Wednesday - 19 February 2025 - 1:30 PM

संस्कृति एवं साहित्य में बेहद प्रगाढ़ता है काशी और द्रविड़ की

शशिकांत मिश्र

भारत की सांस्कृतिक और साहित्यिक विरासत में काशी और द्रविड़ क्षेत्र की गहरी जड़ें हैं। काशी, जिसे वाराणसी के नाम से भी जाना जाता है, प्राचीन भारत की सांस्कृतिक राजधानी मानी जाती है।

यह न केवल सनातन धर्म और आध्यात्मिक चिंतन का केंद्र रही है, बल्कि साहित्य, संगीत, कला और दर्शन के क्षेत्र में भी इसका अतुलनीय योगदान रहा है। वहीं, द्रविड़ संस्कृति दक्षिण भारत की प्राचीनतम परंपराओं को संजोए हुए है, जो तमिल, तेलुगु, कन्नड़ और मलयालम जैसी समृद्ध भाषाओं और साहित्यिक धरोहरों से जुड़ी है।

साहित्य में इस बात के कई प्रमाण मिलते हैं कि तमिलों की काशी और बाबा विश्वनाथ के प्रति सदियों से अगाध श्रद्धा रही है। आम जनमानस के साथ ही तमिल शासक और प्रबुद्ध वर्ग भी लगातार काशी की यात्रा करते रहे हैं।

ऐतिहासिक प्रमाण बताते हैं कि लगभग 2300 वर्ष पहले तमिलनाडु के नगरों और गांवों की गलियां काशी की महिमा का गुणगान करने वाले गीतों से गूंजा करती थीं। लगभग 2000 वर्ष पहले से ही तमिल समाज में काशी यात्रा का प्रचलन शुरू हो गया था।

तमिल भाषा अत्यंत समृद्ध रही है, जिसका प्रमाण अगटिटयम अगस्त्यम नामक प्राचीन व्याकरण ग्रंथ है, जिसका रचना काल ईसा पूर्व माना जाता है।

संस्कृत के पाणिनि के अष्टाध्यायी की तरह, इसे भी शिव के डमरू की ध्वनि से उत्पन्न बताया जाता है। संस्कृत और तमिल व्याकरण के बीच यह ऐतिहासिक संबंध संभवतः संगम काल के दौरान स्थापित हुआ होगा।

ऐसा कहा जाता है कि प्रथम तमिल संगम मदुरै में आयोजित हुआ था, जब पांड्य राजाओं की राजधानी वहीं थी। इस संगम में अगस्त्य, शिव और मुरुगवेल जैसे विद्वानों ने भाग लिया था।

दूसरा संगम कपातपुरम में आयोजित हुआ, जिसे इतिहास का सबसे बड़ा संगम माना जाता है। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर डॉ. विशुद्धानंद पाठक के अनुसार, इस संगम में उत्तर और दक्षिण भारत के विद्वानों ने मिलकर विमर्श किया।

हालांकि, पहले दो संगमों के बारे में विद्वानों में मतभेद हैं, लेकिन उस काल के तोल्काप्पियम ग्रंथ का अस्तित्व आज भी है। इसके रचनाकार तोल्काप्पियर थे, जिन्होंने तमिल का दूसरा व्याकरण ग्रंथ लिखा। तमिल साहित्य में हर रचना तमिल अस्मिता को दर्शाती है।

समय के साथ, भाषाई विवाद भी बढ़े। विद्वानों का मत है कि तमिल क्षेत्र के पांड्य राजाओं का संगम साहित्य के विकास में बड़ा योगदान रहा है।

पल्लव और पांड्य राजाओं के बीच हुए संघर्षों ने तमिल को संस्कृत से दूर कर दिया। पल्लव शासक संस्कृत को प्रोत्साहित करते थे और वैदिक धर्म के संरक्षक थे, जबकि पांड्य राजाओं के शासन में शैव और वैष्णव परंपराएं फली-फूलीं और तमिल भाषा को विशेष महत्व दिया गया।

