नवेद शिकोह
जब हर दवा बेअसर होने लगे और कोई दूसरा रास्ता नहीं बचा हो तब बाईपास सर्जरी का रिस्क उठाया जाता है। इसे बहादुरी भी कह सकते हैं और मजबूरी भी। जेएनयू छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष और वामपंथी युवा नेता कन्हैया कुमार को शामिल करके कांग्रेस ने अपनी विफलताओं की बीमारी को दुरुस्त करने के लिए बाईपास सर्जरी का रिस्क उठाना शुरू कर दिया है।
पिछले पांच-सात बरस में चर्चाओं और विवादों में आकार जेएनयू छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया ने बहुत कुछ हासिल किया। नाम भी और बदनामियां भी। इस युवा वामपंथी पर देशद्रोह के आरोप भी लगे और एक तबके ने उनका समर्थन भी खूब किया।
अपनी जन्मभूमि बेगूसराय से वो अपनी पार्टी भाकपा से वो लोकसभा चुनाव भी लड़े किंतु हार गए। भाजपा ने इस क्रांतिकारी युवा को राष्ट्रद्रोही के तौर पर प्रोजेक्ट करने में कोई कसर नहीं की।
आईटीसेल ने इनके ख़िलाफ लोगों में दुर्भावना पैदा करने और टुकड़े-टुकड़े गैंग का मुखिया साबित करके इन्हें देश के टुकड़े करने की मंशा रखने के आरोपों से घेरा।
हांलाकि न्यायालय में कन्हैया के खिलाफ संगीन आरोप धराशायी होते रहे। फिर भी उसके प्रति नकारात्मकता घोलने का मतलब भर का काम हो चुका था।
इसका असर भी दिखा।विभिन्न गैर भाजपा दल या किसी आन्दोलनों का शीर्ष नेतृत्व भी इस इंकलाबी नौजवान से दूरी इसलिए बनाने लगा कि उन्हें लगता था कि कन्हैया की उपस्थिति भर ही किसी आंदोलन या पार्टी को देशविरोधी साबित कर सकती है। क्योंकि एक बड़ा प्रचारतंत्र/सोशल मीडिया/आईटीसेल और जनविश्वास कन्हैया के बारे में नकारात्मक परसेप्शन सेट कर चुका है।
इन खतरों के बीच कांग्रेस ने हाजिर जवाब कुशल वक्ता और तर्कों और तथ्यों के साथ भाजपा पर हमला करने वाले कन्हैया को शामिल कर बड़ा रिस्क लिया है। इस कदम को कांग्रेस का आर या पार की लड़ाई का प्रयोग भी कहा जा रहा है। अनुमान है कि कांग्रेस ऐसे रिस्की प्रयोग और भी करे।
एक ज़माना था जब ताक़तवर कांग्रेस ने ख़ुद को कमज़ोर हो जाने के डर से लेफ्ट से घबराकर हाशिए पर पड़ी भाजपा को ताकत दी। भाजपा की ज़मीन को हिन्दुत्व का बीज दिया। (अयोध्या शिलन्यास)।
अस्सी के दशक में शाहबानो मामले के बाद कांग्रेस से हिन्दू समाज दूरी बनाने के मूड में नजर आने लगा था। उधर लेफ्ट पार्टियां/वामपंथी कांग्रेस के खिलाफ एक बड़ी सियासी ताकत के रूप में उभर रहे थे।
तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने अयोध्या के विवादित ढांचे का ताला खुलवाकर एक तीर से दो निशाने लगाए। एक तो हिन्दू समाज को खुश कर उनकी नाराजगी दूर करने की कोशिश की।
और हिन्दुत्व के उभार में वामपंथी सियासी ताकतों को ज्यादा आगे न बढ़ने का स्पीड ब्रेकर लगाया। अयोध्या में विवादित स्थल का ताला खुलने के बाद दबा हुआ मामला उभरा और भाजपा को एक सशक्त मुद्दा मिल गया।
फिर धीरे-धीरे भाजपा मज़बूत होती गई और और लेफ्ट शहतीर से तिनका हो गया। भाजपा के आगे अब कांग्रेस भी बेहद कमज़ोर हो गई। और इस बार कांग्रेस घबराकर लेफ्ट के चर्चित चेहरे (कन्हैया) को तिनके का सहारा मान रही है।
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नित्य नए-नए प्रयोगों का नाम ही सियासत है। कमंडल से मंडल पर भी आई भाजपा ने भी नए प्रयोगों से विजय रख हासिल किया। बसपा के प्रयोग जग ज़ाहिर है।
यूपी में सपा का अखिलेश यादव वाला नया निज़ाम कोई भी प्रयोग नहीं कर रहा। शायद इसलिए कि कांग्रेस और फिर धुर विरोधी बसपा के साथ गठबंधन का प्रयोग कर सपा को नये प्रयोग रास नहीं आए।
साइंस की प्रयोगशाला में रिसर्च करने वाले वैज्ञानिक बड़ा अविष्कार करके महान वैज्ञानिक भी बनते हैं और कभी फेल भी होते हैं। कभी कभी तो सांइटिस्ट आंखे गवाने जैसी कुछ दुर्घटनाओं का भी शिकार हो जाते हैं। ऐसा ही सियासी प्रयोगों में भी होता है। अब देखना है कांग्रेस के सियासी प्रयोग सफल होते हैं या असफल !