितों को तीस साल से अपने घर में वापस लौटने के हालात नहीं बन पाए।
आतंकवाद एक भीषण समस्या है लेकिन उसके सामने हथियार डालकर तो नहीं बैठा जा सकता। आम आदमी सरकार इसी वजह से चुनता है कि सरकार उसकी रक्षा करे। सरकार के हाथ में इतनी ताकत इसी वजह से ही तो दी जाती है कि उस ताकत का इस्तेमाल उसकी सुरक्षा के लिए किया जाए। नरेन्द्र मोदी सरकार ने कश्मीर में 35 ए हटाने के लिए जिस इच्छा शक्ति और ताकत का इस्तेमाल किया और उसमें कामयाब हुए उसने यह बात साबित कर दी है कि पिछले तीस साल में किसी भी सरकार की इच्छा शक्ति कश्मीरी पंडितों को वापस उनके घर ले जाने की नहीं थी।
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19 जनवरी 1990 को कश्मीर में अपने घर में ताला लगाकर निकले कश्मीरी पंडित यह भी नहीं जानते कि उनके घरों में उन्हीं का ताला लगा है या फिर उनके घरों में किसी और ने क़ब्ज़ा कर लिया है। अपना घर छोड़कर निकलने को मजबूर हुए आशीष कौल उन दिनों पढ़ाई कर रहे थे। इन दिनों आशीष कश्मीर पर लिखी अपनी दो किताबों की वजह से चर्चा में हैं। दो साल पहले आशीष कौल अपने परिवार के साथ जम्मू में दीवाली मनाने गए थे। वापसी में जब जहाज़ उड़ा तो आशीष कौल ने अपनी छोटी सी बेटी को कश्मीर की तरफ इशारा करते हुए बताया कि यहीं कहीं पर हमारा भी घर है। बेटी ने पूछा कि हम अपने घर कब चलेंगे तो उनकी आँखें भीग गईं।
चार लाख लोगों की आँखों के आंसू तीस साल से यही जवाब तलाश रहे हैं कि हम कब वापस लौट पायेंगे अपने घर। निश्चित रूप से यह सियासी मुद्दा नहीं है। यह क़ानून व्यवस्था का मुद्दा है। तीस सालों में राज्य और केन्द्र में जो सरकारें रहीं यह उनका फेल्योर है। अपनी सरकार चुनने वाले हर नागरिक के अधिकार हैं। पहला अधिकार उनकी सुरक्षा का अधिकार है। अगर कोई नागरिक अपने घर में ही सुरक्षित नहीं रह पाए तो यह सवाल तो पूछा ही जाना चाहिए कि 19 जनवरी 1990 को विश्वनाथ प्रताप सिंह और उनकी सरकार क्या कर रही थी? इस सरकार के बाद जो सरकारें आयीं क्या उनकी प्राथमिकता में कश्मीर और कश्मीरी पंडित नहीं थे? मौजूदा सरकार से भी यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि पिछले पांच सालों में इस दिशा में उन्होंने क्या किया और अपनी सरकार के दूसरे कार्यकाल में इस दिशा में क्या प्रगति हुई?
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कश्मीरी पंडितों का मसला न सोशल मीडिया का मुद्दा है और उन बिकी हुई कलमों पर भरोसा किया जा सकता है जो कश्मीरी पंडितों का मुद्दा उठाकर सरकार के सामने कवच बनकर खड़े हैं। यह सवाल सिर्फ सरकार से पूछा जाना चाहिए। सरकार को भी एक ऐसा इंतजाम करना चाहिए कि अपने घरों से बेदखल लोग अपने घरों को वापस लौटें।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, लेख में उनके निजी विचार हैं)