हालांकि, पांड्य राजा संस्कृत के विरोधी नहीं थे, बल्कि तमिल भाषा के समान प्रचार-प्रसार के पक्षधर थे। 16वीं शताब्दी में मुगल आक्रमणों के कारण तमिल समाज के लिए काशी यात्रा बाधित हो गई। काशी विश्वनाथ मंदिर का विध्वंस हो गया था और वहां के पुरोहितों के अनुष्ठानों पर रोक लगा दी गई थी। इस परिस्थिति में, तमिलनाडु के पांड्य वंश के राजा जटिल वर्मन पराक्रमम ने ताम्रवर्णीय नदी (जिसका उल्लेख रामायण में भी है) के तट पर तेनकाशी नामक नगर बसाया, जिसे तमिलों की नई काशी के रूप में स्थापित किया गया।

17वीं शताब्दी में तिरुनेलवेली में जन्मे संत कुमारगुरु परा ने काशी पर आधारित काशी कलंबकम नामक काव्य रचना की और कुमारस्वामी मठ की स्थापना की। काशी ने जहां पंडित परंपरा को स्थापित किया, वहीं तमिलनाडु में तमिल इलक्कियापरंबराई (तमिल साहित्यिक परंपरा) विकसित हुई। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के शिलान्यास समारोह में वैज्ञानिक सी.वी. रमन जैसे प्रतिष्ठित व्यक्ति उपस्थित थे, जबकि भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन इसके कुलपति थे।

श्रीकांची शंकराचार्य मठ के प्रबंधक एवं तीर्थ पुरोहित सुब्रमण्यम मणि के अनुसार, सातवीं शताब्दी के तमिल लोकसाहित्य में काशी की महिमा का उल्लेख प्रचुर मात्रा में मिलता है। तमिल शैव परंपरा में उस समय 63 शैवपंथ शाखाएं सक्रिय थीं, जिनके 63 धर्माचार्य भी थे। उनमें से एक प्रमुख धर्माचार्य अप्परस्वामी कैलाश मानसरोवर की यात्रा के दौरान कई महीनों तक काशी में प्रवास पर रहे।

संगम साहित्य में “अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद्,” “राष्ट्रीय पुस्तक न्यास,” “भारतीय भाषा संस्थान” और “केंद्रीय शास्त्रीय तमिल संस्थान” द्वारा प्रकाशित ग्रंथों में तिरुकुरल, शिल्पादिकारम, मणिमेकलई, पट्टूपट्टू जैसी तमिल कृतियों का संकलन मिलता है।

रवींद्रनाथ टैगोर ने कहा था— “यदि ईश्वर की इच्छा होती, तो सभी भारतीय एक ही भाषा बोलते… भारत की शक्ति उसकी अनेकता में एकता रही है और सदैव बनी रहेगी।”

भारत में 19,500 से अधिक भाषाएं और बोलियां बोली जाती हैं, जिनमें काशी और तमिलनाडु संस्कृत और तमिल जैसी विश्व की प्राचीनतम भाषाओं के केंद्र रहे हैं। महान तमिल कवि सुब्रमण्यम भारती काशी में रहे, जहां उन्होंने संस्कृत और हिंदी सीखी तथा स्थानीय संस्कृति को समृद्ध किया। इस तरह की सांस्कृतिक समरसता ने भारत को एक समग्र और समृद्ध परंपरा बनाए रखने में सक्षम बनाया है।

काशी और द्रविड़ संस्कृति, अपनी भिन्न विशेषताओं के बावजूद, भारत की अखंडता को दर्शाती हैं। दोनों ही साहित्य और दर्शन के माध्यम से भारतीय संस्कृति की विविधता और एकता को प्रकट करते हैं। जहाँ काशी संस्कृत और हिंदी साहित्य का केंद्र रही है, वहीं द्रविड़ संस्कृति ने तमिल, तेलुगु, कन्नड़ और मलयालम साहित्य को समृद्ध किया है।

संस्कृति और साहित्य में इन दोनों क्षेत्रों की प्रगाढ़ता यह सिद्ध करती है कि भारत की आत्मा उसकी विविध भाषाओं, परंपराओं और विचारों में समाहित है। काशी और द्रविड़ की यह समृद्ध विरासत आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा बनी रहेगी।

(लेखक राजनैतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ पत्रकार है)

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